माटी की शपथ

June 1992

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उनमें से एक ने हुंकार उठाई “देवसंस्कृति की!” जवाब में जन्मभूमि की माटी के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने वालों की भीम गर्जना गूँजी “जय!”

यह स्वर पर्वतों से टकराया और हुभकते घोड़ों से जूझा पर घोड़े नहीं माने और एड़ी की चोट से उन्मत्त तुरंग हवा पर टूटे। वीरों को अपनी जाँघों से उनकी पीठ को दबाकर जमना पड़ा। इस प्रयास में उन सेनानियों के गर्व भरे भाल और भी ऊँचे उठ गए। पथरीली भूमि पर बजती टापों की धक-धक के पीछे देश-वासियों के हृदय के रक्त को तीव्र गति से भगाने वाले नगाड़ों का धकधकाता शब्द गूँजने लगा।

तब वहाँ समस्त अंतराल में एक हड़कंप सी मच उठी और अश्वारोहियों का वह समूह ऐसा लगा जैसे कोई पर्वत की तरह का भीमकाय प्रचण्ड मेघ अपने तेजस्वी मुख रूपी बिजलियों को चमकाता बढ़ता-उछलता चला आ रहा है।

तेजी से पैदल भागते भील काले-काले से मटमैले पर्वतों से ऐसे उतरने लगे जैसे सन्ध्या के आकाश में क्षितिज पर से काले-काले चपलाँग वेगवान गरुड़ बढ़ते चले आ रहे हों जो कभी मेघ में छिप जाते हों कभी निकल आते हों।

धीरे-धीरे अरावली की घाटी देश के इन बलिदानी सपूतों से भरने लगी। पुरुषों से महिलाओं की संख्या कम न थी। भील कन्याएँ, ग्राम-वासी महिलाओं-सामन्त पत्नियों में आज पूरा उत्साह था। इस उत्साह को शतगुणित करते हुए बारहट हूपा जी का गान सुनाई पड़ा “देश के वीरों और वीराँगनाओं! अँधेरी रात बीत गई है। आकाश में सूर्यनारायण का उदय हुआ है। उठो और सन्नद्ध हो जाओ। देखो-देखो प्रलय की प्रचण्ड लहरों ने इस पवित्र भूमि को ढक दिया था लेकिन आज वह जल उतरने लगा है। देखते हो अब फिर हिमालय का शिखर बाहर निकलने लगा है। हाथ उठाओ और उस शिखर का अभिनन्दन करो।”

हूपा जी के इन स्वरों के साथ सहस्र-सहस्र नेत्र लोकनायक महाराणा की ओर उठे। अपने-अपने स्थान पर रहते हुए सभी ने इस नर केशरी को सिर झुकाकर अभिवादन किया। लेकिन बारहट अभी अपने में मग्न था। वह गा रहा था।

“ऋषियों की संतानों! उठो और देखो कि आज यह बाप्पा रावल के पवित्र वंश का उत्तराधिकारी तुम्हारे सामने तपस्वी बनकर आया है। इसकी स्त्री आज स्वर्णविहीन बनकर खड़ी है जैसे अलंकार विहीना इस देश की धरती अपना खोया गौरव वापस माँग रही हो। वीरों । इसी कुल की महारानी मीरा ने एक दिन भारत की भूमि में भक्ति की स्रोतस्विनी बहाकर कुलीनता के दंभ को खण्ड-खण्ड कर दिया था। उसी के वंशधर आज तुम्हें महाव्रत में दीक्षित करने आए हैं।”

गीत समाप्त हो गया। एक पल के लिए चारों ओर निस्तब्धता छा गई। दूसरे ही पल चेतक की पीठ पर बैठे महाराणा प्रताप का गम्भीर स्वर उभरा-भारत माँ की अमर सन्तानों! आज हम सब सोऽहम् स्वतन्त्रता के लिए अपना सब कुछ लुटा देने की शपथ उठाने के लिए आए हैं। उसी देश की संस्कृति के लिए जो सोने की चिड़िया कहलाता था-समूचा विश्व जिसकी अथाह सम्पदा की ओर आश्चर्य भरी आँखों से ताकता था। आज उसी देश को सम्पदाविहीन होकर औरों की ओर याचक की दयनीयता से टकटकी लगाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है-जानते हो क्यों? जगद्गुरु कहलाने वाले समस्त कलाओं और विद्याओं के एक राष्ट्र चक्रवर्ती का वैभव आज कहाँ विलीन हो गया? कहाँ खो गई उसकी बौद्धिक क्षमता और प्रतिभा जो उसे तकनीकी विशेषता के सभी क्षेत्रों में विदेशियों के सामने घुटने टेकने पड़ते हैं। ऋषित्व को आत्मसात् करने वाले, देवत्व की आराधना करने वाले आज विलासिता के चंगुल में कैसे जा फँसे? “यत्र नार्यस्त पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता” का प्रचण्ड घोष करने वाला देश आज बिलखती स्त्रियों की आहों उनके करुण क्रन्दन की गूँज से भर रहा है-जानते हो क्यों?”

