ज्ञान और विज्ञान का महासागर है-आर्ष-वांग्मय

June 1992

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ज्ञान-की सार्थकता-व्यापक बोध और समग्र दृष्टि पाने में है। मानवीय ज्ञान-विज्ञान के आदि स्रोत के रूप में ‘वेद’ ने यही तत्व जीवन में बिखेरे हैं। जिनको ग्रहण कर ऋषि भूमि की सोऽहम् सम्पदा अक्षुण्ण प्राण और शाश्वत जीवन पा सकी। सत्य अर्थों में वेद एक पोथी मात्र न होकर जीवन और सृष्टि के रहस्यों को खोलने वाला व्यापक विश्वकोश है। इसका सम्यक् विभाजन और सम्पादन करने वाले भगवान व्यास ने इसे चार वर्गों में विभक्त किया। ऋक् जिसका अर्थ है-प्रार्थना अथवा स्तुति, यजुः का तात्पर्य है यज्ञ-यज्ञादि का विधान, साम-शान्ति अथवा मंगल स्थापित करने वाला गान है और अथर्व में धर्म दर्शन के अतिरिक्त लोक-जीवन के सामान्यक्रम में काम आने वाली ढेरों-उपयोगी सामग्री भरी पड़ी है।

भाष्यकार महीधर के अनुसार-प्रत्येक ‘वेद’ से जो वांग्मय विकसित हुआ, अध्ययन की सुविधा के लिए उसे पुनः चार भागों में वर्गीकृत किया गया (1) संहिता (2) ब्राह्मण (3) आरण्यक और (4) उपनिषद्। संहिता में वैदिक स्तुतियाँ संग्रहित हैं। ब्राह्मण में मंत्रों की व्याख्या और उनके समर्थन में प्रवचन दिए हुए हैं, आरण्यक में वानप्रस्थियों के लिए उपयोगी आरण्यगान और विधि-विधान है। उपनिषदों में दार्शनिक व्याख्याओं का प्रस्तुतीकरण है। कालक्रम के प्रवाह में इस वर्गीकरण का लोप हो जाने के कारण इनमें से प्रत्येक को स्वतन्त्र मान लिया गया और आज स्थिति यह है कि ‘वेद’ शब्द सिर्फ संहिता के अर्थों में प्रयुक्त होता है।

जबकि वर्गीकरण-का तात्पर्य अस्तित्व का बिखराव नहीं उसका सुव्यवस्थित उपयोग है। जिसके क्रम में वैदिक अध्ययन कई शाखाओं में विकसित हुआ। ऋग्वेद की पाँच शाखाएँ थीं शाकल वाष्कल, आश्वलायन, शाँखायन और माँडूक्य। इनमें अब शाकल शाखा ही उपलब्ध है। शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन और कात्य दो शाखाएँ। कृष्ण यजुर्वे की उपलब्ध शाखाएँ इस समय चार हैं तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक, और कठ। सामवेद की दो शाखाएँ हैं कौथुमी और राणायनीय। अथर्ववेद की उपलब्ध शाखाओं के नाम पैप्पलाद तथा शोनक हैं।

संहिताओं के विवेचन क्रम में अध्ययन करने पर ऋग्वेद संहिता में दस मंडलों का पता लगता है। जिनमें 85 अनुवाद और अनुवाक समूह में 1028 सूक्त हैं। सूक्तों के बहुत से भेद किए गए हैं यथा-महासूक्त क्षुद्र, सूक्त, ऋषिसूक्त, छन्दसूक्त, और देवतासूक्त। वेदज्ञ मनीषियों के अनुसार ऋग्वेद के मंत्रों की संख्या 10,402 से 10,628 तक है। यजुर्वेद के दो भाग है-शुक्ल और कृष्ण इनमें कृष्ण यजुर्वेद संहिता को तैत्तिरीय संहिता भी कहते हैं।

