देव संस्कृति की अनुपम स्थापना, कर्मयोग-कर्मसाधना

June 1992

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इस संसार में सच पूछा जाय तो दो वस्तुएँ बड़ी अद्भुत व महत्वपूर्ण है। एक हमारा परमेश्वर सृजेता और एक हम स्वयं। इन दो से बढ़कर और खुद आश्चर्यजनक और सामर्थ्य संपन्न तत्व इस दुनिया में हमारे लिये हो ही नहीं सकते। यदि मनुष्य अपनी महिमा महत्ता व क्षमता को भली-भाँति समझ ले व उसका बुद्धिमत्ता एवं सुव्यवस्था के साथ उपयोग करे तो उसका परिणाम इतना बड़ा हो सकता है कि संसार के साथ हम स्वयं उसे देखकर दंग रह जाय! मनुष्य जितना तुच्छ व हेय लगता है, वस्तुतः वैसा है नहीं। उसकी संभावनाएँ अनन्त हैं। गड़बड़ इतनी भर पड़ जाती है कि वह अपने स्वरूप को समझ नहीं पाता और जितना कुछ वह अपने बारे में जानता है, उसका सदुपयोग करने के लिए प्रचलित ढर्रे से उठकर साहस एकत्र नहीं कर पाता। यदि इस छोटी सी त्रुटि को संभाल-सुधार लिया जाय तो मानव के अनन्त विकास की संभावनाएँ खुल जाती हैं, जिस दिशा में भी पुरुषार्थ परायण होना है उस पथ के समस्त अवरोध स्वयमेव हट जाते हैं।

भारतीय अध्यात्म-देव संस्कृति भावी विकास की संभावनाओं को देखते हुए ही मनुष्य को अपने समग्र व्यक्तित्व को विचार व कर्म के समन्वय से प्रचण्ड-महान बनाने की प्रेरणा देते आए हैं। भारतीय तत्त्वज्ञान की विश्वव्यापी गौरव-गरिमा एवं सफलता का मूल कारण ही उसके प्रणेताओं द्वारा उस ज्ञान को अपनी जीवन रूपी प्रयोगशाला में कर्म के रूप में उतारते हुए सार्थक सिद्ध करना रहा है। भारतीय दर्शन व्यक्ति को ज्ञानार्जन की प्रेरणा तो देता है, पर साथ-साथ कर्मोन्मुख होते हुए सतत् उद्योग करते रहने व आदर्शों को आचरण में लाने की व्यवहार में उतारने की बात सतत् करता रहा है। उस ज्ञान से कोई लाभ नहीं, जो कर्म को प्रभावित न करें।

जब भी कर्मों की कर्तव्य की, कर्मयोग की चर्चा होती है, तो कई प्रकार के विचार मन में आते हैं। क्या कर्म मनुष्य से स्वतः हो जाते हैं? कर्म के प्रेरक तत्व क्या हैं? यदि कर्म मनुष्य किसी और सत्ता, जो उससे बड़ी व महानतम है, की इच्छा व प्रेरणा से करता है तो फिर कर्मों का फल उसके पल्ले क्यों बँधता है? कर्म जिस किसी भी भाव से किया जाय मनुष्य को क्यों उसका दोषी ठहराया जाता है? इत्यादि। कर्म संबंध में देव संस्कृति बड़ा स्पष्ट चिन्तन देती हुई मानवी पुरुषार्थ को दिशा देती हुई उसे उद्योग परायण बनाती है।

आदि पुरुष मनु लिखते हैं कि प्रकृति के तमोगुण से चिपटकर मानव “कामी” बनता है, रजोगुण से लिपट कर “अर्थवान” तथा सतोगुण को आश्रय लेकर “धार्मिक” बनता है (मनु संहिता 12/38)। काम व अर्थ लोलुपता उसे निम्न योनियों में ली जाती है। जबकि उन पर संयम उसे मानव योनियों में ले आता है। मानव जीवन जीते हुए यदि व्यक्ति धर्माचरण करता है तो यह कर्म उसे देवमानव बनाते हैं, दिव्य योनियों में ले जाते हैं। इस प्रकार सात्विक कर्म ही व्यक्ति को ऊपर उठाते हैं व सतत् कर्म परायण होते रहने की प्रेरणा देते हैं, वेद वाणी कहती है-उद्यान ते पुरुष नावयानम्” अर्थात् जीव! तुझे ऊपर उठना है, नीचे नहीं गिरना है। मानव योनियों में आकर तो तू ‘स्व’ की गरिमा को पहचान व निज को ऊँचा उठा। “ इस प्रकार कर्म मनुष्य को उसके लक्ष्य की सिद्धि कराने वाले प्रेरक तत्व हैं, साध्य हैं व तप रूपी साधन भी।