सभी अवाक् थे जीवन के इन ज्वलन्त प्रश्नों के सामने। सभी के हृदयों में एक ही उद्वेलन था कौन हल करेगा इन्हें? उद्वेलन की इन तरंगों को तोड़ते हुए राणा की स्वर सरिता पुनः प्रवाहित हो उठी “ऋषियों की अमर संस्कृति जिसे हम भूल चुके हैं भूलते जा रहे हैं-धरित्री के जीवन में पुनः उसकी गौरवपूर्ण प्रतिष्ठ वसुन्धरा के सारे प्रश्नों का एक मात्र समाधान है और यह संस्कृति साम्प्रदायिक नहीं है। यह एक दूसरे को मारने-काटने का उन्माद नहीं एक दूसरे के लिए मर-मिटने की अविराम पुकार है। द्वेष की रक्तिम कीचड़ नहीं प्रेम की दुग्धोज्ज्वल धारा है। राणा हम्मीर क्या मुसलमान वीर की रक्षा के लिए नहीं मर मिटे? राणा संग्राम सिंह ने विदेशियों को खदेड़ भगाने के लिए क्या सिकन्दर लोदी से सन्धि नहीं की। ऋषियों की संस्कृति तो मानव जीवन में देवत्व के अमर वैभव-विपुल क्षमताओं को साकार करने वाली गहन प्रक्रिया है-तभी तो यह देव संस्कृति है।” कहते-कहते राणा का स्वर भर्रा गया उन्होंने एक ओर खड़े सालूमर के सरदार की ओर देखते हुए कहा “सरदार। आज देश और धरती के नाम पर तुम सब से एक भीख चाहता हूँ।”

सालूमर का सरदार समझा नहीं। सब चौंक उठे। “राणाजी ! आज क्या कहते हैं? आप आज्ञा देंगे और हम सब अपना सब कुछ लुटा देने के लिए आतुर न हो उठेंगे।”

नहीं सरदार! राणा ने कहा “मेरे ऊपर भी एक है। वह इस की हवा है जिसके कारण हम सब जीवित है, वह पानी है, जिसे हम सबने बचपन से पिया है इस धरती की धूल है, जिसमें खेलकर हम बड़े हुए हैं। उसी देश के नाम पर मैं आज तुम सबसे वचन माँगता हूँ कि हममें से कोई व्यक्तिगत शौर्य और प्रतिभा के नाम पर अपनी सृजन वाहिनी की शक्ति को क्षीण नहीं करेगा। आज अपने देश के गौरवहीन होने के कारण यहाँ के व्यक्तियों में प्रतिभा क्षमता का अभाव नहीं है बल्कि उस समर्पण के अहं को धूल-धूसरित कर फेंक देने के भाव की कमी है। बोलो तैयार हो अपने व्यक्तिगत भावनाओं क्षमताओं को उद्देश्य की समष्टि में घोल देने के लिए?”

सरदारों के गले भर आये उन सबने रुंधे गले से कहा “तैयार हैं राणाजी, हम सब तैयार हैं।” राणा से लेकर यहाँ का सामान्य भील, महारानी हो, या भील कन्याएँ आज सबकी भाषा एक है। भावनाएँ एक हैं। गति मति एक है। सब का एक स्वर है।

“तो उठाओ-जन्मभूमि की पवित्र माटी जिसके कण-कण का मिलन अपना जीवन है। इसे माथे पर लगाकर ग्रहण करो ऋषि संस्कृति के महायज्ञ में अपना सर्वस्व आहूत करने की शपथ।” कहते हुए राणा चेतक की पीठ से उतर आए। उन्होंने उपस्थित जनसमुदाय को पुनः झकझोरा “शपथ ग्रहण करना पर मेरे लिए नहीं। मेरे पास क्या है? मैं झोंपड़ी में रहता हूँ, पलंग पर नहीं सोता, पहनने को मेरे पास कपड़े नहीं बचे। बची हैं समर्पित कर्म की प्रतीक ये भुजाएँ और दिन रात देश-धर्म संस्कृति के गौरव को सोचने वाला मस्तिष्क यही मेरा सब कुछ है।” एक युवती चिल्लाई “हमें आपका माथा उठा हुआ दीखता रहे, महाराणा जी। हम कभी पीछे नहीं हटेंगे।”