मुक्तिकोपनिषद् के अनुसार इसको 109 शाखाएँ थीं, जिनमें मात्र 12 शाखाएँ और 14 उपशाखाएँ ही उपलब्ध हैं। इस संहिता में कुल सात अष्टक हैं 700 अनुवादों वाले इस ग्रन्थ में अश्वमेध, अग्निहोम, राजसूय अतिरात्र आदि यज्ञों का वर्ण है। इसमें 18000 मंत्र मिलते हैं। शुक्ल यजुर्वेद की संहिता के माध्यन्दिनी भी कहते हैं। इसमें 40 अध्याय 290 अनुवाक और अनेक काण्ड हैं। यहाँ दर्शपौर्णभास, वाजपेय आदि यज्ञों का वर्णन है।

सामवेद के पूर्व और उत्तर दो भाग हैं। पूर्व संहिता को छन्द, आर्चिक और सप्त साम नामों से भी अभिहित किया गया है। इसके छः प्रपाठक हैं। सामवेद की उत्तर संहिता को उत्तरार्धिक या आरण्यगान भी कहा गया है। अथर्ववेद की मंत्र संख्या 12,300 हैं। जिसका अति न्यून अंश आजकल प्राप्त है। इसकी नौ शाखाएँ पैप्पल, दान्त, प्रदान्त स्नात, रौत, ब्रह्मदत्त शौनक, दैवीदर्शनी और चरण विद्या में से केवल शौनक शाखा ही आज रह पाई है। इसमें 20 काण्ड हैं।

संहिताओं के पश्चात ब्राह्मणों का स्थान आता है । इनके विषय को चार भागों में बाँटा गया है। विधिश्माग, अर्थवादभाग, उपनिषदभाग और आख्यानभाग। विधिभाग में यज्ञों के विधान का वर्णन है। इसमें अर्थमीमाँसा और शब्दों की निष्पत्ति भी बतायी गयी है। अर्थवाद में यज्ञों में महात्म्य को समझाने के लिए प्ररोचनात्मक विषयों का वर्णन है। ब्राह्मणों के उपनिषद् भाग में ब्राह्मण के विषय में विचार किया गया है। आख्यान भाग में प्राचीन ऋषिवंशों, आचार्य वंशों और राजवंशों की कथाएँ वर्णित हैं।

प्रत्येक वैदिक संहिता के अलग-अलग ब्राह्मण ग्रन्थ हैं। ऋग्वेद के दो ब्राह्मण हैं ऐतरेय और कौषीतकि। यजुर्वेद के भी दो ब्राह्मण है कृष्ण यजुर्वेद का तैत्तिरीय ब्राह्मण और शुक्ल यजुर्वेद का शतपथ ब्राह्मण। सामवेद की कौथुमीय शाखा के ब्राह्मण ग्रन्थ चालीस अध्यायों में विभक्त हैं। इसकी जैमिनीय शाखा के दो ब्राह्मण ग्रन्थ हैं जैमिनीय ब्राह्मण और जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण। इन्हें क्रमशः आर्षेय और छान्दोग्य ब्राह्मण भी कहते हैं। अथर्ववेद की भी शाखाएँ हैं किन्तु एक ही ब्राह्मण उपलब्ध है गोपथब्राह्मण।

आरण्यकों की विषय वस्तु सायणाचार्य के शब्दों में लोकसेवी वानप्रस्थों की प्रशिक्षण सामग्री है। मुख्य आरण्यक ग्रन्थों के क्रम में ऋग्वेद में ऐतरेय और कौषीतकि आरण्यक मिलते हैं। यजुर्वेद में कृष्ण यजुर्वेद का एक आरण्यक है तैत्तिरीय आरण्यक। जिसके दस काण्डों में आरणीय विधि का प्रतिपादन हुआ है बृहदारण्यशुक्ल यजुर्वेद का है। सामवेद में सिर्फ छान्दोग्य आरण्यक मिलता है। जो छः प्रपाठकों में विभाजित है।

