सोऽहम् क्रान्ति, जो कि भवितव्यता है।

June 1992

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भौगोलिक रूप से इनसान एक दूसरे के इतना नजदीक कभी नहीं रहा-जितना आज है । आधुनिक सुविधाओं के सरंजाम ने दुनिया को एक गाँव में तब्दील कर दिया है । इतनी देर में हम एक गाँव से दूसरे गाँव में पहुँचते थे आज उतनी देर में दिल्ली से अमेरिका पहुँच सकते हैं। एक जमाना था जिसका जिक्र करते हुए कन्फ्यूशियस ने अपनी एक किताब में लिखा है-कि मेरे पूर्वज कहते थे-कि गाँव के पास नहीं बहती थी । नदी के उस पार रात को कुत्ते भौंकते थे-तो हमें आवाज सुनाई पड़ती थी । लेकिन यह पता नहीं था-कि नदी के पार कौन रहता है ? नदी बड़ी थी और नाव ईजाद न हुई थी, नदी के पार कोई रहता है-कोई गाँव है । यह तभी पता चलता था जब सन्नाटे को चीरती कुत्तों के भौंकने की आवाज कान में पड़ती थी वह गाँव उनकी अपनी दुनिया थी । इस गाँव की अपनी दुनिया थी ।

अलासदेर मैकईन्तिरे की पुस्तक “ ए हिस्टोरियन अप्रोच टू सोसाइटी “ में सँजोये भावों के साथ विचार करें तो उस समय की दुनिया में और आज की दुनिया में बुनियादी फर्क है । उस जमाने में जो विचार पैदा हुए भाव उमड़े-उन पर आज भी मुग्ध होना पड़ता है । कन्फ्यूशियस की बातें पढ़ें, या लाओत्से के गोल्डनरूप ईसा के उपदेश सुने-या वैदिक ऋचाओं की मधुर गूँज-हर कहीं प्रेम का ज्वार उफनता है । अतिथि देवो भव ! यत्र नार्यस्तु पूज्यंते.......। आदि वाक्य पढ़कर-यदि कोई आज की परिस्थितियों को निहारें तो उसे विश्वास ही नहीं होगा कि कभी ऐसे भावों के आलिंगन में जिन्दगी बँधी थी । घर परिवार प्रदेश-राष्ट्र-विश्व तक हर कहीं हर कोने में दरारें , टूटन बिखराव फैला पड़ा है । सभी की दौड़ अलगाव की ओर है । प्रत्येक स्वयं में आतंक से सहमा है औरों को आतंकित कर रहा है । शरीर की सुन्दरता तभी तक है जब तक उसका हर अवयव एक दूसरे से जुड़ा रहे। यदि विभिन्न अंग अवयव एक दूसरे से दूर छितरा जायँ तो परिणाम में बदसूरती और सड़न ही मिलती है । भौगोलिक समीपता के बावजूद भावनात्मक स्तर पर विश्व की यही दशा है । दार्शनिकों से लेकर राजनीतिज्ञों तक सभी इसी उधेड़-बुन में हैं कि बिखरती जा रही मनुष्य जाति को कैसे समेट-बटोर कर एक सूत्र में बाँधा जाय

सी . ए ब्रौसके ग्रन्थ “ए हिस्ट्री आँव हिस्टोरिकल राइटिंग“ के पृष्ठों पर गौर करें तो पाएँगे एकता की ये कोशिशें नितान्त आधुनिक नहीं है । यूनान और रोम के विजय अभियान रचने वालों ने भी अपना यही मकसद बनाया था । सिकन्दर का मन विश्व राष्ट्र की सुखद कल्पनाओं में रंगा था । अँग्रेजों ने यही उद्देश्य प्रचारित कर विश्व की महत्वपूर्ण जगहों पर अपने उपनिवेश स्थापित किए । “विश्व को एक करूँगा” हिटलर ने इसी संकल्प की आड़ में अपना ताना-बाना बुना था । बीसवीं सदी के दूसरे दशक में-मार्क्स के साम्यवाद का नारा देकर-स्टालिन ने रूस में छोटे पैमाने पर-यही करतब दिखाने की कोशिशें की। लेकिन ये ढेरों प्रयास पुरुषार्थ अपनी चरम परिणति में एकता से उतना ही दूर रहे जैसे आकाश से धरती ।