श्रीमद्भागवतगीता में योगेश्वर कृष्ण कहते हैं कि हमें निरन्तर कर्म करते रहना चाहिए। कर्म स्वभावतः ही शुभ व अशुभ से विनिर्मित होता है। पूर्ण रूप से शुभ व अशुभ से विनिर्मित होता है। पूर्ण रूप से शुभ व अशुभ कोई भी कर्म नहीं है। प्रत्येक कर्म अनिवार्यतः गुण-दोष से मिश्रित रहता है, फिर भी ईश्वर का आदेश है कि हम निरन्तर कर्म करते रहें। श्रीकृष्ण कहते हैं-

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत। कार्यते ह्यवंशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥ 5/अध्याय 3

अर्थात् “निस्सन्देह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षण मात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता, क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है।

शुभ व अशुभ दोनों कर्मों के अपने अलग-अलग परिणाम होते हैं व दोनों ही आत्म सत्ता के लिए बंधन रूप हैं पर गीताकार कहता है कि यदि हम अपने कर्मों में आसक्त न हों तो हमारी आत्मा फिर किसी बंधन में नहीं पड़ती। सारी गीता का कर्मयोग एक ही केन्द्रीय भाव पर टिका है निरंतर कर्म करो परन्तु आसक्ति मत रखो। यहाँ तक कि भगवान स्वयं के विषय में भी यही विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं-

“हे अर्जुन, यदि मैं करने से एक क्षण के लिए भी रुक जाऊँ तो सारा विश्व नष्ट हो जाय। मुझे कर्म से किसी भी प्रकार का लाभ नहीं, मैं ही जगत का एक मात्र प्रभु हूँ, फिर भी कर्मरत रहता हूँ। मैं सावधान होकर स्वयं को कर्मों में न निरत करूँ तो बड़ी हानि हो जाएगी क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं। मैं कर्म न करूँ तो समस्त प्रजा, सारा संसार का लोक व्यवहार नष्ट हो जाय।” (अध्याय 3-22-23-24)

परन्तु कर्म कौन से शुभ हैं, कौन से अशुभ? कर्म के निमित्त मूलक कारण क्या हैं? कर्म में आसक्ति कब पैदा होती है, कब निरासक्ति, कर्म के प्रेरक तत्त्व क्या हैं, इस संबंध में जनसामान्य शास्त्रों के मत सुनते-जानते-समझते हुए भी किंकर्तव्य विमूढ़ ही बना रहता है। वैयक्तिक जीवन तथा समाजनिष्ठ जीवन में साधारणतया बहुसंख्य व्यक्ति जानते हुए भी ऐसे कर्मों में लिप्त देखे जाते हैं, जिनका परिणाम दूरगामी दृष्टि से अशुभ होते हुए भी वे तुरन्त का लाभ उसी में देखते हुए निरत हैं। सामान्यतया व्यक्ति दो ही कारणों से कर्मों में प्रवृत्त होते देखे जाते हैं-वे व्यक्ति जिन्हें हम नर मानव कहते हैं, जो मानव योनि में जन्मे तो हैं परन्तु पेट-प्रजनन की सीमा से परे सोच पाने में असमर्थ है। ये दो कारण हैं-लोभ व भय। व्यक्ति अच्छे-बुरे कर्म लोभ के वश भी करता है व भय के वश भी। अच्छा कर्म स्वर्ग में स्थान सुरक्षित करने के लिए भी हो सकता व श्रेय अर्जित करने के लिए भी। लोभ प्रधान यह आकर्षण कर्मों को करने की प्रेरणा देता है। धर्मक्षेत्र से जुड़े-मन्दिरों में जाने वाले अधिकांश व्यक्ति या तो लोभ के वश होकर जाते हैं या भय के वशीभूत होकर। भय किसका? भय नरक का, पारलौकिक जीवन में कष्टों का अथवा इसी जन्म में उनके मिलने वाले बुरे प्रतिफलों का। देव संस्कृति में स्वर्ग-नरक परलोक की अवधारणा कर्मों के प्रेरक तत्त्वों को परिमार्जित मोड़ देने के लिए ही रखी गयी है। भारतीय संस्कृति अंतरात्मा के विकास हेतु कर्मोन्मुख होने की बात कहती है व बताती है कि इससे दुखों की निवृत्ति होती है व सुखों में अभिवृद्धि होती है। समय-समय पर महापुरुष आते हैं तथा सामान्य से व्यक्तियों में प्रसुप्त दैवीचेतना को जगाकर उनकी लोभ की वृति को-अहंता की महत्वाकांक्षा को महानता की श्रेय प्रधान वृति में बदलकर उनसे बड़े-बड़े काम करा लेते हैं। यह तो विशिष्ट अवसरों-सुयोगों की बात हुई पर सामान्य अवसरों पर सामान्य व्यक्ति कैसे पहचाने कि कौन सा कर्म करने योग्य है, कौन सा नहीं? कर्म, अकर्म, विकर्म क्या है? तथा कर्म कब सकाम, निष्काम बनते हैं? कब वे सत्कर्म कहलाते हैं, कब दुष्कर्म?