‘वेद’ का चरमोत्कर्ष उपनिषदों में मिलता है। अन्तिम भाग होने के कारण इसे ‘वेदान्त’ की संज्ञा भी प्राप्त है। उपनिषदों ने ही स्वयं इस शब्द की व्याख्या सूचित की है “यदा वै बली भवति अथ उत्थाता भवति, उत्तिष्ठन परिचरिता भवति, परिचरन, उपसत्ता भवति, उपसीदन द्रष्ट भवति, श्रोता भवति, मन्ता भवति, बोद्धा भवति, कर्ता भवति, विज्ञाता भवति (छान्दोग्य 7/8/1) जब मनुष्य बलवान होता है तब वह उठकर खड़ा होता है। उठकर खड़ा होने पर गुरु की सेवा करता है। फिर वह गुरु के पास (उप) जाकर बैठता है। (सद) पास जाकर बैठने पर वह गुरु का जीवन ध्यान से देखता है। उसका व्याख्यान सुनता है उसे मनन करता है, समझ लेता है और उसके अनुसार आचरण करता है। उसमें उसे विज्ञान यानि अपरोक्ष अनुभूति का लाभ होता है ‘उप’ ‘नि’ ये दो उपसर्ग और ‘सद’ धातु से बने इस शब्द की इस व्याख्या में ‘नि’ अर्थात् निष्ठ से की व्याख्या छूट गई है जिसका उल्लेख एक दूसरी जगह हुआ है। “ब्रह्मचारी आचार्यकुलवासी अत्यन्तम् आत्मानम् आचार्यकुले अवसादयन्” (छान्दोग्य 2/23/1) ब्रह्मचर्यपूर्वक गुरु के पास रहकर (उप) गुरु सेवा में अपने आपको विशेष रूप से (नि) खपाने वाला (सद) जो रहस्यभूत विद्या प्राप्त करता है वह है उपनिषद् ।

इन दोनों पर्यायों के इकट्ठा करके देखें तो (1) आत्मबल (2) उत्थान (3) ब्रह्मचर्य (4) गुरु सेवा में शरीर को खपा देना (5) गुरु (हृदय) सान्निध्य (6) जीवन निरीक्षण (7) श्रवण (8) मनन (9) अवबोधन (10) आचरण (11) अनुभूति-इतना सारा भाव-इस छोटे शब्द में निहित है। इनकी संख्या कितनी है? इस संदर्भ में भिन्न-भिन्न स्थानों पर अलग-अलग विवरण प्राप्त होते हैं। मुक्तिकोपनिषद् में 108 उपनिषदों की सूची है। उपनिषद्वाक्य महाकोश में 223 उपनिषद् ग्रन्थों को नामोल्लेख हुआ है। इनकी वेदों से अभिन्नता और प्राचीनता को दृष्टि में रखकर विचार करें 108 उपनिषदों की सूची ही सार्थक लगती है। अन्य के सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि मध्ययुग में विभिन्न सम्प्रदायों ने अपनी प्राचीनता सिद्ध करने के लिए इनकी रचना की गई इन 108 उपनिषदों में भी अपनी विशेष गहनता के कारण ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छांदोग्य, बृहदारण्यक और श्वेताश्वेतर कुछ अधिक ही महत्वपूर्ण हैं।

ज्ञान के विश्वकोश का यह व्यापक विस्तार-उपरोक्त पंक्तियों के अनुसार अब-आधे-अधूरे रूप में ही मिलता है। इतने पर भी चेतना की गहरी पर्तों को खोलने वाले यह मंत्र इतने मोहक और उदात्त हैं, जिन्हें पढ़कर विश्व-मनीषा को चकित होना पड़ता है। इतने पर भी उनकी संख्या भी कम नहीं है जो अपने ओछेपन, मूढ़ता और दुराग्रह के कारण वेदों की ऊल-जलूल व्याख्या करते रहते हैं। इसका एकमात्र कारण सस्ती लोकप्रियता को लूटना और विद्वान होने का सस्ता गौरव हासिल करना समझा जा सकता है। उनके पास न तो ‘संस्कृत’ भाषा की मर्मज्ञता है और न तप साधना की कुञ्जी । इसी अभाव के कारण आधुनिक मन इसे आदिम, जंगली और अत्याधिक बर्बर समाज की स्तोत्र संहिता मान बैठा है। यूरोपीय पाण्डित्य ने इसे जंगली शान्तिकरण सम्बन्धी यज्ञ बलिदानों का जखीरा मानकर अपनी समझ के बौने पन का ढिंढोरा पीट दिया। देव भाषा संस्कृत ज्ञान से अनभिज्ञ सामान्य जन का इन हल्के प्रयासों से भ्रमित होना अस्वाभाविक नहीं है।

