हमारी संस्कृति की केन्द्रीय-धुरी रही है-नारी शक्ति

June 1992

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भारतीय संस्कृति का प्रधान केन्द्रीय तत्व है-भाव-संवेदना इस गुण की प्रचुरता जिसमें है, वह नारी शक्ति देव संस्कृति के विकासक्रम में एक धुरी की भूमिका निभाती आयी है। ऋषिगण आदि सत्ता महामाया, जिसके आधार पर सृष्टि की संरचना संभव हुई है, को विधाता भी कहते आये हैं व माता भी। प्राणियों का अस्तित्व ही यदि इस धरती पर है तो उसके मूल में मातृशक्ति की प्राणियों पर अनुकम्पा है। सृजनशक्ति के रूप में इस संसार में जो कुछ भी सशक्त, सम्पन्न, विज्ञ और सुन्दर है, उसकी उत्पत्ति में नारीतत्त्व की ही अहम् भूमिका है। देवसंस्कृति में सरस्वती, लक्ष्मी और काली के रूप में विज्ञान प्रधान और गायत्री-सावित्री के रूप में ज्ञानप्रधान चेतना के बहुमुखीय पक्षों का विवेचन अनादि काल से होता आया है।

परमपूज्य गुरुदेव ने नारी शक्ति के माध्यम से ही इक्कीसवीं सदी के आगमन की बात कही व घोषणा की है कि विश्व मानवता की भावी निर्धारण उन्हीं गुणों के आधार पर होने जा रहा है जो आदि सृजेता के रूप में नारीसत्ता के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। पूज्य गुरुदेव ने लिखा है-देवत्व के प्रतीकों में प्रथम स्थान नारी का और दूसरा नर का है। लक्ष्मी-नारायण उमा-महेश शची पुरंदर, सीता-राम राधे श्याम जैसे देव युग्मों में प्रथम नारी का और पश्चात् नर का उल्लेख होता है। वह मानुषी दीख पड़ते हुए भी वस्तुतः देवी है। श्रेष्ठ व वरिष्ठ उसी को मानना चाहिए। भाव संवेदना, धर्मधारणा और सेवा साधना के रूप में उसी की वरिष्ठता को चरितार्थ होते देखा जाता है।”

वैदिक मान्यताओं के अनुसार नारी बिना, शक्ति के बिना यह संपूर्ण विश्व सार-शून्य है। सृष्टि विस्तार की दृष्टि से भी निस्सन्देह पुरुष की अपेक्षा नारी की महत्ता अधिक है। वह पुरुषों की जननी है। उसकी सब कामना करें व उसके द्वारा पालित हों, ऐसा निर्देश वैदिक ऋषि देते आए हैं। ‘कन्या’ शब्द का अर्थ होता है “सबके द्वारा वाँछनीय” सब उसकी कामना करें। ऐतरेयोपनिषद् में स्पष्ट आता है-नारी हमारा पालन करती है, अतः उसकी पालना करना हमारा कर्तव्य है।” अथर्ववेद में उसे सत्याचरण की अर्थात् धर्म की प्रतीक कहा गया है (सत्येनोत्रभित भूमिः)। कोई भी धार्मिक कार्य उसके बिना अधूरा माना जाता रहा है। ऋग्वेद का ऋषि लिखता है-

“शुचिभ्राजा उषसो नवेद, यशस्वतीरपस्युवो नसत्याः।” (ऋग 1/79/1)

अर्थात्-श्रद्धा प्रेम, भक्ति, सेवा, समानता की प्रतीक नारी पवित्र, निष्कलंक, आचार के प्रकाश से सुशोभित, प्रातःकाल के समान हृदय को पवित्र करने वाली, लौकिक कुटिलताओं से अनभिज्ञ, निष्पाप, उत्तम यशयुक्त, नित्य उत्तम कर्म करने की इच्छा करने वाली, सकर्मण्य और सत्य व्यवहार करने वाली देवी है।”