देव संस्कृति इस संबंध में पर्याप्त मार्गदर्शन करती है मनीषी कहते हैं, कर्म के तीन भेद हैं-कर्म अकर्म और विकर्म। जो कर्तव्य है, मानवी गरिमा की परिधि में आता है वह कर्म कहलाता है। इनके भी तीन भेद हैं। नित्य, नैमित्तिक व काम्य कर्म। ‘नित्य’ कर्म इत्यादि आत्मशोधन के उपक्रम तथा स्वर्ग आश्रम शक्ति के अनुसार करने योग्य कर्म कहलाते हैं जिनके न करने पर पाप का भोगी मनुष्य होता है पर पुण्य मिले यह जरूरी नहीं। ‘नैमित्तिक’ कर्म वे जो किसी निमित्त के उपस्थित होने पर किए जाते हैं जैसे अतिथि के आने पर, पर्वों पर ज्योतिर्विज्ञान की विशिष्ट युतियों-ग्रहण आदि पर। इन्हें न करने से पाप होता है व करने से पुण्य मिलता है। ‘काम्य’ कर्म वे हैं जो किसी कामना से किए जाते हैं। स्त्री, पुत्र धन आदि प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति के लिए तथा रोग-संकटादि की निवृत्ति के लिए जो यज्ञ, दान, तप, उपासना कर्म किए जाते हैं (किन्हीं कामनाओं की पूर्ति के लिए) वे काम्य कर्म कहलाते हैं। काम्य कर्मों को न करने पर पाप नहीं लगता। करने पर पुण्य की प्राप्ति होती है, ऐसा शास्त्र कहते हैं

अकर्म उन्हें कहते हैं जिनके न करने से पुण्य नहीं होता परन्तु करने पर पाप लगता है। जो मानवी गरिमा की परिधि में नहीं आते, जिनकी उससे अपेक्षा नहीं की जाती। विकर्म वे हैं जो परिस्थिति के अनुसार वास्तविकता से बदल चुके हैं व कर्म या अकर्म बन गए हैं जैसे कुपात्र को दान देना, हिंसा करना गौ, ब्राह्मण या नारी सम्मान की रक्षा के लिए। कर्म, अकर्म और विकर्म का यह भेद बड़ा गूढ़ है व परिस्थिति विशेष पर भेद करने वाले की अन्तःप्रज्ञा पर निर्भर करता है। योगेश्वर कृष्ण कहते हैं-

“किंकर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः-कर्म क्या है, अकर्म क्या है इसका निर्णय करने में बुद्धिमान पुरुष भी भ्रम में पड़ जाते हैं तथा कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यंच विकर्मणः, अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कमर्णो गतिः॥

