‘धर्म’ व ‘मोक्ष’ की सिद्धि का उपाय ‘अर्थ’ व ‘काम’

June 1992

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देव संस्कृति का एक-एक पक्ष इतना सर्वांगपूर्ण है कि देखकर आश्चर्य होता है कि वैदिककालीन ऋषिगणों ने मानव मात्र के अभ्युदय-लौकिक व पारलौकिक प्रगति के एक भी पहलू को अछूता नहीं छोड़ा है। पूर्व के लेख में मानवी पुरुषार्थ के मूल व प्राण ‘धर्म’ की चर्चा हो चुकी। धर्माचरण व उसके लिए व्यक्ति का अंतर्मुखी होकर परिष्कृत संवेदनशील जीवन जीना ऋषियों ने अनिवार्य बताया है। ब्राह्मणत्व की यह सिद्धि व्यक्ति को ब्रह्मनिष्ठ बनाती हुई उसकी निज की प्रगति के साथ-साथ सबके उत्थान का पथ प्रशस्त करती है। भारतीय संस्कृति के प्रणेता मनीषी कहते हैं कि अर्थ व काम दोनों का ही उपार्जन-उपयोग करो, पर प्रमाण से संभलकर , धर्म के साथ युक्त होकर। अध्यात्मवादी भौतिकता का समर्थन करने वाली भारतीय संस्कृति कहती है कि जिस ‘अर्थ’ के अनुष्ठान से ‘धर्म’ व ‘काम’ का ह्रास हो जाय व जिस ‘काम’ के सम्पादन से ‘धर्म’ व अर्थ में बाधा पड़े ऐसा पुरुषार्थ संपन्न न किया जाय। अर्थ व काम को ऋषियों ने दोनों ओर से धर्म और मोक्ष से बाँध दिया है। काम शास्त्र के उपदेष्टा महर्षि वात्स्यायन “कामसूत्र” में लिखते हैं-

“लोकयात्राया हस्तगतस्य च बीजस्य भविष्यतः सस्यस्यार्थे त्याग दर्शनाच्चरेद्धर्मान।” अर्थात् “जैसे हाथ में आए हुए अन्न (बीज) को भविष्य में होने वाले बहुत से अनाज के लोभ से त्याग दिया जाता है (अर्थात् जमीन में बो दिया जाता है) उसी प्रकार मोक्ष के लिए अर्थ और काम को भी संकुचित करके भी, धर्म का सेवन करना चाहिए”। कितना स्पष्ट विज्ञान सम्मत व्यावहारिक दृष्टिकोण है। वात्स्यायन का जिनके नाम व नीति वाक्यों का आज के भोगवादी मानव ने सबसे अधिक दुरुपयोग किया है।

सबसे पहले अर्थ के प्रसंग को लिया जाय। “अर्थ” से भावार्थ है सम्पदा के उत्पादन व वितरण की सुनियोजित प्रणाली ताकि समग्र समाज में सुख-शान्ति व धर्मनिष्ठ जीवन्त रहे। अर्थ के अभाव में प्रगति की अपेक्षा कैसे की जा सकती है। शुक्राचार्य नीति में महर्षि कहते हैं-

अर्थात् धर्मश्च कामश्च मोक्षश्चापि भवेत्रृणाम्। शास्त्रास्त्राभ्याँ बिना शौर्य गार्हस्थ्यं तु स्त्रियं बिना॥ (शुक्रा. नीति 1-84)

यानी “जैसे शस्त्रास्य के बिना शूरता नहीं सफल हो सकती, जैसे स्त्री के बिना गार्हस्थ्य नहीं निभ सकता, वैसे ही अर्थ के बिना धर्म और मोक्ष दोनों ही सिद्ध नहीं हो सकते।”

महर्षि चाणक्य ने कहा-अर्थात् प्रवत्तति लोकः “अर्थ से आशय है अभिलषित वस्तु। इस लोक (चा.सू. 7/28) की प्रगति अर्थ पर ही निर्भर है। जिसे प्राप्त करने की सब इच्छा करें, वह अर्थ है। क्यों? क्योंकि “सुखस्यमूलं धर्मः। धर्मस्य मूलम अर्थः” (चा.सू. 1-1,2)