सोऽहम् विवेचन का वर्तमान प्रयास जिस महान उद्देश्य को लेकर किया जा रहा है वह है इन प्रचलित भ्रान्तियों का निवारण और अपने पूर्व पुरुषों द्वारा सौंपी गई विरासत का गौरव बोध। जिसका जिक्र करते हुए महायोगी अनिर्वाण ने अपने ग्रन्थ वेद मीमांसा में कहा कि ‘वेद’ उन ऋषियों की कृति है जिन्होंने अपने मन द्वारा कुछ गढ़कर रचने की जगह, एक महान, व्यापक, शाश्वत तथा अपौरुषेय सत्य को अपने आलोकित मनों में ग्रहण किया था। सत्य को मंत्र में मूर्त करने वाले इन ऋषियों को एक नाम और दिया गया ‘कविः’। वेद इनके बारे में कहता है कवयः सत्यश्रुतः (ऋग्वेद 5/57/8) अर्थात् वे द्रष्ट जो दिव्य सत्य को सुनने वाले थे।

इस सत्य से अनभिज्ञ-शब्दार्थ में उलझ जाने वाले-वेदों में पशु बलि-हिंसा-जैसी न जाने कितनी बातें ढूँढ़ा करते हैं। जबकि वेद भगवान का स्पष्ट आदेश है पशुन पाहि माँ मा हिंसी, अजा मा हिंसी। अपि मा हिंसी, इमं या हिंसी द्विपाँद पशुँ॥ मा हिंसीरेक शकं पशुँ माँ हिस्यात सर्वाभुतानि (पूज्य गुरुदेव ऋग्वेद भूमिका पृष्ठ 24) पशुओं की रक्षा करो, गाय को मत मारो, बकरी को मत मारो, भेड़ को मत मारो दो पैर वाले (मनुष्य, पक्षी) को मत मारो। एक खुर वाले पशुओं (घोड़ा, गधा) को मत मारो, किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो।

वेद के वचन उनके सच्चे अर्थों में केवल उसी के द्वारा जाने जा सकते हैं जो स्वयं ऋषि हो। अन्यों के प्रति मंत्र अपने गुह्यज्ञान को नहीं खोलते। बामदेव ऋषि अपने चतुर्थ मण्डल के एक मंत्र (4/3/16) में अपने आपका इस रूप में वर्णन करते हैं कि मैं अन्तः प्रकाश से युक्त विप्र अपने विचार (मतिभिः) तथा शब्दों (उक्थैः) के द्वारा पथ प्रदर्शक (नीथानि) और गुह्य वचनों को (निण्याक्चाँसि) व्यक्त कर रहा हूँ। ये दृष्ट ज्ञान के शब्द (काव्यानि) है जो ऋषि के लिए अपने आन्तर अर्थ को बोलने वाले (कवये निवचना) हैं। इसी तरह ऋषि दीर्घतमा ने ऋग्वेद में उन चार स्तरों का उल्लेख किया है जहाँ से वाणी निकलती है। इनमें से तीन तो गुहा में छिपे हुए हैं और चौथा स्तर मानवीय है। वहीं से मनुष्यों के साधारण शब्द आते हैं। परन्तु वेद के शब्द और विचार उच्चतर तीन स्तरों से सम्बन्ध रखते हैं।(ऋग्वेद 1/164/45)।