(16-17) अध्याय 4 गीता) अर्थात् “कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए, अकर्म का भी, विकर्म का भी, क्योंकि कर्म की गति गहन है॥” यहाँ कर्मों के परिप्रेक्ष्य में मानवी प्रज्ञा की परीक्षा की कसौटी बतायी गयी है कि उसे पहचानना चाहिए कि कौन सा करणीय है, कौन सा नहीं? हर व्यक्ति यह नहीं कर सकता। अतः श्रीकृष्ण आगे कहते हैं- कर्मण्यकर्म यःपध्येद कर्माणि च कर्मयः॥ 18/4

“जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है वह सब कर्मों को करने वाला योगी है। वही पण्डित है।”

कर्म में अकर्म तथा अकर्म में कर्म देखते हुए नीर-क्षीर विवेक का प्रयोग करते हुए अपने करने योग्य कर्मों को चुन लेना व उनमें बिना आसक्त हुए बिना फल की कामना के निरत रहना ही कर्मयोग बताया गया है। निष्काम कर्म की महत्ता के साथ भगवान कहते हैं- ‘यद्धार्थार्त्कमणोऽ न्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः । तदर्थ कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचार॥ ।9/ अध्याय 3

अर्थात् “यज्ञ के निमित्त किये जाने वाले कर्मों के अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ मनुष्य समुदाय कर्मों से बँधता है, अतः हे अर्जुन ! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भली भाँति कर्तव्य कर्म कर।” यज्ञ अर्थात् सत्कर्म-परमार्थ प्रयोजन के लिए किया गया श्रेष्ठतम कर्म पुरुषार्थ। देवसत्ताओं को दी गयी श्रेष्ठ कर्मों की आहुति, अंतः की सदाशयता का जागरण तथा संघबद्ध होकर चलने की वृत्ति । इस भाव से जो कर्म किये जायँ , वे “यज्ञार्थाय” कहलाते हैं। इन्हीं को सत्कर्म कहते हैं।

कर्म के चार कारण स्थूल बताये गए हैं व एक कारण सूक्ष्म-परोक्ष है। अधिष्ठान, कर्त्ता, करण व चेष्टा ये चार स्थूल तथा प्रारब्ध अदृश्य उक्त परोक्ष कारण हैं। कई बार स्थूल दृष्टि से सभी अनुकूल होते हुए भी कार्य सिद्ध नहीं होती -अतः प्रारब्ध की महत्ता अपनी जगह माननी पड़ती है। प्रारब्ध कर्म की स्वतंत्रता का विरोधी नहीं है , अपितु जीव के पूर्वकृत कर्मों का परिणाम है किन्तु प्रारब्ध तो कर्म द्वारा काटा जा सकता है, इसीलिए कर्मयोग की महत्ता है।

जुँग ने पूर्वात्य मनोविज्ञान का अध्ययन कर निरासक्त कर्मयोग के दर्शन की विश्वमानवता की बहुत बड़ी देन बताया था। वे “मेमोरीज, डीम्स, रिफलक्शन्स” पुस्तक में लिखते हैं कि यह अच्छे जीवन के लिए अभिप्रेरणा (मोटीवेशन) का काम करता है। पुनर्जन्म की पूर्वजन्म की पूर्वार्त्य दर्शन की मान्यता को स्वीकार करते हुए वे लिखते है कि ज्ञान की उपलब्धि के लिए मेरे पूर्वजन्म के संस्कार भी निमित्त कारण हो सकते हैं वह यह भी समझ में आता है कि ज्ञान (आत्मज्ञान) द्वारा व्यक्ति पूर्व के संस्कारों से मुक्ति भी पा सकता है। यही भाव गीता के चौथे अध्याय के श्लोक 36 के उत्तरार्ध में है “ज्ञानाग्निगगः सर्वकर्माणि भस्मसात्केरुते तथा।”

