गाय माता क्यों, कामधेनु क्यों?

June 1992

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“वेल मि. ह्यूमैन, तुम्हें इन किताबों से क्या कभी भी छुट्टी नहीं मिलती ?” “ओह डॉक्टर!” उठकर उस अमेरिकन ने मनीन्द्र बाबू से हाथ मिलाया । मैं आज बड़ी उलझन में पड़ गया हूँ । अच्छा, पहले चाय तो पी लो, खानसामा, दो कप चाय ।’

खानसामा उस दिन के वार्त्तालाप को याद कर रहा था । ढेरों पुस्तकें बिखरी पड़ी थीं । कुछ अँग्रेजी की थीं कुछ संस्कृत की, तथा कुछ अन्य भाषाओं की । मेज के खाली कोने पर खानसामा ने चाय के प्याले रख दिए । ‘आप तो प्रसिद्ध पशु-विशेषज्ञ हैं’! ह्यूमेन ने चाय पीते-पीते कहा “भारतीय गौ की नस्ल तो बेहद गिर गई है । यद्यपि वह यहीं का पशु है ।” मैंने प्रारंभ में ही कहा था” डॉक्टर ने वैसे ही कहा “आपको यहाँ कुछ नहीं मिलेगा । अमेरिकन गायों की तुलना यहाँ से नहीं की जा सकती ।”

ह्यूमैन साहब एक अमेरिकन पशु विशेषज्ञ थे और गायों की नस्ल सुधारने के संदर्भ में अनेक देशों में उन्होंने भ्रमण किया था । उनका कहना था कि गाय भारतीय पशु है और किसी न किसी प्रकार यहीं से संसार में फैला है । इसी विश्वास ने उन्हें भारत की ओर आकृष्ट किया था । यहाँ आकर एक भारतीय विशेषज्ञ से उन्होंने परिचय भी कर लिया।

‘लेकिन प्रारंभ में यहाँ की नस्ल ऐसी नहीं थी ।’ वह गम्भीर हो गए “अच्छा तुम्हारे किताबों में यह कामधेनु शब्द बार-बार आया है । इसे तुम जानते हो?” उनकी आँखें सामने बैठे व्यक्ति पर स्थिर हो गई ।

‘ओ।’ ‘तो यह है आपकी उलझन?’ हँसी के बीच जवाब उभरा । ‘आप पुरानी कहानियों के चक्कर में पड़ गए हैं । इनमें कोई तथ्य नहीं है ।’ आधुनिक विचारों के कारण ये भारतीय सज्जन ऐसी बातों पर ध्यान देना व्यर्थ समझते थे । ‘मैं इसे ऐसा नहीं समझता ‘ वह अमेरिकन विशेषज्ञ उनकी उपेक्षा से तनिक भी प्रभावित नहीं हुआ । उसका मुख और गम्भीर हो गया , चाय का प्याला मेज पर रखकर वह सीधा बैठ गया । “कामधेनु का शब्दार्थ तो हुआ चाहे जब और जितनी बार इच्छा हो उतनी बार दुही जा सकने वाली । लेकिन किताबों में तो दूसरा ही कुछ लिखा है ।” “आपका संस्कृत ज्ञान प्रशंसनीय है ।” भारतीय को इस अमेरिकन विशेषज्ञ पर हँसी आ रही थी । वह क्यों मूर्खतापूर्ण बातों पर विश्वास करने जा रहा है । ‘फिर भी मैं आपको ऐसी गप्पों में अपना अमूल्य समय नष्ट करने की सलाह नहीं दूँगा । “मैं प्रयोग करूँगा।” उसे पक्की धुन थी । “मैं ठीक तरह से तुम्हारी किताबों का अक्षर-अक्षर पालन करके प्रयोग करूँगा । मुझे एक अच्छी गाय ला दो । ऐसी गाय जो चाहे जब दुही जा सके और देखो वह कपिला हो बस !” और उसी दिन उन्हें गाय मिल गई ।

लम्बी रजतवर्ण दाढ़ी तथा श्वेत दीर्घ केश वाले खानसामा ने अपने अमेरिकन साहब की बातों को सुनाते हुए उनकी ओर कुछ इस तरह देखा जैसे अब वह किसी गम्भीर रहस्य पर से पर्दा उठाने थीं । स्वाभाविक भी था एक अमेरिकन पशु विशेषज्ञ भारत आकर यहाँ की शास्त्रोक्त बातों पर प्रयोग करे अपना जीवन खपाकर उनके सत्यापन में जुट जाए इसका विवरण कौन नहीं जानना चाहेगा ? उस बूढ़े मुसलमान खानसामा ने उनकी जिज्ञासा को भाँपकर कहना शुरू किया ।