यही कारण है-वेदों का अध्ययन करने वालों के लिए श्रद्धा और साधना आवश्यक तत्व बताए गए हैं श्रद्धा की जरूरत इसलिए है कि अलंकारिक भाषा में कहे गए सत्यों को पढ़कर बुद्धि भ्रम में न पड़े। साधना-इस कारण आवश्यक है-जिससे समाधि के क्षणों में मंत्र के गुह्यार्थ को जाना जा सके। परन्तु वेदों में उन मंत्रों की संख्या भी कम नहीं है, जो सामान्य जीवनक्रम में मार्गदर्शन करते मधुर और उदात्त भावों को उमगाते हैं। उदाहरण के लिए अथर्ववेद का एक अंश जिव्हा अग्रे........ भूयासं मधुसध्शं (अथर्व 1/34) मेरी जिव्हा के अग्र भाग में मधु हो, जिव्हा का मूल मधुर हो। मेरा निकलना और दूर-दूर तक जाना अर्थात् मेरा आचरण और व्यवहार मधुर हों। मैं वाणी से मीठा बोलूँ और मधुर बन जाऊँ, एक अन्य स्थान पर ऋषि अन्दर बाहर से एक बनने का निर्देश देता है “यदन्तरं तद् वाह्यं यद् बाह्यं तदन्तरम्” (अथर्व 2/30/4)।

वैदिक ज्ञान के उन अंशों को जहाँ वे गुह्य, रहस्यात्मक और अलंकारिक हैं समझने के लिए किसी ऋषि की अनुभूति का प्रकाश जरूरी है। इस संदर्भ में श्री अरविन्द के ग्रन्थ ‘वेद रहस्य’ को अद्भुत और अनोखा कहा जा सकता है। उनके शब्दों में वेद में अनेक मंत्र हैं अनेक समूचे सूक्त तक हैं जो ऊपर से एक रहस्यवादी अर्थ को प्रकट करते हैं। स्पष्ट ही एक प्रकार के गुह्य वचन है, जो अपना आन्तरिक अर्थ रखते हैं। एक अन्य स्थान पर वे कहते हैं कि अपने आशय को प्रतीकों तथा प्रतीकात्मक शब्दों द्वारा ढकने की जरूरतवश क्योंकि गुप्तता रखनी जरूरी थी ऋषियों ने शब्दों को दोहरे अर्थ नियत करने की विधि को अपनाया। जैसे गौ शब्द गाय के अतिरिक्त प्रकाश का या प्रकाश की किरण का वाचक है। यह कई ऋषियों के नामों में प्रयुक्त हुआ दीखता है। उदाहरण के लिए गौतम-अर्थात्-प्रकाशितम गाविष्ठर अर्थात् प्रकाश में स्थिर। वेदोक्त गौवें सूर्य के गोयूथ हैं-जो ग्रीक गाथा शास्त्र तथा रहस्यवाद में भी सुपरिचित हैं, ये हैं सत्य, प्रकाश और ज्ञान के सूर्य की किरणें। इसी तरह ‘घृत’ का सामान्य अर्थ है घी, परन्तु घृत का अर्थ प्रकाश भी है, यह घृ क्षरणदीप्त्यों धातु से बना है। इस अर्थ को ही लेकर द्युलोक के अधिपति इन्द्र के घोड़ों के विषय में कहा गया है कि ये धृतस्नू हैं (ऋग्. 3/41/9) अर्थात् प्रकाश से सने हुए। इसी तरह दस्यु-अंधकार की शक्तियाँ हैं जो सत्य के उपासकों का विरोध करने वाली है (वेद रहस्य पूर्वार्द्ध पृ.-14-17)। अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने की यह परम्परा संहिता-ब्राह्मण आरण्यक, उपनिषद्-सभी में एक सी व्याप्त है।

चरणव्यूह के अनुसार इस परम्परा का निर्वाह उपवेदों में भी हुआ है। ऋग्वेद का उपवेद आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद सामवेद का गांधर्ववेद और अथर्ववेद का अर्थशास्त्र उपवेद है। परन्तु भाव प्रकाश में आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद माना गया है। इन चार उपवेदों के अलावा वेदों के छः अंग भी हैं। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छन्द। उच्चारण के सम्बन्ध में उपदेश शिक्षा है। यज्ञ यज्ञादि कर्म सम्बन्धी उपदेश कल्प हैं। शब्दों के सम्बन्ध में विचार व्याकरण है और उनकी व्युत्पत्ति और अर्थ के सम्बन्ध में विचार निरुक्त है। खगोलगणना अन्तर्ग्रही प्रभावों का ज्ञान ज्योतिष है और छन्दों (काव्य) के सम्बन्ध का ज्ञान छन्द है।