एक भ्रान्तिपूर्ण मान्यता, कि कन्या का जन्म अमंगलकारी है, हमारे देश में मध्यकाल में पनपी व इसी कारण आदिजननी शक्ति दोयमदर्जे की मानी जाने लगी। नारीशक्ति की अवमानना, तिरस्कार, होने लगा। जबकि संस्कृति के स्वर आदि काल से कुछ और ही कहते आए हैं। ऋग्वेद (6/75/5) में कहा गया है कि “वह पुरुष धन्य है, जिसे कई पुत्रियाँ हों, “तथा” पुत्र से पिता को जो आनन्द मिलता है वही पुत्री से माता को बल्कि उससे भी अधिक (3/31-1-2)। उपनिषदों में भी यही बात स्पष्टतः सामने आई है। बृहदारण्यकोपनिषद् में विदुषी और आयुष्मती पुत्री पाने के लिए घी और तेल में चावल पकाकर खाने की विधि कही गयी है (6/4.17)। मनुस्मृति (9/130) में कहा गया है कि पुत्री को पुत्र के समान समझना चाहिए क्योंकि जिस प्रकार आत्मा पुत्र रूप से उत्पन्न होता है उसी प्रकार वह पुत्री के रूप में जन्म लेती है। महाभारत में संन्यास लेने की पात्रता उसी गृहस्थ को प्राप्त है जिसने अपने गृहस्थधर्म का पालन करते हुए सभी कर्तव्यों को पूरा कर लिया है। इन कर्तव्यों में अपनी पुत्रियों का विवाह कर देना प्रमुख है (महाभारत उद्योगपर्व 36-39)। मनुस्मृति में पिता के उत्तराधिकार का जो भाग पुत्री को देने का विधान है, उसका हेतु ध्यान देने योग्य है।

विवाह की चिन्ता और सामर्थ्य से बाहर दहेज के कारण लोकगीत मध्य काल में ऐसे रचे जाने लगे कि पुत्री जन्म ही अशुभ माना जाने लगा। पंचतंत्र के कुछ आख्यानों में भी यह बात आयी। कालान्तर में मध्यकाल में यह धारणा खूब फली-फूली व स्त्री-धन की उपेक्षा शास्त्र वचनों की दुहाई देकर अधिक से अधिक की जाने लगी। वस्तुतः यह कालक्रम के अनुसार पैदा हुई विकृति है। नहीं तो पिता के वात्सल्य का आदर्श तो हर युग की एकमान्य आस्था रही है। इसी आस्था के कारण रामायण में जनक कहते है “जिस सीता को मैं प्राणों से बढ़कर चाहता हूँ, उसे राम को सौंपकर मेरी वीर्य शुल्क की प्रतिज्ञा पूरी हो जाएगी” (वा.रा. बालकाण्ड 67/23)। यह भारतीय संस्कृति की ही चिर पुरातन मान्यता है कि जैसे पुत्र अपने पिता, पितामह इत्यादि पितरों को नरकों से तारता है, इसी प्रकार दौहित्र अपने नाना को।” महाभारतकाल में एक चक्रनगर का निर्धन, विचारशील ब्राह्मण बकासुर की भेंट चढ़ाए जाने से अपनी कन्या को रोकता है व स्वयं जाने को तत्पर हो जाता है, तब भीम उसके स्थान पर जाते हैं। कुन्ती को पुत्री रूप में शूरसेन तथा कुन्तिभोज ने पुत्र से अधिक प्यार देकर स्नेहपूर्वक पाला था। महर्षि कण्व शकुन्तला को दुष्यंत के पास विदाई हेतु भेजते समय भावार्द्र हो उठते हैं व कहते हैं “जब मुझ जैसे वनवासी का चित उग्र हो रहा है, तो फिर कन्या विछोह सामान्य गृहस्थों के लिए कितना असह्य होगा?” (शाकुन्तल 2/6)। इससे समाज की सही अवस्था का परिचय मिलता है।