तो अपने प्रयोग के दौरान एक-दो दिन में ही साहब को पता चल गया कि आगरे जैसे बड़े शहर में रहकर वे प्रयोग नहीं कर सकते । पन्द्रह मील दूर यमुना किनारे उन्होंने एक ढाक का जंगल खरीद लिया । वहीं एक छोटा बंगला बनवा लिया और उस गाय को लेकर आ गए ।

सिंचित जंगल घास से भर जाना ही था । चारों ओर काँटेदार तार लगा दिए गए थे । बंगले पर साहब गाय और उसकी बछड़ी और मुझ खानसामा को छोड़कर कोई प्राणी नहीं रहता था ।

पहले ही दिन मुझे आश्चर्य हुआ जब साहब एक छोटी लकड़ी में रूमाल बाँधकर सबेरे गाय चराने निकले । ‘यह मेज को झाड़ने के लिए तो ठीक था पर गाय चराने के लिए । फिर साहब एक चरवाहा क्यों नहीं रख लेते ? लेकिन मैं जानता था कि साहब झक्की है ।

दो महीने से हयूमैन अपने को तैयार कर रहे थे । अनेक उलट फेर उन्होंने अपने भोजन तथा रहन-सहन में किए थे । चाय वे छोड़ चुके थे और धूप में टहलने का अभ्यास भी कर चले थे ।

घिरे हुए जंगल में साहब अपने झाड़न से गाय के ऊपर बैठने वाले मक्खी मच्छर उड़ाते हुए उसके पीछे-पीछे घूमते रहे । कहीं रोकने की जरूरत नहीं थी । बड़ी नालियों में स्वच्छ जल भरा था। दोपहर में आदेश के अनुसार खानसामा वहीं भोजन दे गया । पहले दिन भूमि पर बैठ कर साहब ने भोजन किया । पतलून छूट गई । उससे जमीन पर बैठने में अड़चन होती थी । हाफ् पैण्ट और हाफ् कमीज बस । हैट धूप से बचाने को चाहिए ही । काँटा-चम्मच छोड़कर उन्होंने हाथ से भोजन करना प्रारम्भ किया । मैं शहर जाऊँ तो रोटी पहुँचावे कौन ? केक, बिस्किट के बदले टिक्कर ठोके जाने लगे ।

‘साहब क्या पागल हो गया है ?’ मैं कभी-कभी सोचता, वह सुबह गाय के पैर धोकर वह गन्दा पानी मुँह में डालता है । हिन्दुओं की तरह फूल-रोली से उसकी पूजा करता है । शाम को गाय के पास चिराग रात भर के लिए जलाता है । जैसे गाय कोई बच्चा है जो अँधेरे में डर जाएगी । रात को चटाई डालकर वहीं जमीन पर सो रहती है ।’ दिन भर अकेले रहते-रहते मैं ऊब जाता था ।

वैसे साहब मुझे बहुत भला लगता । ‘मैं जैसी रोटी बनाता वैसी खा लेता । गाय के पास झाडू खुद देता । कमरे में भी झाडू न दिया हो तो अपने आप देने लगता । कभी डाँटता नहीं तनख्वाह ठीक पहली को हाथ पर रख देता । सोचता खुदा उसका पागलपन दूर करे । कभी-कभी मुझे लगता जरूर इस गाय पर कोई जिद सवार है और उसी ने साहब को पागल बना दिया है । कई बार मैं साहब की आँख बचाकर कलमा पढ़कर गाय पर फूँक मार चुका था ।’

‘आज मैं देखूँगा कि जंगल में साहब दिन भर क्या करता है । लगभग छः महीने बाद मैंने एक दिन निश्चय किया और उस दिन साहब को रोटी देकर बंगले नहीं लौटा । झाड़ियों में छिपकर बैठा रहा । गाय आराम से एक ढाक के नीचे बैठी थी । उसकी बछड़ी इधर-उधर फुदक रही थी और साहब उसके सामने घुटनों के बल बैठा हुआ था । उसने हाथ जोड़ रखे थे, प्रार्थना कर रहा था , और बेतरह रो रहा था ।

‘मैं बुरी तरह चीख पड़ा । यह क्या ? गाय आदमी जैसी साफ अँग्रेजी बोल रही थी । मैं डर कर बेहोश हो गया । पता नहीं कब तक वहाँ पड़ा रहा । जब आँखें खुलीं तो बँगले में पलंग पर लेटा हुआ था और मेरा साहब सामने खड़ा मुस्करा रहा था ।’ अपनी बात समाप्त करते हुए वे मुसलमान सज्जन भाव से अभिभूत हो गए । पास के नीम के पेड़ के पास बैठी चागुर कर रही एक दुग्धोज्ज्वल हृष्ट-पुष्ट गौ की तरफ इशारा करके बोले यह उसी कामधेनु की बछड़ी है । जब से साहब का इन्तकाल हुआ तब से मैं इसकी सेवा कर रहा हूँ ।