वैदिक ज्ञान के इन गहन तथ्यों को अधिक सुगमता से समझाया जा सके इस लक्ष्य को लेकर पुराणों की रचना हुई। ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, शिवपुराण, भागवतपुराण, वायुपुराण, नारदपुराण, अग्निपुराण, ब्रह्मवैवश्वतपुराण, वाराहपुराण, स्कन्दपुराण, मार्कंडेयपुराण, वामनपुराण, कूर्मपुराण, मत्स्यपुराण, गरुड़पुराण, ब्रह्माण्डपुराण और लिंगपुराण। इन अठारह पुराणों के अतिरिक्त उपपुराणों की भी लम्बी शृंखला है। जिनमें 28 की गणना सर्वप्रचलित है। इन उप-पुराणों में जिन्हें लोक ख्याति मिली है उनमें हरिवंश, कल्कि, देवी भागवत का नाम उल्लेखनीय है। पुराणों जैसी शैली और अपनी महती ख्याति बावजूद महाभारत रामायण की इस क्रम में गणना न करने का इतना ही तात्पर्य है कि ऋषियों ने इन्हें प्रामाणिक इतिहास माना है। इनके लेखन के पीछे इतिहास बोध के साथ जीवन बोध कराने की दृष्टि है। जबकि अन्य में जीवन बोध को तत्त्वबोध से एकीकृत करने का प्रयास है।

अनुभूति और अभिव्यक्ति में जो महत्व वेदों को प्राप्त हुआ। लोक-जीवन को शिक्षित करने के लिए पुराणों को ठीक वैसी ही श्रेयानुभूति मिली। डॉ. भण्डारकर के शब्दों में कहें तो भगवान व्यास ने वैदिक रहस्यानुभूति-जीवन विद्या को कथा शैली के सहारे जन-जन पहुँचा दिया। इस प्रयास की प्रामाणिकता और उत्कृष्टता सत्य को सुगम और बाल बोध बनाकर प्रस्तुत करने में रही। इनमें से किसी का विस्तार कम व्यापक नहीं है। महाभारत के विषय में तो व्यास देव ने यहाँ तक कह डाला जो समूचे विश्व में कहीं है वह यहाँ है। इसी के भीष्मपर्व का अनमोल रत्न गीता है जो अपने अस्तित्व के उदय से अब तक विश्व मनीषा को मुग्ध कर रही है। 18 अध्याय में गूँथे गए 700 श्लोकों में जीवन के सभी तत्व सँजोये है। इस ग्रन्थ की सबसे बड़ी विशेषता है विभिन्न दर्शनों का काव्यात्मक सामंजस्य। ‘समूचा जीवन योग है’ इस गान को भगवान कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के जीवन संग्राम में पहली बार गाया।

इसके व्यावहारिक सूत्र-मानव भविष्य की स्वर्णिम आशा है। इसी विचार को ध्यान में रखकर परम पूज्य गुरुदेव ने गीता-विश्वकोष की बृहद् रूप−रेखा तैयार की। उन महत्वपूर्ण बिन्दुओं को स्पष्ट किया जो विश्व राष्ट्र के मानव धर्म का आधार बनेंगे । उन्होंने व्यक्ति और समाज के जीवन और चरित्र पर प्रकाश डालने वाले इसके उन अनेकों पक्षों को स्पष्ट किया है जो अभी तक गुह्य समझे जाते रहे हैं। विश्व चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में उनके इस सहस्रों पृष्ठो में अंकित विचारों का निकट भविष्य में प्रकाशन निश्चित ही मानव की बौद्धिक-आध्यात्मिक क्षितिज पर एक नए प्रकाश के रूप में उदय होगा। गीता की तरह रामायण ने भी अपने उदयकाल से मनुष्य को देवत्व के प्रति आस्थाओं-मर्यादाओं के प्रति आस्था उमगाई है। रामायण के प्रथम लेखन का श्रेय आदि कवि महर्षि वाल्मीकि को है। परवर्तीकाल में इसकी भाव सम्पदा और मर्यादा-पुरुषोत्तम के उत्कृष्ट चरित्र से आकृष्ट होकर अन्य कवियों ने भी राम-कथा का गान कर संस्कृति की मन्दाकिनी बहाई। संस्कृत भाषा की अन्य रामायणों में आध्यात्म रामायण, चम्पू रामायण, देव रामायण, अगस्त्य रामायण का नाम उल्लेखनीय है। कालान्तर में इनकी अभिव्यक्ति क्षेत्रीय भाषाओं के रूप में बंगला में कृतिवास रामायण दक्षिण भारत में कम्बल रामायण और हिन्दी में रामचरित मानस का संवेदना सरोवर बन कर प्रकट हुई।