धन-धान्य वस्त्र, गृह-भूमि सम्पत्ति, पशु विद्या कला, कृषि, गृहस्थी का सब सामान इन सबको ऋषियों ने अर्थ में गिना है व कहा है कि मानव मात्र अपरिग्रह का सिद्धान्त जीवन व्यवहार में लाए ताकि सम्पदा का समान वितरण हो सके। आदमी धनोपार्जन हेतु पुरुषार्थ तो करे परन्तु निज के लिए व्यवस्था ब्राह्मणोचित निर्वाह भर की रखे। अपने पास संग्रह न करे। थोड़ा विचार करें, आज की समस्याएँ जो पैदा हुई हैं, वह किसी कारण पैदा हुई। इस शताब्दी में उपनिवेशवाद के समापन के बाद नार्थ ब्लॉक-साउथ ब्लॉक विकसित देश व अविकसित विकासशील देशों के रूप में दो वर्गों में अर्थ सम्पदा का ध्रुवीकरण हुआ। कुछ देश धनी अत्यधिक धनी बने व कुछ निर्धन व अत्यन्त दीन-हीन स्थिति में। युद्ध लिप्सा से लेकर विश्व भर में फैली आर्थिक समस्याएँ जिनमें अन्यान्य राष्ट्रों की सम्पदा-व्यवस्था व प्रजा का मन चाहा शोषण भी आ जाता है, ‘अर्थ’ के धर्म प्रधान न होने से पैदा हुई है। जो अर्थशास्त्र किसी जाति विशेष, धर्म विशेष या राष्ट्र विशेष का ही विचार करता है, वह अर्थशास्त्र धर्म पर आधारित नहीं है। जमींदारों के रूप में शोषक वर्ग के उभरने से लेकर मुनाफ़ाखोरों-कालाबाजारियों दूसरों का शोषण करके धनी बनने वाले कारखानेदारों के पुरुषार्थ के मूल में पूर्व जन्म के पुण्य नहीं अपितु अधर्म पर आधारित अर्थशास्त्र है। किसी भी समाज में इस प्रकार की विषमता-सामाजिक विग्रह, हिंसक विद्रोह व क्रान्ति को जन्म देती है। सीधा सच्चा अहिंसक रास्ता है-सम्पदा का धर्म प्रधान सुनियोजन।

यदि हम विगत दो शताब्दियों पर दृष्टि डालें तो देखते है कि मार्क्स का अर्थशास्त्र एक संजीवनी के रूप में आया व मार्क्स गरीबों के मसीहा बनकर आए परन्तु साम्यवाद का यह प्रयोग असफल रहा क्योंकि मार्क्सवाद में केन्द्रीय तंत्र अर्थ प्रधान नहीं है। उसमें विनिमय की व्यवस्था मात्र है। मार्क्स ने मानव को अर्थमानव बना डाला जो बढ़ते औद्योगीकरण के साथ यंत्र मानव बनता चला गया। अभी तक व्यक्ति पूँजीवाद था, अब समाज पूँजीवाद बन गया। कहाँ आया समाजवाद-साम्यवाद ? इसी कारण पूर्वी ब्लॉक में सोवियत रूस में एक जबर्दस्त क्रान्ति हुई व देखते-देखते लेनिन व मार्क्स की स्थापनाएँ धूल-धूसरित हो गयीं।

