सृष्टि की गौरवमयी अभिव्यक्ति-मनुष्य

June 1992

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युगों-युगों से एक ही प्रश्न मानव के जिज्ञासु मन को सोचने पर बाध्य करता रहा है कि वह कौन है ? क्यों इस धरती पर आया है ? यह सृष्टि जो दृश्यमान है, वह क्या है ?, इस सृष्टि का आदि कारण क्या है ? , जो दिखाई दे रहा है, वह सच है या भ्रान्ति मात्रा है ?, सृष्टि यदि किसी सृजेता ने बनाई है तो उसमें मानव का क्या प्रयोजन है-आदि -आदि । भारतीय संस्कृति की मनीषा की सबसे अनुपम देन यदि कोई विश्वमानवता को है तो वह यही है कि देव संस्कृति के रचयिताओं ने इस संबंध में मंथन-चिन्तन कर सृष्टि-ब्रह्म मनुष्य इन सबके विषय में बड़ा ही व्यावहारिक प्रतिपादन प्रस्तुत करते हुए व्यक्ति के धरती पर अवतरण को सोद्देश्य बताया है । सृष्टि के रहस्यों की व्याख्या करते हुए उनने उस विश्वउद्यान को, जो स्रष्टा ने विनिर्मित किया है, सजाते-सँवारते रहने का दायित्व भी मनुष्य को सौंपा है । यह आस्तिकतावादी दर्शन जो व्यक्ति को निरन्तर कर्म-परायण बने रख अंतर्मुखी बनाता है, भारतीय दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता है ।

छान्दोग्योपनिषद् (694) में उपनिषद्कार बड़े सुन्दर ढंग से मानव व सृष्टि का संबंध बताते हुए एक चिरन्तन सत्य का उद्घाटन करता है-एतद् आत्म्यमिदं सर्वं, तत्सत्यं, स आत्मा, तत्त्वमसि श्वेतकेतो-” अर्थात् संपूर्ण व्यक्त जगत के लिए यह सत्य ही आत्मा है । वही सत्य है, वही आत्मा है और है श्वेतकेतु ! तू वही है ।” मानव तथा उसके साथ छिपी अनन्त संभावनाओं के बारे में तत्त्वमसि एक वैसा ही गूढ़तम सत्य है, जैसे कि आधुनिक भौतिकी में पदार्थ के एक कण के पीछे निहित अनंत ऊर्जा की संभावनाओं को Е=द्वष्2 सूत्र के माध्यम से व्यक्त किया जाता है ।

आस्तिकता पर टिकी देव संस्कृति सृष्टि के संबंध में मनुष्य का दृष्टिकोण स्पष्ट करती हुई उसे उसका कर्तव्य स्पष्ट रूप से समझाती है । सृष्टि संस्कृत का शब्द है वह इसका अर्थ है रची हुई चलती हुई वस्तु । यह परमाणुओं के समुच्चय से बनी है या प्रकृति रूपी मूल तत्व से इस संबंध में दार्शनिक मतभेद कई हो सकते हैं । चूँकि भारतीय दार्शनिक यह मानते हैं कि यह सृष्टि किसी ने बनाई है, वे आस्तिकतावादी कहलाते हैं । नास्तिकतावादी यह कहते हैं कि यह तो स्वभावतः बन गयी है व अनादिकाल से बनती बिगड़ती चली आई है । कोई कहते हैं, कि कुदरती रचना मात्र है यह व इसमें किसी बुद्धिमत्तापूर्ण सत्ता का बनाने में कोई योगदान नहीं है । कुछ इसे आकस्मिक एक विस्फोट से हुई मानते है, आस्तिकतावादी भारतीय दार्शनिक कहते हैं कि सृष्टि को रचने वाली एक ज्ञानमय सत्ता है जो किसी प्रयोजन विशेष की सिद्धि के लिए सृष्टि बनाती और बिगाड़ती है । ऋषि चिन्तन यह कहता है कि सृष्टि के अवलोकन से चार निष्कर्ष निकलते हैं - (1) सृष्टि नियमानुकूल है नियमों से बँधी हुई है (2) इन नियमों से अपार बुद्धि का परिचय मिलता है (3) यह नियम अटल हैं तथा (4) यह नियम सूक्ष्म से सूक्ष्मतम वस्तु पर भी शासन करते हैं व कोई भी वस्तु इन का उल्लंघन नहीं कर सकती । इस प्रकार वे सिद्ध करते हैं कि ईश्वर इस जगती का नियन्ता है, ज्ञानवान है अर्थात् सर्वज्ञ है, एक रस है तथा सूक्ष्म व सर्वशक्तिमान है ।