रामायणों के इस क्रम में ‘योग‘ ‘वशिष्ठ’ भी है। जिसे अपनी अद्वितीयता के बल पर ‘महारामायण’ की संज्ञा प्राप्त हुई। इन वुड्स आफ गॉड रियलाइजेशन खण्ड 7 में सँजोये स्वामी रामतीर्थ के शब्दों में कहें तो “मेरे मतानुसार तो संसार की सभी पुस्तकों से अद्भुततम पुस्तक योग-वशिष्ठ है। यह असम्भव है कि कोई इस ग्रन्थ का अध्ययन कर ले और उसको ब्रह्म भावना न हो और वह सबके साथ एकता न अनुभव करे।” इस ग्रन्थ का वैभव साधना के गुह्य प्रदेश की गहन अनुभूतियों का रोचक कथाओं में वर्णन है। ग्रन्थ की रोचकता इतनी अद्भुत है कि शायद ही कोई इसे एक बार हाथ में थामकर पूरा पढ़े बिना छोड़ सके। रानी चुडाला की कहानी, उद्दालक की कथा, सरघु की कथा, वीतहव्य का वृत्तांत, भास और विलास का संवाद विपश्चित की कथा पटधाना राजकुमारों की कथा जैसी ढेर की ढेर कथाओं में लुभावने ढंग से सृष्टि रहस्य मन की शक्तियाँ लोक-लोकान्तर के तत्व-गूढ़ दार्शनिकता का सरस निरूपण किया गया है।

विस्तार! विस्तार!! विस्तार!!! निरन्तर अपने इस ध्येय की ओर बढ़ती जा रही ऋषियों की ज्ञान सम्पदा को सूत्र संकेत के रूप में कहने की एक मौलिक कोशिश इस भूमि पर सम्पन्न हुई है। जिसे दर्शन का नाम मिला। ये ज्ञान सम्पदा के अपरिचित सागर में से भरे गए कुछ अमृत कलश है। जो पीने वाले के मन में सत् चित् आनन्द के अविरल प्रवाह से एक हो जाने की ललक पैदा करते हैं। भारत की दार्शनिकता में दर्शन का अर्थ पश्चिम की फिलॉसफी की तरह ज्ञान से प्रेम नहीं बल्कि ज्ञान से एकात्मता है। यही कारण है यहाँ दार्शनिक मात्र विचारक न होकर दृष्ट-ऋषि हुए।

यों इन दर्शनों की परम्परा और शृंखला काफी बड़ी है। जिसमें प्रत्यभिज्ञा, लकुलेश जैसे तंत्र दर्शन भी है। पर ये पंक्तियाँ वैदिक ज्ञान के जिस प्रवाह को प्रवाहित कर रही हैं उसमें षड्-दर्शन की बहुरंगी तरंगें ही उमंगती दिखाई देती हैं। इस क्रम में पहला स्थान ‘साँख्य’ का है जिसके छः अध्याय में सँजोये सूत्रों की संख्या 526 है। इस दर्शन में महासिद्ध कपिल ने पुरुष-प्रकृति के सम्बन्ध सब भूतों की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय पर विचार किया है। इसके बाद महर्षि पतंजलि का दार्शनिक सिद्धान्त है-क्रोध दर्शन के समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद और कैवल्यपाद अध्यायों में 194 सूत्र हैं। डॉ. दीवानचन्द्र ने अपने ग्रन्थ दर्शन संग्रह में इन दोनों का एक जोड़ा माना है। उनके मत में सांख्य और योग दोनों एक प्रकार के उद्योग हैं, साँख्य में यह उद्योग प्रकृति से ‘वियोग‘ रूप धारण करता है। योग में ईश्वर से संयोग रूप लेता है।