जब तक मानव मात्र की समता व एकता की ‘अर्थ’ को धर्म प्रधान बनाते हुए व्यवस्था नहीं की जाती, सोऽहम् रूप से आदर्श समाज की स्थापना नहीं होती। मनुष्य की मौलिक क्षमताओं को विकसित करने की विधा है धर्म-अध्यात्म तथा उन क्षमताओं का उपार्जन-उपयोग हेतु सुनियोजन करने की विधा है ‘अर्थ’। दोनों का युग्म जब तक नहीं होगा, तब तक सही समाजवाद नहीं आ सकता। परमपूज्य गुरुदेव ने जिस आध्यात्मिक साम्यवाद की रूप रेखा हम सबके समक्ष रखी, उसका आधार है मनोसामाजिक क्रान्ति । व्यक्ति की सोयी प्रतिभा का परिष्कार-उन्नयन व उससे समाज की प्रगति के विभिन्न सोपानों का खुलना। आज की उपयोग प्रधान पूँजीवादी पाश्चात्य संस्कृति की सारी पीड़ाओं का समाधान यही क्रान्ति है जिसकी दिशा हमें भारतीय संस्कृति से मिलती हैं। सुप्रसिद्ध चिंतक अर्नाल्ड टायनबी श्री इकेडा के साथ अपनी वार्ता में कहते हैं-निकट भविष्य में विश्वस्तर पर आर्थिक समाजवाद अध्यात्म की पृष्ठ भूमि पर ही आयेगा एवं यही समष्टिगत विभीषिका का हल निकालेगा।” वे कहते हैं कि “उपभोगवादी संस्कृति ने साधन दिए किन्तु उनका सुनियोजन बताकर भोग को ही प्रधानता दी। इसका परिणाम यह हुआ कि व्यक्ति का विकास अवरुद्ध हो गया व अर्थ-सम्पदा भी कुछ क्षेत्रों में संचित होकर रह गयी इस आर्थिक वैषम्य का समाधान आध्यात्मिक धरातल पर ही निकल सकता है, जिसका मार्गदर्शन पूर्वात्य संस्कृति युगों से करती आयी है (“चूज लाइफ” आक्सफोर्ड यूनिव. प्रेस 1987 पुस्तक से उद्धृत)।

कठोपनिषद् में नचिकेता यमाचार्य से कहते हैं “न वित्तेन तर्पणीयों मनुष्यः” अर्थात् मनुष्य संसार भर की दौलत पाकर भी तृप्त नहीं हो सकता। इसीलिए वैदिक विचारधारा में वित्तैषणा को परिग्रह को निन्दनीय ठहराते हुए अर्थ को धर्म का आधार देकर उसकी त्याग में मोक्ष में प्रतिष्ठ करने की बात जोर देकर कही गयी है। इसके लिए समाज में एक तंत्र कभी था जो वैश्य रूप में जाना जाता था। कालान्तर में यह वर्ण व्यवस्था जाति में बदल गई व आज कुछ अलग ही रूप में हम सबके समक्ष है परन्तु अर्थ के सुनियोजन का दायित्व वैश्य तंत्र पर था। मनुस्मृति कहती है-

यथा नदी नदः सर्वे समुद्रे यान्ति संस्थितिम्। तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्॥ (मनु 6-90)

अर्थात् जैसे नदी नालों का पानी समुद्र में जा पड़ता है, वैसे ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी, संन्यासी ये सब लोग-गृहस्थ वैश्य के द्वारा पालित पोषित होते हैं। गृहस्थ वैश्य जो धन कमाये, उसे समाज के काम में नियोजित कर दे, ऐसी व्यवस्था थी।

वस्तुतः परिग्रह करने वाला विलासी-सुख-साधनों में लिप्त व्यक्ति का बहिरंग धार्मिक रूप कुछ भी दिखाई पड़े, यदि वह अर्थ की वितरण प्रणाली को बलवती नहीं कर रहा तो धीरे-धीरे संवेदना की दृष्टि से वह कुन्द-निष्ठुर होता चला जाएगा व आत्मतत्त्व से धर्म से उतना ही दूर भी हो जाएगा। भारतीय संस्कृति का केन्द्रीयतत्त्व रहा है त्याग-दानवृत्ति संवेदनशीलता और संवेदनशील व्यक्ति कभी विलासी परिग्रही नहीं हो सकता। जब भी अर्थ की वितरण प्रणाली को अवरुद्ध कर दिया जाता है तो वह बाहर निकलने के लिए अनेकानेक मार्ग खोजता है राज्यकरों से लेकर व्यसनों में दुरुपयोग तथा ईर्ष्या से पैदा शत्रुता से प्राणहानि व धनहानि तक की बारी आ जाती है। समष्टिगत स्तर पर सामाजिक समता की मर्यादायें टूटती हैं तथा अराजकता प्रधान अव्यवस्थाओं का दौर चल पड़ता है।