कन्या के वंदनीय पूजनीय अंश के रूप में “उत्तर रामचरित” में महाकवि भवभूति ने अपनी मधुमयी वाणी में जनक जैसे ब्रह्मविद् कर्मयोगी से वनवासिनी स्वदुहिता सीता के लिए उत्तर रामचरित (4/11) में कहलवाया है कि “तुम मेरी कन्या हो या शिष्या यह ध्यान देने की बात नहीं है । तुम्हारा आचरण अपनी पूर्ण परिणति को पहुँचा हुआ है, जिसमें मुझे तुम्हारे प्रति विशेष श्रद्धा हो रही है। स्त्री रूपिणी अथवा अवस्था में कम होने पर भी तू जगद्वंद्य है क्योंकि गुणियों का आदर उनके गुणों से होता है, न कि जाति (लिंग) या अवस्था भेद से।” भारतीय संस्कृति में कन्या कितनी मान्य है, इसके लिए शास्त्रों के व्याख्याता वेदव्यास का एक वाक्य ही समुचित होगा, जिसके अनुसार “समग्र महाभारत सुनने का एक मधुर फल भाग्यशालिनी कन्या का जन्म” निर्दिष्ट किया गया है।

शंकराचार्य-मंडन मिश्र शास्त्रार्थ में भारती को मध्यस्थ नियुक्त करना, भास्कर द्वितीय द्वारा अपनी मेधाविनी कन्या लीलावती के नाम पर गणित के अमूल्य ग्रन्थ “लीलावती” की रचना तथा वेदांत के सर्वश्रेष्ठ प्रतिपादक वाचस्पति मिश्र द्वारा ब्रह्मसूत्र की शंकरभाष्य की टीका “भामती” अपनी पत्नी के नाम पर करना स्त्री सम्मान का अद्वितीय उदाहरण है। यदाकदा कहीं स्त्री निन्दा के स्वर शतपथ व ऋग्वेद में आए हैं तो उनका कारण मंत्र रचयिता के आचरणहीन स्त्रियों के व्यवहार के प्रति संकेत ही है। अपवादों को कभी नियम नहीं माना जाता। अच्छी स्त्रियों की प्रशंसा से वैदिक मंत्रों के स्वर गूँज रहे हैं। ‘ऊषा’ स्तवन जैसे इसके प्रमाण हैं। हमें यही अंश देखना चाहिए। बाल्मीकि रामायण में आदि कवि ने कैकेयी के स्वार्थपरायण स्वभाव का उल्लेख करते हुए स्पष्ट कर दिया है। कि वैसा स्वभाव सभी का हो, जरूरी नहीं (“न ब्रवीमि स्त्रियः सर्वा भरतस्यैव मातरः”) बा.रा. अयोध्या. 12/100। वराह मिहिर (505-597 ई.) ने स्त्री निंदकों की कड़ी भर्त्सना करते हुए कहा है कि “जिन लोगों को स्त्रियों के केवल दोष दिखाई देते हैं और गुण दिखाई नहीं देते, वे असाधु हैं और उनका कथन सद्भावनाद्योतक नहीं है।” (बृहत्संहिता 74/5)। एक चीनी ग्रन्थकार (लिन यू ताँक-इम्पोरटेन्स आँव लिविंग में) ने स्त्री निन्दा से बचने के लिए भारतवर्ष से प्रेरणादायक उक्ति ली है कि “जब हम यह सोच लेते हैं कि बिना माता के इस संसार में कोई नहीं हमारी धारणा अत्यन्त उदार हो जाती है और हम निन्दा करने का साहस नहीं करते।”

