व्यक्ति की संवेदना को परिष्कृत करने वाली विधा है “धर्म”

June 1992

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पुरुषार्थ चतुष्टय में सर्वाधिक प्रधान पुरुषार्थ जो मोक्ष प्राप्ति का साधन बताया गया है, धर्म है। धर्म शब्द की व्याख्या कई प्रकार से की जा सकती है। पहले शास्त्रों का प्रसंग लें, फिर आधुनिक चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में सोचें कि यह धर्म है क्या? क्या यह वही धर्म है जिसके नाम पर निष्ठुर लोग एक दूसरे को मारते-परस्पर विद्वेष फैलाते नजर आते हैं? क्या धर्म उसे कहते हैं जिसमें बहिरंग का कर्मकाण्ड, वेश, विन्यास ही प्रमुख होता है एवं आचरण-व्यक्तित्व परिष्कार की कोई आवश्यकता नहीं होती? क्या धर्म वह है जो व्यक्ति को अनैतिक आचरण की प्रेरणा देता है व इसके लिए साक्षियाँ भगवत् सत्ता की देता है? क्या विशिष्ट पूजागृह में जाकर वैसा व्यवहार करना व मुँह चला लेना, यही धर्म है? कर्म को प्रधानता न देते हुए समाज पर भारभूत बनकर अकर्मण्य बनते चले जाना ही क्या धर्म है? ये सारे प्रश्न, उत्तर माँगते हैं, क्योंकि धर्म शब्द को जितना अधिक तोड़ा मरोड़ा व उसका दुरुपयोग किया गया है, उतना संभवतः और किसी के साथ नहीं हुआ। यह समझ में नहीं आता कि धर्म जैसी शाश्वत अनित्य सत्ता कभी-कभी खतरे में कैसे पड़ जाती है व किसी की बलात् धर्म संबंधी मान्यताएँ बदल देने पर परलोक में किसी के लिए स्थान सुरक्षित कैसे हो जाता है? इन सबकी स्पष्टीकरण देने के लिए हमें ‘धर्म’ के वास्तविक स्वरूप को भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में समझना होगा।

गीताभाष्य में आद्यशंकराचार्य कहते हैं “जो इस जगत् की स्थिति का कारण एवं प्राणियों के अभ्युदय और मोक्ष का साक्षात हेतु है, श्रेय के अभिलाषी ब्राह्मणादि वर्ण और आश्रम वाले लोग जिसका आचरण करते हैं, उसका नाम धर्म है” (जगतः स्थिति कारणं प्राणिनां साक्षात अभ्युदय निःश्रेयस हेतुः यः सधर्मो ब्राह्मणाद्यै वर्णिभिराश्रमिभिश्च श्रेयोर्यिभिरनुष्ठीयमानः)। इसका भावार्थ यह हुआ कि जिस परमसत्ता के बनाये नियमों के अनुरूप इस जगत् का धारण-पोषण हो रहा है, उसके अनुशासनों के अंतर्गत अपनी जीवनचर्या का निर्धारण धर्माचरण है, जो मनुष्य की आमूलचूल प्रगति का-सर्वांगपूर्ण अभ्युदय तथा निःश्रेयस का निमित्त कारण है, वह धर्म है। प्रकृति के विश्व ब्रह्माण्ड के दायरे में रहकर सदाचरण द्वारा की गयी प्रगति अभ्युदय कहलाती है तथा ब्रह्म की निःसीम सुखानुभूति को, प्रकृति की सीमा से परे प्राप्त होने वाली आत्मिक प्रगति को निःश्रेयस (नास्ति श्रेयान् यस्तात् तत् निःश्रेयम्-जिससे बढ़कर और कोई उत्तम फल न हो) कहते हैं। श्रेय पथ पर चलने वाले-श्रेष्ठ चिन्तन कर तदनुसार आचरण करने वाले ब्रह्मनिष्ठों के बताए पथ पर चलना धर्म है। वस्तुतः आचरण में नीतिमत्ता को उतारने की प्रेरणा देने वाला कारक तत्व धर्म है।