ईश्वर व सृष्टि संबंधी प्रारंभिक चिन्तन हमको एक ऐसी सत्ता की जानकारी देता है जो बुद्धिमत्तापूर्ण भी है व इच्छा शक्ति वाली भी । इसे यदि हम नियम व्यवस्था से रूप में इकोलाॅजी विधि व्यवस्था के रूप में समझ लें तो ठीक रहेगा । अलबर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि स्रष्टा के यहाँ कुछ भी अव्यवस्थित नहीं है । यहाँ सब कुछ सुनियोजित है । भगवान कभी पासे नहीं खेलता” । इसी तरह जेम्स जीन्स कहते हैं कि स्रष्टा के रूप में एक ऐसे कलाकार की आकृति मेरे मन में आती है जिसने बड़े मन व लगन से एक कृति बनायी है जिसमें बहुत प्रकार के रंग अपनी तूलिका से सँजोए है । कोई चाहकर भी उनमें कोई कमी नहीं निकाल सकता ।” परम पूज्य गुरुदेव ने लिखा है कि “सृष्टि एक व्यवस्था के रूप में उस लीला पुरुष द्वारा अपने ज्येष्ठ पुत्र मनुष्य के लिए क्रीड़ाँगन के रूप में बनायी गयी है । यहाँ का हर क्रियाकलाप उसके द्वारा व्यवस्थित है, नियम द्वारा संचालित है तथा यह ईश्वरीय सत्ता पूर्णतः तर्क, तथा प्रमाण पर आधारित है ।”

वेद का ऋषि कहता है कि यह समस्त सृष्टि एक नियम के आधीन है, जिसे वेद में ‘ऋत्’ नाम से पुकारा गया है । यह ‘ऋत्’ एक है, ढेर सारे नहीं है । यह ऋत् उस अपार विराट बुद्धि में निवास करता है, जिसे आस्तिक लोग ईश्वर नाम से जानते हैं। अथर्ववेद में ऋषि कहते हैं-ऋतु के फैले हुए तंत्र को देखने के लिए मैं लोक-लोकान्तर में घूम आया (चारों ओर उसी का साम्राज्य है)।” “परि विश्वा भुवनान्यायम्। ऋतस्य तन्तुँ विततं दृशेकम्॥ (अथर्व 2/1/5) ऋग्वेद में भी कहा गया है ऋत् और सत्य उत्पन्न करने के लिए ईश्वर ने तप किया।” “ऋतं च सत्यं चाभीद्धात तपसोऽध्यजायत” (ऋग्वेद 10/190/1)।

इतना स्पष्ट चिंतन होते हुए भी मनुष्य भ्रान्तियों में उलझा जाता है व विभिन्न मत-मतान्तरों के हिचकोलों में इधर उधर झूलने लगता है। उदाहरण के लिए आचार्य शंकर का मायावाद। उनने कहा-ब्रह्मसत्यं जगत्मिथ्या”। यह परमात्मा सत्य है व संसार झूठ है। पर क्या-संसार से हटकर परमात्मा की परिकल्पना की जा सकती है? परमात्मा की ही कृति है यह सृष्टि अतः जगत की कल्पना उसके बिना, सृजेता के बिना कैसे की जा सकती है? उत्तर मीमांसा (वेदांत दर्शन) पर लिखे आद्यशंकर के भाष्य में जो माया का प्रसंग आया है वह नया नहीं है। वेद में आया है- “इन्द्रो मायाभिः पुरुरुप ईयते” (इन्द्र ने माया द्वारा नाना रूप ग्रहण किए)। यहाँ माया का अर्थ हैं इन्द्र जाल। बाद में श्वेताश्वेतरोपनिषद् में हम पढ़ते हैं-मायाँ तु प्रकृति विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् अर्थात् “ माया को ही प्रकृति समझो और माली को माया रचने वाले को महेश्वर।” जगत मिथ्या व माया का रूप है इसके माध्यम से भारतीय संस्कृति के अध्येता मनीषी यह कहना चाहते थे कि “इसका निरपेक्ष अस्तित्व नहीं है। मेरे तुम्हारे और अन्य सबके मन के संबंध में इसका केवल सापेक्ष अस्तित्व है। यह सत् और असत् का मिश्रण है।” मृत्यु रूपी भयावह तथ्य सामने होते हुए भी यह जानते हुए भी कि सबको मृत्यु के मुख में जाना है, जीवन के प्रति व्यक्ति की विषम आसक्ति, भोगों के प्रति आसक्ति को व परित्याग न कर पाने की विवशता को आचार्य शंकर तथा स्वामी विवेकानन्द माया कहते हैं। परमपूज्य गुरुदेव ने यहीं अपना चिन्तन आज की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में यह दिया है कि संसार में दुःख है, हम उन्हें कर्मों द्वारा कम करना सीखें तथा पूर्णता की प्राप्ति हेतु त्याग करना भी सीखें। इस संसार को माया मानने से आशय है कि भवबंधनों के रूप में कृत्रिम आनन्द की मोह-माया में फँसाने वाले तृष्णा, वासना, अहंता विभिन्न रूपों में हमारे चारों ओर हैं। इन सबको माया का रूप, क्षणिक मात्र मानकर हम स्वयं को अंतर्मुखी बनाएँ मायावाद पूज्यवर के अनुसार जीवन से भागना नहीं सिखाता, पलायनवादी दर्शन नहीं है, अपितु व्यक्ति को वास्तविकता की अनुभूति करता है।