वस्तुतः नारी का रमणी, भोग्या, कामिनी रूप मनुष्य का सृजा हुआ है। ऐसी स्थिति में पूज्य भाव कुदृष्टि के रूप में बदल जाता है। तब उसे वासना की आग में झोंककर इस कल्प वृक्ष को काला कोयला बनाकर पुरुष राख कर देता है। अतिवाद का दूसरा रूप यह कि उसे पर्दे की, घूँघट की, कठोर जंजीरों में जकड़कर अपंग सदृश बना दिया गया। यही कारण है कि आज की भारतीय नारी आत्महीनता की ग्रन्थियों में जकड़ी पड़ी है। भारत में ही नहीं। नारी का यह भोग्या, रमणी, वेश्या वाला रूप पूरे विश्व में ही प्रकारान्तर से आज से पचास वर्ष पूर्व तक पाया जाता रहा है। पाश्चात्य जगत में तो विद्रोह की आग भड़की किन्तु दिशा न मिलने से, वह दाम्पत्य जीवन के विग्रह गृहस्थ संस्था के टूटने तथा नारी मात्र के मनो-शारीरिक रोगों से ग्रस्त होने के रूप में सामने आयी। बहुसंख्य देशों में तो अभी भी नारी पराधीन है। नारी मुक्ति के लिए हमें देवसंस्कृति के निर्धारण ही अपनाने होंगे, यह एक सत्य है।

नारी नरक की खान है, यह प्रतिपादन भारत के ही तथाकथित महापुरुषों-विरक्तों द्वारा अध्यात्म मंच से किया गया। जबकि शतपथ ब्राह्मण स्पष्ट लिखता है जब तक स्त्री की प्राप्ति नहीं होती तब तक पुरुष आधा ही है।” (शत. ब्रा. 5/2/1/10)। ऋग्वेद के अनुसार वे सूर्य और चन्द्र, दिन और रात्रि की तरह एक दूसरे से संबंधित हैं (ऋग्वेद 1/13/7)। वेदों में युवकों के समान ही युवती को भी कुदृष्टि का बहिष्कार करते हुए ब्रह्मचर्य धर्म का विवाह तक कठोर पालन करने का निर्देश है ताकि वे श्रेष्ठ दंपत्ति बन सकें। हमारी संस्कृति में हर भगवान, हर देवता सपत्नीक ही पूजा जाता है। सप्तर्षियों में सातों विवाहित थे। उनकी पत्नियों-ऋषिकाओं ने पतियों का साथ दिया, ऋचाएँ भी रचीं व तपस्वी ऋषि पुत्रों को जन्म दिया। वस्तुतः काम सेवन और नारी सान्निध्य एक बात नहीं है। इनका अंतर समझा जाना चाहिए। रामकृष्ण व शारदा माँ, योगीराज अरविन्द तथा फ्राँस से अरोविले आई श्री माताजी का सान्निध्य साधना की ऊँचाइयों की पराकाष्ठा के स्तर का था। नारी को इस रूप में जब-जब भी भावभरा सम्मान मिला है, वह समाज, वह युग, सुख-शान्ति से भरा रहा है। “यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमन्ते तत्र देवता।” की उक्ति अकारण नहीं है।

वेदों में स्थान-स्थान पर नारी के ज्ञानोर्जन, वेद-वेदादि अध्ययन संस्कार उपक्रम सम्पन्न कराने के विषय में कहा गया है कि “हे पत्नी। तू हमें ज्ञान का उपदेश देकर-त्वविदपमा वदासि” (अथर्व 14/1/20) तथा तू सब प्रकार के (वेदादि) कर्मों का ज्ञान रखती है-कुहं देवी सुकृतं विदमनापसम् (अथर्व 7/47/1)। मनु ने कन्या को वेदादि पढ़ने का आदेश दिया है। (वेदानधीत्य वेदौ वा वेदं यथाक्रमम्-मनु-/ “यज्ञंदधे सरस्वती” (ऋग् 1/3/11) कहकर नारी को सभी प्रकार के यज्ञादि संपन्न कराने की शिक्षा लेने का निर्देश है। इस प्रकार से भारतीय संस्कृति कन्या, नारी के सर्वांगीण विकास का प्रतिपादन करती आयी है। विवाह के संबंध में तो यहाँ तक कहा गया है कि विवाह तभी हो “जब वर-वधू को चाहने वाला हो और वधू पति को पसन्द करती हो” (सोमो वधू पुर भवदश्वि नास्तामुभा वरा। सूर्या यत्पत्ये शसन्ती मनसा सविताऽद्दात् अथर्व 14/1/9)। कितनी आधुनिकतम व व्यावहारिक दृष्टि वेदों के ऋषि की रही है, यह इस ऋचा से ज्ञात होता है।