धर्म की अगली व्याख्या महाभारतकार ने इस प्रकार की है-

धारणाद् धर्मामत्याहुर्धर्मो धारयति प्रजाः-महाभारत क.प. 69-59

अर्थात् जो व्यक्ति को, समाज को, जनसामान्य को धारण करे, उसे धर्म कहते हैं। धर्म शब्द के मुख्य अर्थ तीन हैं-धारण करने वाला, पालन पोषण करने वाला, अवलम्बन देने वाला। किन्हें धारण करने वाला? किन्हें संरक्षण देने वाला? संपूर्ण जगत को। यहाँ रहने वाले जीवधारियों को। इस प्रकार सारी विश्व मानवता के लिए धर्म एक ही हुआ। जिसके मार्गदर्शन संरक्षण में जिसके छाया तले सभी प्रकार की विचारधाराएँ समान रूप से पोषण पाती रहें, पारस्परिक कोई विग्रह न हो, वह धर्म शाश्वत है व एक ही है, देव संस्कृति इस संबंध में हमारा मार्गदर्शन आज की साम्प्रदायिक विद्वेषभरी परिस्थितियों में समुचित रीति-नीति से करती हुई कहती हैं कि वही धर्म कहलाने योग्य है जो सहिष्णु हो, जिसकी मर्यादा-अनुशासन का अवलम्बन सब लें, जो नीतिमत्ता पर आधारित हो तथा जो सबको समान संरक्षण प्रदान करता हो। इस प्रकार “धारयते लोकम् इति धर्मः” की उक्ति पर आज की परिस्थितियों में कौन सा ऐसा धर्म है, इसका निर्णय आसानी से किया जा सकता है व तदनुसार मानवधर्म का निर्धारण मानव मात्र के लिए किया जा सकता है।

धर्म की परिभाषा बड़े विराट व्यापक रूप में समझी जानी चाहिए क्योंकि इसी पर समग्र विश्वमानवता की आचार संहिता अवलम्बित है। धर्म व संप्रदाय में अंतर है। धर्म एक शाश्वत नीतिदर्शन का नाम है जो मूलतः संवेदना की धुरी पर जन्म लेता है जबकि सम्प्रदाय एक मान्यता विशेष का, एक मार्ग का नाम है जिसे मानते हुए जिसका अवलम्बन लेते हुए व्यक्ति एक चरम लक्ष्य को प्राप्त होता है। देव संस्कृति ने धर्म को इसी अर्थ में लिया। यही कारण है कि इसके गर्भ में सभी मत-सम्प्रदाय-मतान्तर-मान्यताएँ पनपते-विकसित होते चले गए।

धर्म का प्रथम अंग है नीति विज्ञान। नैतिकता पर आधारित एक ऐसा अनुशासन जो व्यक्ति की चेतना में संवेदना को जन्म दे, उसे अंकुरित-पोषित होने हेतु समुचित वातावरण प्रदान करें। सच्चा धर्म वही है जो व्यक्ति को नैतिकता के अनुशासन में बाँधता है। आर आस्बार्न अपनी पुस्तक “ह्यूमेनिज्य एण्ड मॉरल थ्योरी” में कहते हैं कि विभिन्न संप्रदायों में मान्यताओं संबंधी मतभेद हो सकते हैं किन्तु नैतिक विचारों के संबंध में सभी में एकता है। रैल्कपैरी “द् ह्यूमिनिटी आफ मैन” में कहते हैं कि धर्म की आवश्यकता मानव का गौरव व उसके आचरण की श्रेष्ठता बनाए रखने में है। नियमबद्ध, अनुशासित संयमपूर्ण जीवन ही समृद्ध व्यक्तित्व बनाता है व यह कार्य धर्माचरण से ही संभव होता है। संभवतः इसी कारण ऋषियों ने कहा-धर्मान्न प्रमदितव्यम्।” (अर्थात् धर्म में प्रमाद या असावधानी नहीं बरतनी चाहिए)। आधुनिक सभ्यताएँ नैतिक बंधनों से परे धर्म रहित अर्थ व काम की प्राप्ति-उपार्जन हेतु प्रेरित करती हैं, मन की पैशाचिक दासता को स्वीकारने की प्रेरणा देती हैं। परिणाम सामने है। प्रत्यक्षतः या लौकिक जीवन में जो रोग दुर्बलताएँ दुःख अशान्ति पारस्परिक विग्रह नजर आ रहे हैं, वह सब इसी कारण पनपे हैं। मनु कहते हैं “परिज्येदर्थकामौ यौ स्याताँ धर्म वर्जिताम्” अर्थात् “मनुष्य को ऐसे अर्थ और काम का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए जो कि धर्म से रहित हो।” इस प्रकार धर्म का अर्थ हुआ संवेदना मूलक नीतिमत्ता।