भारतीय संस्कृति अर्थ संचय का समाधान बताती हुई कहती है-समाज में जहाँ कहीं भी दरिद्रता के गड्ढे हैं, उन्हें समर्थ व्यक्ति पाटें (“दरिद्रान भर कौन्तय-महाभारत धर्म प्रधान अर्थशास्त्र की स्थापना हेतु ऋषिगणों का कहना है-शतहस्तं समाहरं सहस्रहस्तं संकिर” (अथर्ववेद 3/24/5) अर्थात् सैकड़ों हाथों से कमाओ किन्तु हजार हाथों से बाँट दो। वितरण को, धन के प्रवाह की प्रक्रिया को अवरुद्ध मत करो। इसे विवेक सम्मत दान की पुण्य प्रक्रिया का आश्रय लेकर समाज को श्रेष्ठ बनाने वाले कार्यों में नियोजित कर दो। “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया” का दर्शन देने वाली भारतीय संस्कृति अर्थोपार्जन व उसकी सुरक्षा हेतु शील-संयम व उदारता को प्रमुख मानती है व इस प्रकार अर्थ का पुरुषार्थ धर्म के आधार पर करने की प्रेरणा देती है। अर्थ की सार्थकता कैसे हो, यह बताते हुए महर्षि शुक्राचार्य कहते हैं-

संरक्षयेत् कृपणवत् काले दद्याद् विरक्तवत्। (शुक्रा. नीति)

अर्थात् ‘अर्थ का उपार्जन व संरक्षण तो महान कृपण की तरह सावधानी पूर्वक किया जाय परन्तु जब उपयोग का समय आवे तो हृदय खोलकर विरक्त की तरह उदारता से उसे व्यय करना चाहिए।”

जिस प्रकार धर्ममय अर्थशास्त्र की ऊपर चर्चा की गयी, उसी प्रकार तीसरा पुरुषार्थ धर्ममय काम शास्त्र वैसा ही महत्वपूर्ण स्थान भारतीय संस्कृति में पाता है। श्रीमद्भगवद्गीता कहती है-धर्माऽविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभः!” अर्थात् “जिस ‘काम’ का धर्म से विरोध नहीं है, वह मर्यादित काम ही मेरा स्वरूप है।” भारतीय संस्कृति काम को भी धर्म के स्थान पर प्रतिष्ठित करती है व कहती है कि हमारे विषयभोग से सामाजिक व्यवस्था न बिगड़े, समाज में अशान्ति न पैदा हो, समाज में दुःख-दैन्य दरिद्रता न उत्पन्न हो। हमारा विषयोपभोग भी समाज के लिए सुखकर हो। काम आखिर है क्या?

“काम्यत इति कामः” इस व्युत्पत्ति के अनुसार विषय और इन्द्रियों के संपर्क से उत्पन्न होने वाला मानसिक आनन्द ही मुख्यतया ‘काम’ कहलाता है। जो भी शरीर व इन्द्रियों को सुख देने वाले ऐहलौकिक और पारलौकिक इच्छित पदार्थ हैं, उनको ‘काम’ की परिधि में गिना जाता है। ऋग्वेद का ऋषि कहता है-कामः मनसो रेतः (काम चित्त का, मन का, बीज है) एवं यह काम सुख का मुख्य साधन होने के कारण प्राणियों को अत्यन्त अभीष्ट है। वे यह भी कहते हैं कि इन सुखों को धर्मानुसार भोगने में कोई दोष नहीं है। काम का औचित्य की मर्यादा में रहकर यदि पुरुषार्थ सम्पादन किया जाय तो वह उल्लास, दीर्घायुष्य चिरयौवन तथा आत्मिक आनन्द देता है तथा धर्म प्रधान होने के कारण मोक्ष का निमित्त कारण बनता है, यह भारतीय संस्कृति के मनीषी बताते आए हैं। फिर भोग भोगने में काम का नियोजन होने के क्या परिणाम होते हैं, यह भी ऋषि हमें दिखाते हैं। ययाति की कथा सर्वविख्यात है जिसमें उसने लगातार पुत्रों की तरुणता लेकर, बार-बार भोग का प्रयोग करके देखा लेकिन अंत में बेचारा घबरा गया। एक सहस्रवर्ष पर्यन्त काम का अनुभव करके संसार भर के कामियों को सचेत वह कर गया। भागवतकार ययाति से कहलवाता है-

यत् पृथिथ्याँ ग्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः। न दुह्यन्ति मनः प्रीतिं पुँसः कामस्तस्य ते। (भाग. 8-19-13)