विवाहोपरांत वैदिक ऋषि पति के मुँह से कहलवाता है- हे सरस्वती! तू पतिगृह में विष्णु की तरह है” (प्रति तिष्ठ विराडसि विष्णुरिवेहं सरस्वति अथर्व-/-/ अथर्ववेद में ही वधू की उपमा समुद्र से दी गयी है व कहा है कि “जिस प्रकार वर्षा करके समुद्र ने नदियों पर साम्राज्य प्राप्त कर लिया है, इसी प्रकार हे मित्र! तू पति के घर जाकर वहाँ की साम्राज्ञी बन” (14/1/43)। दुर्भाग्यवश मध्यकाल में सती प्रथा का प्रचलन रहा, यह कहा जाने लगा कि संस्कृति की रक्षा सती से ही होती है तथा सती प्रथा वेदानुमोदित है। वस्तुतः यह एक मिथ्या तथ्य है, जिसका कोई आधार नहीं। ऋग्वेद में एक स्थान पर आया है-नारी उठ! जीव लोक में आ। इस मृत पति के पास तू क्यों पड़ी है। हाथ ग्रहण करने वाले, भरण पोषण करने वाले नियुक्त वीर्यदाता पति के साथ संतान जनने के लिए मिलकर रह (उदीर्घ्व नार्यभि जीवलोकं गतासुमेतमुपशेष एहि) ऋग्. 10/18/8 । वस्तुतः अथर्व के 18/3/1 की ऋचा को आधार बनाकर यह कल्पना स्वार्थवश गढ़ ली गयी है। डॉ. प्रशांत कुमार “वैदिक साहित्य में नारी” ग्रन्थ में लिखते हैं कि अनुपालयन्ती शब्द का अपभ्रंश कर सती प्रथा को एक धर्मानुमोदित परम्परा बता कर मध्यकाल के इतिहास को काला किया गया है। वस्तुतः तस्यै प्रजाँ द्रविणं चेह धेहि (अथर्व 18/3/1) कहकर उसे मृत पति की संतानों व धन की स्वामिनी कहा है। उसे वही सम्मान दिया गया है, जो उसे पति के जीवन काल में प्राप्त थे।