धर्म का द्वितीय अंग है-आस्तिकता प्रधान तत्त्वदर्शन। मानव-मानव में पारस्परिक सामंजस्य एवं अनिवार्य घनिष्ठता स्थापित करने वाला तर्क सम्मत विवेचन। आर अस्गोली ने अपनी पुस्तक “साइकोसिन्थेसिस” में धर्म के इस पहलू को मानवी अतिचेतन के एक अनिवार्य गुण के रूप में प्रतिपादित करते हुए कहा है कि “यहीं से मनुष्य को ऊँचा उठाने वाली, दुर्बलताओं से मुक्ति दिलाने वाली, श्रेष्ठ व उदात्त भावनाओं का उदय होता है। प्रतिभा जागरण का मूल केन्द्र यही है। आध्यात्मिक ऊर्जा जगाकर व्यक्ति को श्रेष्ठता के पथ पर पहुँचाने वाली विधा है यह।” वेदों का ऋषि धर्म के इस उदात्त व व्यापक रूप की व्याख्या करते हुए मानव मात्र के शुभ की कामना की अभिव्यक्ति इस प्रकार करता है।

ध्रुवाँ भूमि पृथिवी धर्मणाघृताम। शिवाँ स्थोनामनु चरेम विश्वहा-अथर्ववेद 12.1

अर्थात् “यह ध्रुव और अचल भूमि, यह पृथ्वी जो धर्म द्वारा धारण की गयी है, हम उस शिवसुखदायिनी भूमि पर विश्वान्त विचरण करें।” ऋग्वेद में ऋषि कहते हैं - “सुगाँ ऋतस्य पंथा” अर्थात् धर्म का मार्ग मानव को सुख देता है, दुख से मुक्त (ऋग्वेद 8/3/13) करता है।” कितनी व्यापक अर्थ वाली भावना वैदिक संस्कृति में धर्म के प्रति व्यक्त की गयी है। ऋग्वेद में ‘ऋतु’ ऐसी विश्व व्यवस्था संबंधी धारणा है जिसमें सार्वभौम प्रतिमानों द्वारा धर्म की परिपूर्ण व्याख्या तत्त्वदर्शन के परिप्रेक्ष्य में की गयी है।

धर्म का तृतीय अंग है अनगढ़ मानव को देवमानव बनाने वाला उसे सही दिशा देने वाला एक गहन विज्ञान, जिसे हम “अध्यात्म” नाम से जानते हैं, धर्म को अध्यात्म से “स्प्रिच्यूअलिटी” से कभी अलग नहीं किया जा सकता। जो प्रयास-प्रयत्न मनुष्य को अन्तर्मुखी होने की प्रेरणा दे वह धर्म है, जो बहिर्मुखी बनाए उसे भोगवादी बनाकर उसके व्यक्तित्व को विखण्डित कर दे, वह अधर्म है। बहिर्मुखता मनुष्य को व समग्र समाज को असंयम की ओर, विनाश की ओर ले जाती है तथा अंतर्मुखता संयम-शान्ति-प्रेम तथा इनरब्लिस व परम लक्ष्य की ओर। विभिन्न कर्मकाण्डों द्वारा देव संस्कृति में यही प्रयोग मनुष्य को सिखाया जाता है एकाग्रता के चरमलक्ष्य की ओर अंतर्मुखता की ओर बढ़ने का। जिस समाज में जितने अधिक अंतर्मुखी वृति के व्यक्ति होंगे वह समाज उनकी एकाग्रता से प्राप्त शक्ति से उतना ही लाभान्वित होगा। वह उतना ही अधिक टिकाऊ बनेगा। भारतीय संस्कृति इस कसौटी पर पूरी तरह खरी उतरती है।