संस्कार क्या है? यह चर्चा विस्तार से पुनर्जन्म प्रकरण में अगले अध्याय में करेंगे क्योंकि कर्मफल व पुनर्जन्म परलोक प्रकरण परस्पर जुड़े हैं परन्तु यहाँ इतना बता देना पर्याप्त होगा कि जीव का अहंकार (कर्म का) ही उसे संस्कार देता है। जहाँ पशुचित स्मृतिरूप संस्कार ग्रहण करता है वहाँ मानव चित्त प्रेरणात्मक संस्कारों को ग्रहण करता है। स्वामी विवेकानन्द इस तथ्य को “कर्म का रहस्य” में स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि “संस्कार प्रायः मनुष्य की जन्म जात प्रवृत्ति होता है। यदि मन को तालाब मान लिया जाए तो उसमें उठने वाली प्रत्येक लहर प्रत्येक तरंग जब शान्त हो जाती है तो वस्तुतः वह बिल्कुल नष्ट नहीं होती वरन् चित्त में एक प्रकार का चिन्ह छोड़ देती है तथा ऐसी संभावना का निर्माण कर जाती है जिससे वह फिर उठ सके। इस चिन्ह तथा लहर के फिर उठने की संभावना को मिलाकर हम संस्कार कह सकते हैं। “ संस्कार ही मिलकर व्यक्ति का चरित्र बनाते है। यदि शुभ संस्कार है तो अच्छा, अशुभ है तो बुरा। जब व्यक्ति के संस्कार चिंतन मनन-ज्ञानार्जन द्वारा इतने प्रबल हो जाते हैं कि दुष्कर्मों से उसे विरत कर सदैव पवित्र बनाए रखते हैं तो ऐसा व्यक्ति स्थिर चरित्र वाला कहलाता है।

जहाँ कर्म के माध्यम से व्यक्ति संस्कारों को प्रबल बनाता हुआ अपने पापों व अशुभ कर्मों को काट सकता है, वहाँ वह कर्मों के फल के प्रति आसक्ति त्यागकर तथा सिद्धि -असिद्धि में (पूर्ण होने न होने में) समाना बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्त्तव्यरत होता है तो “समत्वयोगी” कहलाता है। श्रीकृष्ण गीता के दूसरे अध्याय में इसी को समत्वयोग को कुशल कर्म बताते हैं वह कर्म बंधन से छूटने का श्रेष्ठतम उपाय भी (तसमाद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम 2 /50 )। व्यावहारिकता की चरम पराकाष्ठा पर पहुँचा हुआ यह ज्ञान दैनन्दिन जीवन में अत्यन्त उपयोगी है। भारतीय संस्कृति कहती है-कर्म तो निरन्तर करते रहो, परन्तु अपने को बंधनों में मत उलझाओ बंधन भीषण हैं। संसार हमारी निवास भूमि नहीं है। पर्यटक की तरह रहे कर्मों में लिप्त मत होओ। स्वामी की तरह कार्य करो, दास की तरह नहीं । इस विश्व की सृजेता से सच्चा प्रेम करना सीखो। जब सारी विश्व वसुधा से प्रेम करने लगोगे तो स्वतः निरासक्त कर्मयोग के तुम अधिकारी विद्वान बन जाओगे।” अनासक्त कर्मयोग का वास्तविक तात्पर्य यही है कि किसी भी काम को पूरी कुशलता के साथ कर्त्तापन को अभिमान छोड़कर किया जाय और उसके फल से निर्लिप्त निस्पृह तथा अनासक्त रहा जाए, जिससे न तो सफलता का अभिमान हो, न असफलता में निराशा। इस संबंध में सारा तत्त्वज्ञान योगीराज कृष्ण अपने शिष्य को एक ही श्लोक में देते हुए कहते हैं-तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। अतः तू कर्मों के फल का हेतु मत बन तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो (2 /40) (कर्मण्येवाधिकारस्तेमा फलेषु कदाचन )।