न्यायदर्शन के प्रवर्तक-महामुनि गौतम हैं। यह पाँच अध्यायों में बँटा है। इनमें प्रत्येक अध्याय के दो भाग हैं। इस दर्शन का प्रमुख विषय है-प्रमाण इसमें सत्य और असत्य में भेद करने की तकनीक सुझाई गयी है। विचार और उसकी शैली के स्वरूप की पूरी छाप यूनानी दर्शन में देखी जा सकती है। दार्शनिक दर्शन महर्षि कणाद का दार्शनिक सिद्धान्त हैं इसमें दल हैं और प्रत्येक अध्याय के दो भाग हैं। इस दर्शन में विशेषों की बाबत दार्शनिक विवेचन हुआ है। विशेष का क्या अर्थ है अपनी मौलिकता है। यही विशेषत्व का तत्व है। वैशेषिक दोनों का लक्ष्य निःश्रेयस है और दोनों ही प्राप्ति साधन तत्त्वज्ञान को मानते हैं।

पूर्व मीमाँसा दर्शन के रचनाकार-ऋषि जैमिनी हैं। इस दर्शन का पहला सूत्र है ‘अथातो धर्म जिज्ञासा’। इस दर्शन में कर्म के तत्व पर गहराई से विचार किया गया है। नीति-अनीति-पाप-पुण्य की समस्याओं के गहरे विवेचन के साथ सामान्य कर्म के धर्म में परिवर्तन की तकनीक सुझाई गई है। इस शृंखला की अंतिम कड़ी है उत्तर मीमांसा जिसके सूत्रकार है बह्मर्षि, वादरायण व्यास। इसका सर्वप्रचलित नाम वेदान्त है। जिसे ब्रह्मसूत्र भी कहा गया है। इसके सूत्रों पर शंकर, रामानुज, माध्व जैसे भारतीय अस्वार्थों से लेकर पालडायसन जैसे पश्चिमी विद्वान ने टीकाएँ की हैं, जैसा कि इसके प्रथम सूत्र ‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’ से दर्शित होता है इसका प्रधान विषय ज्ञान और इसके साधनों का विवेचन है।

सोऽहम् ज्ञान के ये सभी देवदुर्लभ ग्रन्थ संस्कृत में हैं। और आज यह जनभाषा नहीं रह गई। इनमें सँजोये प्रेरणा के प्रवाह से अमृत पुत्र वंचित न रह जायँ इसी कसक ने परम पूज्य गुरुदेव को इन्हें लोक भाषा में अनूदित करने लिए विवश किया। इन तपोनिष्ठ ऋषि की लेखनी ने संहिता ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, पुराण, दर्शन आदि समस्त ज्ञान सम्पदा में नई ऊर्जा और नए प्राण भरे। उनकी स्वानुभूति ने इसे युगानुकूल अर्थ गौरव दिया। ऋषियों की चेतना ने इस अमर ‘साधना’ पर विभोर होकर उन्हें मूर्ति का गौरव दिया। उनके द्वारा सौंपी ज्ञान की इस विरासत को हमारे हाथ लेने के लिए आतुर हो उठें, आँखें पढ़ने के लिए ललक उठें हृदय में उन सत्यों को स्वीकारने के लिए व्याकुलता, जग पड़े और समूचा जीवन इस सोऽहम् ज्ञान का महोत्सव बन जाय। हम सब को जो स्वयं को उनकी सन्तान मानते हैं यही कर्तव्य है।


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