वस्तुतः मानव की संवेदनशीलता का विकास ही धर्म है। एरिकफ्राँम वह पहला व्यक्ति था जिसने मन की गहन परतों की सामाजिक परिप्रेक्ष्य में व्याख्या कर धर्म को मानव मात्र के लिए अनिवार्य बताया। इसके लिए उसने धर्म की व्याख्या की, मानवी क्षमताओं के जागरण की उसके समुन्नत व्यक्तित्व परिष्कार की विधा के रूप में (मेन एण्ड सोसायटी इन एरिकफ्राँम-अदिति चौधुरी-पृष्ठ 183)। फ्राँम कहते हैं कि “वह धर्म झूठा है जो व्यक्ति की विकासोन्मुख मौलिक क्षमताओं को दबाने या कुन्द करने की उसे संवेदना हीन बनाने की कोशिश करता है।” स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि “धर्म के नाम पर आज हम सब “लिप सर्विस”। ओठों से बुदबुदाने वाले कर्मकाण्ड मात्र का प्रयोग करते हैं जब कि धर्म व्यक्तित्व के परिष्कार की व उस माध्यम से उसके सारे समाज पर पड़ने वाले प्रभाव की विधा का नाम है। एक सच्चा धार्मिक व्यक्ति चलती फिरती संस्था है।” स्वामी विवेकानन्द की यह उक्ति कितनी सही है।

तैत्तिरीय आरण्यक में धर्म को संपूर्ण जगत का आधार कहा गया है-धर्मों विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठ।” इसी कारण आगे श्रुति कहती है-धर्म एवं हतो हन्ति धर्मोरक्षति रक्षितः” अर्थात् “धर्म का जो नाश करेगा, धर्म उसे विनष्ट कर देगा और जो धर्म की रक्षा करेगा, धर्म उसकी रक्षा करता है।” धर्म के नाश से अर्थ है उसकी उपेक्षा तथा धर्म की रक्षा से यहाँ तात्पर्य है धर्माचरण। सारा समाज इसी अनुशासन पर टिका हुआ है। समाज के मानक दण्ड मानवीय मूल्यों का पतन होने पर उसका विनाश सुनिश्चित है। धर्म प्रधान पुरुषार्थ व्यक्ति, समाज, राष्ट्र व संस्कृति के सर्वांगीण अभ्युदय का निमित्त कारण बनता है, इसमें किसी प्रकार का संशय किसी भी विचारक को नहीं है।

सारे विश्व के मनुष्यों की उत्पत्ति द्वारा मानव के रूप में एक प्राणी भगवान ने बनाया है। अतः उसके धर्म अनेक नहीं हो सकते। विश्व में दो या पाँच या दस धर्म है, यह एक भ्रान्ति है। अनादि सनातन वैदिक धर्म ही मानव धर्म है, यह प्रागैतिहासिक कालीन विश्वमान्य सत्य है। बाद में देश, काल, पात्र के अनुसार महापुरुषों ने धर्म के किसी विशेष अंग को कहीं प्रचलित किया और कालान्तर में वह मत धर्म कहा जाने लगा। धर्म के विभिन्न अंगों में पारस्परिक विग्रह या विद्वेष कैसा? सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, त्याग आदि सार्वभौम धर्म हैं। किसी महामानव ने किसी पर बल दिया है, किसी ने दूसरे पर। तात्कालिक समाज की जो विकृतियाँ थी, उन्हें मिटाने हेतु जिस साधन पर बल देना आवश्यक माना गया उसे उन्होंने प्रमुखता दी। किसी ने यह नहीं कहा कि हम नूतन धर्म का सृजन कर रहे हैं। यह तो मानवी दंभ है जो शाश्वत धर्म को संप्रदायों का रूप देकर उन्हें परस्पर लड़वाकर समाज के पतन का कारण बनता है। इस संकट का निवारण तभी संभव है जब धर्म का शाश्वत स्वरूप सभी को हृदयंगम कराया जा सके।