दूसरी ओर एक अन्य चिन्तन शून्यवाद के रूप में बौद्धों द्वारा प्रणीत हुआ। जिसके अनुसार सब कुछ दुःख ही दुःख से भरा हुआ है इस संसार में पाश्चात्य दार्शनिक लीबन्ब्जि ने तो चिद् बिन्दुविद्या (मोनोडालाजी) के रूप में संवाद के संबंध में यह सिद्धान्त दे दिया कि हरेक का अपना संसार अलग है और प्रत्येक में अपने विकास की सामर्थ्य है। सृष्टि क्यों है? यह कोई दार्शनिक बता नहीं पाया, विभिन्न वादों द्वार मनुष्य को भ्रम जंजालों में उलझाने का प्रयास और किया। वस्तुतः सृष्टि का प्रयोजन है-परमात्मा की बहुविध अभिव्यक्ति और इसके लिए उसने मनुष्य को चुना है। यह संसार मनुष्य की प्रशिक्षणशाला है तथा हर व्यक्ति यहाँ अपने को अपूर्ण से पूर्ण तथा समग्र बनाने आता है।

जहाँ फ्रायड ने मनुष्य को “कामनाशील प्राणी” माना वहाँ महात्मागाँधी ने उसे नैतिक प्राणी कहा है। किन्तु परम पूज्य गुरुदेव ने उसे “आध्यात्मिक प्राणी” कहा है। विकासवाद के सभी प्रचलित मतों का खण्डन करते हुए उनने मानव को सृष्टि की परम सृजेता की गौरवमयी अभिव्यक्ति बताया। प्रकृति के अनुसार नहीं, इंस्टीक्ट्रस के अनुसार नहीं वह परमेश्वर की इच्छा के अनुसार जीवन जीने आया है व उसका एक मात्र कर्तव्य है स्रष्टा के इस उद्यान को माली के रूप में सींचना, इसके सौंदर्य को निखारना। इसी में उसका निज का विकास भी छिपा हुआ है, जिस के लिए उपनिषद्कारों से लेकर गीताकार ने विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। जो ब्रह्माण्ड में है उसी की छोटी अनुकृति पिण्ड में-मानव में हैं। पूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि मृग-मरीचिका में न भटककर अपने आपे की महानता को पहचानते हुए यदि निज को आत्मिक स्तर पर ऊँचा उठा सकें तो वही महामानव, देवता, ऋषि मनीषी अवतार आदि बन सकता है, मानवी चेतना की प्रगति का अन्तिम एवं उच्चतम सोपान देवत्व है जिसके विषय में श्वेताश्वेतर उसे “अमृतस्य पुत्रा” कहकर संबोधित करता है। शरीर यात्रा में उसका जीवन न लग जाए। जो भी समय, बुद्धि वैभव, बल उसके पास है। उसका उपभोग भगवान के विश्व उद्यान को सुव्यवस्थित बनाने के लिए होना चाहिए। इसके लिए उसे सेवा साधना को जीवन में स्थान देना चाहिए। भारतीय संस्कृति के अध्येता पूज्यवर सृष्टि को सोद्देश्य बताते हैं, मानव के प्रयोजन की विशिष्टता भी समझाते हैं व आज की परिस्थितियों में उसे उसका कर्तव्य भी सुझाते हैं।


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