इन दिनों हर किसी की आँख-विश्व को बिखराव के तूफानों से घिरा देख रही है । इस आँधी में एकता के तिनके समेटे जा सकेंगे किसी को कल्पना तक नहीं उठती । भारत को ही लें-पंजाब-कश्मीर आसाम-आँधी के इन्हीं हिचकोले में झूल रहे हैं । दुनिया का सबसे बड़ा भू-भाग अपने में समेटे रूस-देखते-देखते टुकड़े-टुकड़े होकर छितर गया । अमेरिका में अश्वेतों द्वारा अपने अधिकार की माँग जोर पकड़ती जा रही है । चीन इन चिनगायों से अछूता नहीं है । लंका में उठ रहें बिखराव के शोलों की चमक विश्व के हर व्यक्ति की आँखों को चौंधिया देने के लिए काफी है । अलगाव में तत्पर, आतंक फैलाने में जुटे संगठनों की फेहरिश्त बनाई जाय तो एक पुस्तक के पृष्ठो का कलेवर छोटा पड़ जायगा ।

हलचलों की यह तेजी इस कदर है कि क्रान्तियाँ आम बात हो गई हैं । जहाँ पहले इनके लिए सौ-सौ सालों तक इंतजार करना पड़ता था, वहीं अब सौ दिनों में इनके उदय और उफान देखे जा सकते हैं । और आज क्रान्ति की विस्तृत परिधि जिस एक छोटे से संकरे गलियारे में फँस कर रह गई है , उसका नाम है-प्रशासनिक फेर-बदल सरकारों की उठा-पटक लोग जीवन ने इसे रोज−मर्रा के घटनाक्रम का एक अंग मान लिया है । उसकी नजर में व्यवस्था कोई भी हो इसका एक ही दायित्व रह गया है, नित नए कानून बनाना-जन जीवन को इनके लौहपाश में फँसने-फँसाने और सिसकने के लिए मजबूर करना ।

तब क्रान्ति का स्वरूप और एकता की उलझन ? इसे-सुलझाने के लिए ‘ए फ्यूचर नामक ग्रन्थ में सँजोये मनीषी उलरिच के शब्दों पर विचार करे-तो पता चलता है कि इतिहास के इन विगत घटनाक्रमों का कहीं अधिक बारीकी से सर्वेक्षण करने की जरूरत है । उनके अनुसार-सम्भव है विगत घटनाक्रमों के कर्णधारों में से किसी का उद्देश्य ठीक रहा हो पर प्रयासों की दिशा-निश्चित रूप से सही नहीं रही । एकता के नाम पर ज्यादातर कोशिशें आधिपत्य स्थापना की रहीं हैं । इनके पीछे प्रायः सभी ने विश्व राष्ट्र के सम्राट होने के सपने सँजोये थे । यही कारण है छः सौ करोड़ मनुष्य की जमात में ऐसों की संख्या-दो-चार मुट्ठी से अधिक नहीं होगी जिनका एकता की ओर झुकाव हो ।

क्योंकि सभी को अपने पूर्व अनुभवों से एकता का एक ही अर्थ मालूम हो सका है- स्वतन्त्रता का अपहरण मौलिकता का छिन जाना । प्रीतम ए . सोरोकिन के शब्दों में कहें तो जन-जीवन ने इन दोनों तत्वों को ऐसे दो विरोधी ध्रुव मान लिया है-जो कभी एक नहीं हो सकते । अब तक हुए प्रयासों के संदर्भ में यह तथ्य औचित्य पूर्ण है, क्योंकि आधिपत्य की शैली को न तो मानवीय व्यक्तित्व की बारीकियों का पता है, और न मौलिकता के रक्षण की जानकारी है ।

धरती ने अभी तक बहुतायत में सिर्फ राजनीतिक क्रान्तियाँ और तत्सम्बन्धी एकरूपता के प्रयासों का अनुभव किया है । इस सम्बन्ध में रोम साम्राज्य एक ऐतिहासिक उदाहरण है जो राष्ट्र की सीमाओं को लाँघ चुका था । इसके गुणों में जहाँ इसकी व्यापक सुरक्षा सुप्रबन्ध को सराहनीय कहा जा सकता है । वहीं व्यक्ति नगर और प्रदेश को अपने स्वाधीन जीवन का बलिदान करके मशीन के कल पुर्जे बनकर रहना पड़ा , इसके परिणाम में जीवन ने अपनी श्री समृद्धि स्वतन्त्रता तथा सहज सृजन की विजयशील प्रेरणा गँवा दी। अंत में व्यक्ति की तुच्छता और दुर्बलता के कारण इसे नष्ट होने को विवश होना पड़ा। रूस में हुए सभ्यता के प्रयासों को इसी का एक बदला हुआ रूप कहा जा सकता है। मार्क्स की नजर में मनुष्य एक आर्थिक प्राणी भर था। कल्पना स्वतन्त्र इच्छा मौलिक क्षमताओं का विकास जैसी चेष्टाएँ भी इनसान के अन्दर समायी है शायद इसे सोचने की उसे फुरसत नहीं मिली और यही कारण है कि समाजवाद के नाम पर ऐसा शिकंजा तैयार हुआ जिसे तोड़ फेंकने के लिए वहाँ का जन जीवन शुरू से कोशिश में जुटा रहा। और जब तक तोड़ नहीं फेंका चैन नहीं लिया।