एक ईसाई और दूसरा मुसलमान इनके द्वारा की गई गौ सेवा न उन्हें अनेकानेक विचारों और भावों की उन्मत्त तरंगों से घेर दिया । राजा दिलीप की गौ-सेवा के दृश्य उनकी आँखों के सामने उभरने लगे । थोड़ा हिचकते हुए उन्होंने सामने खड़े वृद्ध सज्जन से पूछा ‘आप तो मुसलमान हैं आपके धर्म में तो कुर्बानी .......।’

‘उस पाक परवरदिगार के लिए माफ करो’ बड़ी व्याकुलता से उन्होंने इन खादीधारी सज्जन को रोक दिया’ किसी को कोई हक नहीं कि कुरान शरीफ को बदनाम करे और हजरत साहब पर ऐसे दोष मढ़े ।’ वाक्य समाप्त करते-करते उनकी आँखें भर आयीं । वृद्ध सज्जन की भाव मुद्रा देखकर वे पश्चाताप के स्वर में बोले “माफ करना मेरा इरादा आपको कष्ट देने का नहीं था ।” ह्यूमैन साहब के प्रयोग-इन वृद्ध सज्जन की अनुभूतियाँ उन्हें मथने लगीं । वह सोचने लगे-जिनकी संस्कृति ने गौ को माँ कहकर पूजनीय माना उनमें से घरों में बाँधकर गाय को चारा-पानी के लिए तरसाने वाले कम नहीं हैं । दूध की आखिरी बूँद तक दुहकर-गाय के बच्चे को तड़प कर मरने के लिए छोड़ने वाले ग्वाले भी अपने को हिन्दू कहते हैं गायों के मूक अनु अभिशाप बनकर हिन्दू जाति को लग गए हैं और वह अपना कर्मफल भोग रही हैं । उनके मन में इसका प्रायश्चित्त स्वरूप कुछ करने की कसक उठी ।

वे वृद्ध सज्जन को प्रणाम करके चलने लगे । पर उन्होंने रोकते हुए कहा दूध तो पीते जाओ । वृद्ध उठ खड़े हुए । बाहर नन्हा सा ढाक था , जिसके पत्ते तोड़कर उन्होंने दोना बनाया , और बिना किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए दोना उनके हाथ में रख दिया ।

गाय नीम के नीचे खड़ी हो गई थी । ‘तुम थनों के नीचे बैठ जाओ ।’ वे गाय के सामने घुटने टेक कर बैठ चुके थे , अम्मा, अपने घर ये मेहमान आये हैं । ‘ वह आश्चर्य चकित रह गए । गाय के चारों थनों से दूध की धारा बहने लगी थी । दोना बराबर भरता रहा और वह पीते रहे उतना स्वादिष्ट दूध उन्होंने जीवन में कभी नहीं पिया था ।

‘सचमुच कामधेनु पाई है आपने । पर क्या आपकी कामधेनु कहाँ है ? मैं वैसी सेवा कहाँ कर पाता हूँ । वह तो साहब ही थे थोड़ी देर रुककर वे बोले “उन्हें कामधेनु ने खुदा का जलता तक दिखाया और वह खुद उन्हें लेकर मालिक के दरबार में चली गयी ।” कहने वाले की आँखों में अनुभूति की गहरी चमक थी जो सुनने वाले के अंतर्गत को बेधती हुई चली गई ।

वृन्दावन की इस अनुभूति ने उनके जीवन में चमत्कारी परिवर्तन कर डाले । वहाँ से लौटकर उन्होंने अक्टूबर 1941 में वर्धा में गौ सेवा संघ की स्थापना की । देश ने इस गौ-सेवा के अग्रणी को जमना लाल-बजाज के नाम से जाना । लेकिन वह स्वयं इस नाम यश से दूर-अपने द्वारा स्थापित गौ-पुरी में निवास कर भारतीय संस्कृति में वर्णित गौ-महिमा का जीवन्त साक्षात्कार करते रहे । प्रयोगधर्मी और सत्य की उपासक देव संस्कृति के तत्व आज भी जीवन्त हैं । पर इनके साक्षात्कार के लिए सत्य का अन्वेषक चाहिए । सत्यान्वेषण में तत्पर परम प्रज्ञा आज भी भौतिक की परतों में छुपे दैनिक और आध्यात्मिक रहस्यों का जागरण करने में सक्षम है ।


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