उसकी वह तीखी आवाज गूँज उठी। पास खड़े शक्तिसिंह ने मुड़कर देखा। वह घूँघट हटाए धधकती ज्वाला सी खड़ी थी।

“बहन।” शक्तिसिंह ने गरजते हुए कहा “तू यों ही बोलती रह। महाराणा कभी अकेले नहीं रहेंगे। इनके साथ बलिदानियों की दीवारें खड़ी रहेंगी।”

कथन के साथ हुए भीषण जय-जयकार से वायुमण्डल प्रकम्पित हो उठा।

अपने हाथ में माटी का ढेर सबको वितरित करता हुआ वृद्ध बोल पड़ा “मैं कहता न था तुम से कि एक दिन तुम्हारी पुकारों में अपने आप आग भर जाएगी। देखो वह दिन आज आ गया। मैं कहता न था कि एक आएगा जब इस देश की बहू-बेटियों के बलिदानों की राख में से एक ज्योति सी निकलेगी जो इस तूफान के घेरे में, अँधेरे के थपेड़ों से लड़ेगी वह दिन आज आ गया।”

वृद्ध के स्वर ने राणा को विह्वल कर दिया। उन्होंने आकाश की ओर अपनी दृष्टि उठाते हुए कहा “मातृभूमि! तेरी सन्तान आज फिर उठ रही है। अब तेरे खेतों में अन्न के साथ, सद्विचारों की फसल भी उगने लगी है। आशीर्वाद दे कि हम तेरे गौरव को पुनः प्रतिष्ठित कर सकें।” महाराणा ने माटी बाँट रहे वृद्ध की ओर अपना हाथ बढ़ाया। बूढ़े ने अप्रतिम गौरव के साथ इस अनूठी सौगात को उनके हाथों में रखा। राणा ने उस माटी के सामने अपना गर्वोन्नत भाल झुकाया।

माटी के कण उनके माथे पर जा सके। उनके कण्ठ से गौरवमय स्वर फूट पड़े “जन्मभूमि की पावन माटी की शपथ! इस अनन्त आकाश और विपुल पृथ्वी के बीच में आज सौगंध खाता हूँ कि जब तक देव संस्कृति के गौरव को पुनः प्रतिष्ठित और दिग्दिगन्त तक विस्तृत न कर दूँगा तब तक इसी तरह फटे वस्त्र धारण करूँगा। जब तक इस देश के बालक और दलित भूखे हैं तब तक इसी भाँति पत्तों में अन्न ग्रहण करूँगा । जब तक इस देश के जन जीवन में तृप्ति की मुस्कान वापस नहीं आ जाती तब तक इसी भाँति चुल्लू भर-भरकर पानी पीऊँगा। जब तक यहाँ की नारियों का जीवन उल्लास भरी खिलखिलाहटों की मधुर गूँज से नहीं भर जाता तब तक मैं इसी तरह घास पर सोकर अपनी रातें बिताऊँगा। यह मेरी अटल और ध्रुव प्रतिज्ञा है।”

राणा के स्वरों में अगणित स्वर मिल उठे। सभी के माथे पर पावन माटी के कण चमक रहे थे। प्रचण्ड रव गूँज उठा “लोकनायक राणा प्रताप की जय।” इस जय ध्वनि को चीरते हुए महाराणा ने गर्जन किया “देवसंस्कृति के अमर प्रेरक ऋषि गण मानव जाति के आनन्दोछ्वास के लिए सर्वस्व अर्पित करने वाली पूर्व पुरुषों की हुतात्माएँ देखें आज इस देश के पुत्रों-पुत्रियों ने शपथ ग्रहण की है। वे एक दिन के लिए नहीं, सारे जीवन के लिए साफा और जौहर का व्रत ले रहे हैं।”

इस उद्घोष के साथ ही आकाश के वक्षस्थल में असंख्य उद्वेलन करता भारत की अमर संस्कृति का केसरिया ध्वज फरफरा उठा।


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