लेकिन राजनीतिक क्रान्तियों की अपनी सीमाएँ हैं । मानवीय भावनाओं को एक-दूसरे में घोल देना, क्षत-विक्षत हो रहे समाज को पुनः सौंदर्य मण्डित करने का प्रयास जिस तकनीक से सम्भव है उसका नाम है सोऽहम् क्रान्ति । “ए हिस्टोरियन अप्रोच टू रिलीजन” के रचनाकार अर्नाल्ड टायनबी के शब्दों में कहें तो यहीं एकता को उसका वास्तविक अर्थ होता है । राजनीतिक एकता तो एकता के नाम एकरूपता के स्थापना की चेष्टा है ।

जबकि देव संस्कृति के तत्व दर्शन में इसे पारस्परिक सम्बन्धों की घनिष्ठतम अवस्था कहाँ है । ऋषि चिन्तन के व्याख्याता सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपने चिन्तन कोश ‘रिकवरी आँव फेथ’ में इसका उदात्त स्वरूप प्रस्तुत किया है । उनके अनुसार सम्बन्ध वहीं जन्म लेते हैं जहाँ संवेदना का निर्भर फूट रहा हो । विश्व में संवेदनाओं के ये रस स्रोत भिन्न रूपों में देखे जा सकते हैं । उदाहरण के लिए जातीय संवेदना-पारिवारिक संवेदना और राष्ट्रीय संवेदना । अपने वास्तविक स्वरूप में पवित्र होते हुए भी सीमा बन्धन की अनुभूति के लिए विवश हैं । जातीय संवेदना का उत्कर्ष अपने जाति भाइयों से बाहर नहीं फैल सकता । उसे हिन्दू मुसलमान, सिख-ईसाई के दायरे में बँधना ही पड़ेगा । इस तरह के सम्बन्धों की मधुरता भी यही तक सीमित है । यही हाल परिवार की धारणा से उपजी संवेदनशीलता का है-इसका फैलाव मुट्ठी भर कुटुम्बीजनों के बाहर नहीं निकल सकता । राष्ट्र का दायरा व्यापक और विस्तृत जरूर है पर उसमें विषयानुभूति नहीं है ।

विषयानुभूति के लिए-सोऽहम् संवेदना का उफान चाहिए । इसी का एक नाम आध्यात्मिक संवेदना भी है । जिसका बोध श्वेताश्वेतर-उपनिषद् के शब्दों में एकोदेवा सर्वभूतेषु गुढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा (वे एक ही परमदेव परमेश्वर समस्त प्राणियों के हृदय रूप गुहा में छुपे हुए हैं । वे सर्वव्यापी और समस्त प्राणियों के अन्तर्वामी परमात्मा हैं । (श्वेता 6/11) संवेदनाओं की यह व्यापक अनुभूति जब सम्बन्ध बनकर प्रकट होती है-तब विश्व मानवता के प्रति प्रेम का उफान अस्वाभाविक नहीं रह जाता । “इन वुड्स आफ गॉड नियलाइजेशन” के खण्ड दो में स्वामी रामतीर्थ की अनुभूति का स्पर्श करें तो पाते हैं कि सम्बन्धों का जन्म ही वहीं होता है जहाँ भावनाएँ स्पन्दित होती है । निष्ठुरता में कभी किसी तरह के रिश्ते नहीं उपजते । उनके शब्दों में इसकी व्याख्या करें तो यह सामंजस्य की वह परम स्थिति है जहाँ से प्रेम झरने लगे ।

यह बोध जितना व्यापक और सघन होगा । एकत्व उतना ही विस्तृत होता जाएगा । लेकिन यह अपने अर्थ और तत्व में राजनीतिक और भौगोलिक भूमिकाओं से नितान्त दूर होते हुए भी मानव हृदय के सबसे नजदीक है । इस तरह के प्रयास और परिणति में मानव की स्वतन्त्रता का हरण न तो किया जाता है और न होता है । हाँ वह स्वयं अपनी अन्तर्भावनाओं की कसक और हुलस के कारण-आकुल-व्याकुल होकर अपने स्वार्थों का उत्सर्ग का डालता हैं ।