“पृथ्वी में जितने भी धन-धान्य सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं, वे सब मिल करके भी उस पुरुष के मन को संतुष्ट नहीं कर सकते, जो कि कामनाओं के प्रहार से जर्जरित हो रहा है।” इसी तथ्य को मनु

महाराज ने मानवजाति के समक्ष रखा व कहा-न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।” (म.स्मृति)

अर्थात् यदि वर्षों तक काम का उपभोग किया जाय तो भी काम शांत नहीं होता। अग्नि में आहुति डालने से वह बुझती तो नहीं किन्तु अधिकाधिक प्रज्वलित ही होती है।

इन सभी उद्धरणों से मन का असमंजस स्वाभाविक है कि विषयों का उपभोग धर्ममय तथा मोक्ष प्राप्ति का साधन कब बनता है तथा कब वह मनुष्य के लिए अधोगामी बन जाता है? सामान्य व्यक्ति का शास्त्रवचनों तथा लौकिक जीवन में संव्याप्त मान्यताओं से भ्रमित हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं। कहीं कोई महामंडलेश्वर ब्रह्मचर्य की महत्ता पर ढेरों वक्तृताएँ देते देखे जाते हैं किन्तु उनके जीवन में इन्द्रिय संयम सर्वाधिक दिखाई देता है। चूँकि काम को गोपनीय प्रसंग माना गया है अतः पारस्परिक चर्चा तक हमारे समाज में अश्लील मानी जाती है अतः काम संबंधी विकृतियाँ समाजगत व मनोगत दोनों ही क्षेत्रों में बड़े व्यापक स्तर पर फैली देखी जाती हैं। इसीलिए काम के परिष्कृत रूप की व्याख्या यहाँ अनिवार्य है।

‘काम’ प्रक्रिया जो सृष्टि के मूल कारण प्रकृति पुरुष के मिलन से लेकर दाम्पत्य जीवन बसाने तक चली आ रही है, विश्व की एक ऐसी अनिवार्यता है जिसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। काम मात्र कामसेवन ही नहीं है, अपितु विनोद उल्लास व आनन्द का नाम है जो व्यक्ति की प्राण विद्युत के माध्यम से उसके व्यक्तित्व से परिलक्षित होता है। यह पुरुषार्थी का प्राण व मानव मात्र का पौरुष रूपी वह गुण है जो व्यक्ति की दैनन्दिन जीवनचर्या में उत्साह स्फूर्ति, मानसिक समस्वरता, प्रशासकीय सुव्यवस्था व शौर्य जैसी अभिव्यक्तियों के रूप में परिलक्षित होता है। जब यही कामतत्व विकृत हो जाता है तो विषयोपभोग से लेकर जीवनीशक्ति क्षरण तक , रोगों-दुर्बलताओं के आक्रमण से लेकर समाजगत वासना के ताण्डव के रूप में देखा जाता है। कुदृष्टि-कामुकता कामतत्व की विकृति का प्रमुख निमित्त कारण है। स्वच्छन्द यौनाचार से लेकर अश्लील प्रदर्शन, कला के माध्यम से यौन कुण्ठाओं की व नारी के रमणी भोग्या रूप की अभिव्यक्ति तथा सामूहिक बलात्कारों से लेकर कुरुचिपूर्ण साहित्य का सृजन इसी विकृत रूप की अभिव्यक्तियाँ हैं।

सन्तति उत्पादन हेतु यौनाचार काम की एकाँगी व्याख्या है। भौतिकवादी प्रतिपादनों में फ्रायडवादी मनोवैज्ञानिकों ने तो काम को मानवी चेतना की मूल प्रवृत्ति ही ठहरा दिया है। कामुकता के धरातल पर ला पटकने के कारण ही काम का वह स्वरूप लुप्त हो चला है, जो मनुष्य को कभी श्रेष्ठ बनाता था। काम प्राणी के अंतराल में कार्य करने वाली एक ऐसी उल्लास भरी वृत्ति का नाम है जो सदा उसे आगे बढ़ने-ऊँचा उठने के लिए प्रेरित करती है। व्यक्ति की जिजीविषा, संकल्पशक्ति, असंभव दीख पड़ने वाली उपलब्धियाँ, साहसिक प्रयासों व प्रचण्ड पुरुषार्थ के रूप में वही उभरती दिखाई देती है। इसी शक्ति के कारण प्राणी उछलते, फुदकते तथा उमंग, उत्साह से भरे रहते हैं। इसी का एक छोटा रूप यौनाचार भी है। संतान, सतेज, और नीरोग किस प्रकार हो उसका ठीक-ठीक पोषण कैसे हो, यह सारे पक्ष धर्ममय काम के अंतर्गत आते हैं। यौनाचार के आकर्षण में प्रकृति प्रेरणा का एक मात्र लक्ष्य यही है कि सृष्टि का प्रजनन क्रम चलता रहे। किन्तु उसे यौनतृप्ति का आधार मान लेना एक भूल है। आज मनुष्य ही इस क्षेत्र में अन्य जीवधारियों की तुलना में अधिक स्वेच्छाचारी बन गया है, यह एक विडम्बना है।