भारतीय संस्कृति के ऋषि, नारी को अबला नहीं मानते वह वीर स्वामी की स्त्री और पुत्र पुत्रियों की माता है। विनय, शालीनता के साथ वह रण कौशल में भी निपुण है। ऋग्वेद में नारी के मुँह से कहलवाया गया है (ऋग्. 10/86/9) कि “यह पुरुष मुझे अबला कहता है, किन्तु मैं अपने को प्रेरणा देने वाले वीर को वरनेवाली स्त्री के तुल्य हूँ! मैं भी उसी ऐश्वर्यवान् परमात्मा को धारण करती हूँ और वायु के समान शक्ति संपन्न हूँ।” महाभारत में एक बड़ी ओजस्वी नारी विदुला का प्रसंग आता है, जिसकी कथा सुनने का माहात्म्य स्थान-स्थान पर आया है। कुन्ती ने मातृसत्ता के रूप में जो शक्तिशाली रूप महाभारत में ग्रहण किया है, उसकी मूल प्रेरणास्रोत विदुला है। अपने पुत्र संजय के युद्ध भूमि से भागने पर वह संजय में साहस व स्फूर्ति भरती है व अपनी ओजपूर्ण वाणी में कहती है-उत्थातव्यं जागृतव्यं योक्तव्यं भूति कर्मसु” (म.भा. उद्योगपर्व 135,29-30) अंततः किशोर संजय राज्य लेकर ही लौटता है। कुन्ती अपने धर्मप्राण पुत्र युधिष्ठिर को क्षात्रधर्म पर चलने की प्रेरणा “यदर्थे क्षत्रिया सूते तस्य कालोऽयमागतः” कहकर तब देती है जब दुर्योधन सुई की नोंक के बराबर भूमि देने के लिए भी मना कर देता है। वह कहती है कर्तव्यपालन हेतु प्राणों की आहुति देने को भी तैयार रही (म.भा. उद्योग 137/10)। ऋतुध्वज की रानी मदालसा अध्यात्म साधना की पराकाष्ठा व मातृत्व का आदर्श है। चारों संतानों को उसने अपने ही ढाँचे में ढाल दिया। घोड़े पर सवार होकर घर से निकलकर गर्भस्थ शिशु की रक्षा करने वाली जीजाबाई ने ही संस्कृति रक्षक छत्रपति शिवाजी को उस योग्य बनाया। विश्ववंद्य बापू के संस्कारों की निर्मात्री अक्षर ज्ञान की दृष्टि से अशिक्षित किन्तु ईश्वर-निष्ठ उनकी माता थी।

समाज में गृहस्वामिनी तथा माता के रूप में प्रतिष्ठ प्राप्त नारी ने जब-जब राष्ट्र को आवश्यकता पड़ी, घर से बाहर निकल कर मातृभूमि के लिए सेना का संचालन अपने हाथों में लिया। प्राचीन काल में वैदिक समाज में तीन संस्थाएँ लोकतंत्र की दृष्टि से थीं समिति, सभा और विदथ। समिति और सभा लोकसभा स्तर की राष्ट्रीय संस्थाएँ थीं, किन्तु विदथ में पूरा अधिकार नारी शक्ति का था। “वाशिनी त्वाँ विदथ भावदासि” (ऋग 10-85/26) के अनुसार “तुम साधिकार विदथ में वक्तृता दोगी” कहकर वर विवाह के अवसर पर वधू को समाज के संचालन में कार्य करने का अधिकार देता है। इस विदथ में स्त्रियाँ नारी विषयक-गृहस्थ संस्था संबंधी कर्तव्यों पर विचार विमर्श करती थीं। गार्गी, सुलभा, जयमती, नायनिका प्रभावती, विजय भट्टारिका, सुगंधा, मीणलदेवी राज्यश्री, दुर्गावती, अहिल्याबाई, लक्ष्मीबाई व सम्प्रति इंदिरा गाँधी जैसी नारियों की नेतृत्व क्षमता से नारी शक्ति के दायित्वों व महत्वपूर्ण कर्तव्यों का एक परिचय मिलता है। अस्तु!

इक्कीसवीं सदी महापरिवर्तनों की वेला है। ऋषि परम्पराएँ देवपरम्पराएँ और महामानवों द्वारा अपनाए दृष्टिकोण अगले ही दिनों क्रियान्वित होने जा रहे हैं। इस ऊषाकाल में , जहाँ बहुत कुछ बदलने जा रहा है, नारी का खोया वर्चस्व भी उसे मिलने जा रहा है। जितना गौरवमय इतिहास उसका रहा है, उसे वह देव संस्कृति के निर्धारणों के आधार पर पुनः पाने जा रही है। यह सब मानवी संवेदना के विकास से ही संभव होगा, नारी जिसकी अधिष्ठात्री है तथा देव संस्कृति का जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रेरक तत्व भी है। शान्तिकुञ्ज द्वारा चलाये गए नारी जागृति अभियान की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका होगी, इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए।


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