‘स्वतन्त्रता’ तो मानव की सबसे अमूल्य निधि है । किसी भी कीमत पर इसके त्याग के लिए उसे विवश नहीं किया जाना चाहिए । विश्व राष्ट्र की स्थापना और मानवीय में से किसी एक को चुनना पड़े तो निश्चित रूप से मानवीय स्वतंत्रता को चुनना ज्यादा श्रेयस्कर होगा । क्योंकि यह मानव व्यक्तित्व में समाई विशिष्टताओं के विकास के लिए सर्वोत्कृष्ट और अनिवार्य अवस्था है । पिछले दिनों मानव जाति को कुण्ठाओं खण्डित व्यक्तित्व और अर्ध विक्षिप्तता की जो गहरी पीड़ा भोगनी पड़ी है उसका एक मात्र कारण उसका स्वातंत्र्य हनन रहा है ।

विश्व के जीवन में सोऽहम् क्रान्ति ही एक मात्र वह प्रक्रिया है जो अपनी चरम परिणति में उसे एकता और स्वतन्त्रता दोनों अलभ्य उपलब्धियाँ एक साथ सौंपने में समर्थ है । संस्कृति के चार अध्याय ग्रन्थ के लेखक रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों को उद्धृत करें “विश्व की भावी एकता की भूमिका भारत की सामाजिक संस्कृति में है । जैसे भारत ने किसी भी धर्म का दलन किए बिना अपने यहाँ धार्मिक एकता स्थापित की । जैसे इसने किसी भी जाति की विशेषता को नष्ट किए बगैर सभी जातियों को एक सोऽहम् सूत्र में आबद्ध किया । कुछ उसी प्रकार हम संसार के सभी जातियों एवं सभी विचारों के बीच एकता स्थापित कर सकते है ।”

सोऽहम् क्रान्ति के ये प्रयत्न मनुष्य के जीवन सम्बन्धी विचार कोशिशें कर भावनाओं की ऐसी प्रवृत्ति के रूप में उभरेंगे जो सामूहिक मन को वशीभूत कर लेगा, इसका परिणाम होगा मानव जीवन के समस्त क्षेत्र में गम्भीर और अद्भुत परिवर्तन । भावलोक में इसका दिव्य दर्शन कर जर्मन दार्शनिक शोपेनलक ने भविष्यवाणी की थी । जिसका जिक्र करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने 16 जनवरी 1890 के अपने व्याख्यान में कहा था “वे जर्मन ऋषि कह गए है शीघ्र ही विश्व-विचार जगत में सर्वाधिक शक्तिशाली और दिगंतव्यापी सोऽहम् क्रान्ति का साक्षी होने वाला है । विचारों का यह तूफान-उपनिषदों के देश से उठेगा ।” इस दैवी विधान की चरम परिणति को स्वीकारते हुए श्री अरविन्द का “द् आयडियल आँव ह्यूमन यूनिटी” में कहना है कि यह प्रत्यक्ष है कि मनुष्य जाति की एकता प्रकृति की आन्तरिक योजना का अंग है और यह सिद्ध होकर रहेगी।

यह योजना अपने प्रारम्भ से ही विश्व को एक नया रंग और वातावरण , एक उच्चतर भावना , एक महत्तर उद्देश्य प्रदान करेगी । इस प्रारम्भ का अन्तिम परिणाम होगा विश्व राष्ट्र का नया युग व्यवस्थाओं , प्रणालियों, नीतियों की दृष्टि से अद्भुत होने के साथ व्यक्तित्व संरचना की दृष्टि से भी अभूतपूर्व होगा ।

अपने इन्हीं भावों को काव्य के माध्यम से बँगला कवि नज़रूल ने इस तरह व्यक्त किया है । मा भैः !

मा भैः एतोदिने बुझि जागिलों भारत प्राण, सजीब होइया उठिया छे आज श्मशान गोर स्थान । जेगेछे भारत, उठि वे अमृत , देरी नाई आर, उठियाछे हलाहल । ।

अर्थात् “डरो मत ! डरो मत । बहुत दिनों के बाद भारत में प्राण आया है श्मशान और कब्र स्थान दोनों सजीव हो उठे हैं । भारत जग उठा है । अमृत भी आएगा अब विलम्ब नहीं है । हलाहल तो ऊपर आ ही चुका है ।

सोऽहम् क्रान्ति के स्वर सुदूर पूर्व से पश्चिम के दूरवर्ती राष्ट्रों तक गूँजते अगले दिनों सब देखेंगे । शुरुआत भारत से होगी । सभी धर्म संप्रदाय यहाँ एक साथ रहते आए हैं तो पुनः हमारा बृहत्तर भारत एक क्यों नहीं हो सकता ? सारे विश्व का मार्ग दर्शन क्यों नहीं कर सकता ? यही नियति है, यही भवितव्यता है ।


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