मानवमात्र के लिए श्रेष्ठता के पथ पर बढ़ने में सहायक धर्मोत्पत्ति के दस साधन मनुमहाराज ने बताये हैं, उन्हें धर्म के दस लक्षण भी कहा जाता है।

घृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौधमिन्द्रिय निग्रहः। घीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्-मनुःस्मृति 6-92)

अर्थात् धृति (धैर्य, सन्तोष, आत्मावलम्बन), क्षमा (औचित्य के प्रति उदारता), दम (मनःसंयम), अस्तेय (न्यायपूर्ण जीवन) शौच (बहिरंग व अंतरंग की पवित्रता), इन्द्रिय निग्रह (विषयों के अधोगामी प्रवाह को रोकना), धी विवेक-बुद्धि विद्या (आत्मज्ञान पारलौकिक फल वाले सत्कर्मों में प्रवृत्ति), सत्य मन-वचन-कर्म से व्यक्ति का शुद्ध होना व प्रिया सत्य बोलना), अक्रोध (मानसिक समस्वरता, आत्म नियंत्रण, आवेश में न आना-ये दस लक्षण धर्म के बताये गए हैं। व्यावहारिक अध्यात्म की दृष्टि से कितने सही व परिष्कृत व्यक्तित्व हेतु अनिवार्य ये सद्गुण हैं। किसी भी सभ्यता-मान्यता को मानने वाले को इस संबंध में भ्रम नहीं होना चाहिए।

कुछ धर्म सामान्य धर्म होते हैं, कुछ विशेष। दान सामान्य धर्म है परन्तु रोगी ऐसे पदार्थ आकर माँगे-जो उसे नुकसान करेंगे तो उस समय इसे वह पदार्थ न देना विशेष धर्म है। इसी प्रकार आततायी को क्षमा कर देना अहिंसा नहीं कायरता है। फोड़े पर चीरा लगाना चिकित्सक का विशेष धर्म है हिंसा नहीं। इस प्रकार धर्म सदैव देश, काल, परिस्थिति व औचित्य के साथ देखकर उसका निर्धारण किया जाना चाहिए। आपधर्म केवल आपत्तिकाल तक के लिए होता है और वह भी उतने ही अंश जितने अंश में आपत्तिकाल चल रहा हो। मरणासन्न रोगी को वैद्य ने लहसुन दे दिया तो जरूरी नहीं कि अच्छा होने पर भी लहसुन उसका खाद्य हो जाय। युगधर्म वह है जो उस समय काल के लिए किया जाने योग्य कर्तव्य है। स्वतंत्रता संग्राम में देश के लिए लड़ना युगधर्म था तो आज देव संस्कृति का तत्त्वज्ञान घर-घर पहुँचाना, आस्था संकट से जूझना, पीड़ित मानवता की सेवा युगधर्म है।

वस्तुतः धर्म हमें कर्तव्य की प्रेरणा देता है, साथ ही फल की ओर से तटस्थ रहने का आदेश भी देता है। धर्म का एकमेव लक्ष्य अन्तर्मुखता है, त्याग है, संवेदना का जागरण है तथा पारस्परिक सद्भाव का विकास है। इस भावना का जितना विस्तार होगा, धर्म की उतनी ही रक्षा होगी, आस्था संकट की विभीषिका तभी मिटेगी तथा मानवी पुरुषार्थ अलसाई अवस्था से परिपूर्ण जागरण-मोक्ष की ओर अग्रसर होगा।


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