काम भाव संवेदनाओं का परिष्कृत रूप है जो स्वस्थ मनोरंजन के रूप में तो, कभी भक्ति या प्रेम के रूप में, कभी कला की उच्चस्तरीय अभिव्यक्ति के रूप में, तो कभी प्रशासकीय व्यवस्था कुशलता के रूप में सामने आता है। समाज का क्षत्रिय कहा जाने वाला वर्ग काम रूपी पुरुषार्थ का उपार्जन ही करता था। लोकरंजन हेतु वही स्वस्थ प्रतिस्पर्धाओं, क्रीड़ा समागमों, शौर्य के प्रदर्शनी की व्यवस्था भी करता था। राज्य व्यवस्था भी ऐसे व्यक्ति सँभालते थे जिनका कामतत्व धर्ममय हो। कालान्तर में क्षत्रिय वर्ण-जाति बन गया व यौनाचार काम का विकृत रूप बनकर क्षत्रियों की सबसे बड़ी दुर्बलता बनकर सामने आया।

काम धर्ममय तब बनता है जब कामबीज का ज्ञान बीज के रूप में परिष्कार किया जाता है। इन्द्रिय संयम से उसका आरंभ तो होता है किन्तु अंत होता है ब्रह्म से एकाकार होकर-मोक्ष में। इन्द्रिय संयम भी दमन प्रधान नहीं, कामनाओं के परिष्कार व भावनाओं के ऊर्ध्वीकरण का मार्ग है। ब्रह्मचर्य का सुन्दरतम स्वरूप आदर्शों व सिद्धान्तों के प्रति प्रगाढ़ निष्ठ के रूप में दिखाई देता है। इस तथ्य से अवगत व इसकी अनुभूति हो जाने पर व्यक्ति यौन आकर्षणों को तुच्छ मानते हुए काम को मोक्ष में परिणत कर लेता है। वस्तुतः काम के स्थूल आकर्षण का आध्यात्मिक प्रेम में परिवर्तन ही उर्ध्वगमन है। प्रतिभा का जागरण, ओजस्विता का प्रकटीकरण, हृदय की विशालता का सौंदर्य के रूप में दिखाई पड़ना काम की सुन्दरतम अभिव्यक्ति है। मोक्ष की, जीवन-बंधनों से मुक्ति की, ईश्वरीय सान्निध्य के दिव्य रसास्वादन की भूमिका यहीं से बनती है। अध्यात्म सम्मत काम विज्ञान ही आज की भोगप्रधान संस्कृति का उत्तर हो सकता है, इसमें किसी को संशय नहीं होना चाहिए।

आज का आस्था संकट ‘अर्थ’ व ‘काम’ इन दोनों के धर्म से विलग हो जाने से पैदा हुआ है, यह निष्कर्ष सभी विचारकों का है। जब-जब भी जिस समाज में उपार्जन हेतु अर्थ तथा उपभोग हेतु काम का बिना किसी वर्जना के बिना मानव मात्र के प्रति संवेदना-करुणा को जगाए, नियोजन होगा तो वह समाज पतन के गर्त में गिरेगा। यदि हमें आज समाज को, व्यक्ति को सही दिशा में अग्रगामी बनाना है, सतयुगी दुनिया का प्रारूप विकसित करना है तो अर्थ व काम को धर्म के आधार पर प्रतिष्ठित करना होगा। सोऽहम् क्रान्ति अगले दिनों यही कार्य संपन्न करने जा रही है।


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