वस्तुतः मनुष्य जीवन भाव प्रधान हैं। इमैनुअल काण्ट ने कहा है कि पाश्चात्य संस्कृति कर्म को प्रधानता देती हैं परन्तु भाव को नहीं जबकि हिंदू संस्कृति कर्म के पीछे भाव को प्रधानता देती हुई उसे कर्मनिष्ठ बनाती है। जैसा भाव होता है वैसा ही कर्म का स्वरूप हो जाता है। सत्कर्म व दुष्कर्म भाव से ही तो भिन्न-भिन्न रूप ले लेते हैं। कर्म का स्वरूप परिस्थिति विशेष युग धर्म के अनुरूप भिन्न-भिन्न हो सकता है। कर्म को जब व्यक्ति साधना बना लेता है तो वह उसके व्यक्तित्व को पूर्णता की दिशा में ले चलते वाला एक साधन बन जाते हैं। हर आदमी की स्वाभाविक रुचि व दायित्व भिन्न-भिन्न होते है। कमल का फूल कमल का ही रहेगा। यदि उसे गमले में लगा दें तो गुलाब का नहीं बन सकता। इसी तरह गुलाब का फूल अपनी जगह अपनी विशिष्टता लिये हैं वह पानी में डालने पर अस्तित्व खो बैठेगा। भगवान ने हर आदमी को अपने आप में देवत्व से भरा पूरा एक विलक्षण प्राणी बनाया है जिसमें विकास की असीम संभावनाएँ हैं। यदि वह विराट को समर्पित हो कर्म साधना में निरत हो सके तो अन्यान्य महामानवों की तरह लक्ष्य सिद्धि कर पूर्णता को प्राप्त हो सकता है। मौलिकता की महत्ता को समझते हुए अपने भीतर छिपे शक्ति के बीज की महत्ता को अंकुरित करते हुए कर्मयोग द्वारा हम सभी अपना विकास कर सकते हैं, ऐसी देव संस्कृति की मान्यता है। किसी भी महामानव ने किसी की नकल नहीं की। हाँ आदर्शों से प्रेरणा अवश्य ली। समर्थ रामदास की अपनी मौलिकता है तो विवेकानन्द की अपनी, अरविन्द की अपनी विशिष्टता है तो गाँधी जी की अपनी। वैयक्तिक कर्म कैसा हो, यह निर्धारण कर कर्म साधना व्यक्ति यदि करे तो महामानव-देवमानव बनने की संभावनाएँ उसमें हैं वह बन सकता है। किन्तु कभी-कभी ऐसे समय आते हैं जब वैयक्तिक व सामूहिक कर्म एकाकार हो जाते हैं। अवतार का अवतरण जब भी होता है तो सामूहिक कर्म साधना की प्रेरणा हेतु ही होता है। ऐसी स्थिति में समष्टिगत कर्म-युगधर्म एक हो जाते हैं, उस समय विशेष की आवश्यकतानुसार स्वयं को समूह के साथ नियोजित करना। यही युगसाधना बन जाती है। संस्कृति पुरुष पूज्य गुरुदेव ने अपने महाप्रयाण से 2 वर्ष पूर्व अपनी लेखनी से इसी युगसाधना की बात क्रान्तिधर्मी साहित्य के माध्यम से कही व जन-जल के मन को मथा उनके अनुसार आज का हमारा कर्म सामूहिक हो संस्कारों के जागरण हेतु-भारतीय संस्कृति के पुनर्जीवन हेतु-दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन व सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन हेतु हमारा समग्र पुरुषार्थ नियोजित हो। परमात्मा यदि प्रसन्न होगा तो उसी से। उनका कहा है कि नवयुग आने वाला है। प्रतिकूलताएँ निरस्त होने वाली हैं। ऐसे परिवर्तन के क्षणों में हमें एकाकी अपने तक सीमित बने रहकर समाजनिष्ठ बनना चाहिए व सामूहिक चेतना के जागरण की आवश्यकता को समझना चाहिए। विचारक्रान्ति अभियान, युगान्तरीय चेतना के सारे क्रियाकलाप इसी निमित्त नियोजित हैं व सारा विश्व आज सृष्टि के राजकुमार मनुष्य की “कलेक्टीव कांशसनेश (समष्टिगत चेतनसत्ता) से स्वर्ग के भूमिकरण की धरती पर स्वर्ग के अवतरण की आशा लगाए बैठा है। भारतीय संस्कृति का तत्त्वज्ञान वह सब कर पाने में, सतयुग वापस लौटाने में सक्षम है, इसमें किसी भी देव पुत्र को संदेह नहीं होना चाहिए।


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