संस्कृति की धवल धारा जीवन के कमल खिलते हैं, जिनकी सुवास से धरा स्वर्ग बनती है व उल्लासमय देवत्व विकसित हो उठता है। आज हम जीवन मुरझाया, धरा की सुवास मन्द पड़ी देखते हैं, देवत्व की साँसें रुकी पाते हैं तो उसका एक ही कारण है-संस्कृति की सुरसरि का अवरुद्ध होना आज की कुण्ठित प्रतिभाएँ, लुप्त आत्म विश्वास, धरती पुत्रों द्वारा अपनी ही माता की छाती चीरकर किया जा रहा रक्तपान इसी का परिणाम है। पतन को कँपकँपा देने वाले इस वीभत्स दृश्यों का मात्र एक ही कारण है-ऋषियों की अमर देन का विस्मरण।
विस्मृति से उबारने, अमृत पुत्रों को जीवन बोध कराने हेतु आप से प्रायः अस्सी वर्ष पूर्व ऐ गरिमामय व्यक्तित्व का उदय हुआ, जिन्हें आप हम सभी परम पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के नाम से जानते हैं। विश्वामित्र, भागीरथ, दधीचि, और महाअथर्वण जैसी अगणित ऋषि सत्ताएँ उनमें एकाकार हो उठीं। गायत्री उनकी मेधा बनीं, यज्ञ ने प्रचण्ड पुरुषार्थ का रूप लिया। जीवन की प्रत्येक श्वास सोऽहम् नवोन्मेष के विजय ध्वज का ताना बाना बुनती रही। उनके उत्कट तप की हुंकार सुन अगणित बलिदानियों की संगठित वाहिनी वासन्ती वेश धारण कर देव संस्कृति के पुनरुद्धार हेतु आकुल हो उठी।
विचारक्रान्ति की लाल मशाल प्रज्वलित कर जिनने दुर्बलताओं से ग्रस्त, पतन के गर्त में समाज को विवश, असंख्य अनेक पाँवों को आदर्शों का हिमालय लाँघ जाने का बल दिया। जिनने सामूहिक मन पर गहन प्रयोग कर चेतना के रूपान्तरण द्वारा मनुष्य में देवत्व को जगाने की प्रक्रिया का शुभारंभ किया। सूक्ष्म चेतनलोक में स्पन्दित जिनका महिमामय व्यक्तित्व देवसंस्कृति की विजय और उज्ज्वल भविष्य की वापसी का गान गुँजायमान कर रहा है, ऐसे संस्कृति पुरुष परम पूज्य गुरुदेव के चरणों में उनकी द्वितीय महाप्रयाण तिथि पर उनकी अगणित सन्तानों द्वारा हृदय की असीम भक्ति व अनुरक्ति के साथ संस्कृति अंकों की यह शृंखला समर्पित है।