सा प्रथमा संस्कृति विश्ववारा

June 1992

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हमारी संस्कृति प्राचीनतम है, औरों की बाद में जन्मी, हम विश्व के आदि पुरुष हैं। हमारा धर्म सर्वश्रेष्ठ है तथा हमारा अतीत स्वर्णिम गौरव से भरपूर रहा है। इन सब प्रसंगों पर चर्चा करने से पूर्व इक्कीसवीं सदी के मुहाने पर खड़ा मानव एक प्रश्न का समाधान चाहता है। औद्योगिक, वैज्ञानिक व आर्थिक क्रान्ति से गुजर चुके आज के आधुनिक विश्व को क्या इन सब वाद-विवादों की, तत्त्वदर्शन पर टीका टिप्पणी की, अतीत की समीक्षा व पुनरावलोकन की आवश्यकता है? यदि है तो क्यों? इसका उत्तर दिए बिना संस्कृति पर व उसके बहुविधि पक्षों पर किया गया चिन्तन निरर्थक ही जाएगा। उत्तर मात्र यही है कि आज जितनी अधिक आवश्यकता मानव जाति को इस पक्ष पर चिन्तन करने की है, उतनी संभवतः पहले कभी नहीं, रही। क्यों? आज की परिस्थितियों की एक समीक्षा से यह बात स्पष्ट हो जाती है।

यह सही है कि मनुष्य ने साधनों की दृष्टि से प्रगति की है। आज जो कुछ भी हमारे पास है, संभवतः सुख-सुविधा प्रसन्नता प्रदान करने वाले ये सब साधन हमारे पूर्वजों के पास नहीं थे। विज्ञान का आज जो स्वरूप है, वह अतिविकसित है व इस “सुपर टेक्नोलॉजी से भरे जगत में वह सब कुछ पिछड़ा माना जाता है जो विज्ञान के साधनों उसके तर्कों-प्रमाणों तथ्यों पर आधारित नहीं होता। प्रत्यक्षवाद से भरे मनुष्य के इस विकास ने मनुष्य को कई गुना ऊँचाई पर क्षितिज के पार पहुँचाया है, किन्तु इसे न शान्ति मिली न सन्तोष। भ्रान्तियाँ, उद्वेग, संक्षोभ, बेचैनियाँ इस सीमा तक बढ़ते चले गए हैं कि आज सारी मानव जाति दुखी है, रुग्ण है। उसे आमूलचूल स्वास्थ्यवर्धक रसायन की आवश्यकता है, नहीं तो कभी भी इसके अस्तित्व के समाप्त हो जाने का खतरा सामने खड़ा हुआ है।

यदि सभ्यता का विकास ही सब कुछ है तो मनुष्य इतना सब पढ़ लिखकर, ज्ञान-कौशल की चरमसीमा पर पहुँच कर साधनों को एकत्र कर, संपन्नता का शिखर छू लेने पर भी सभ्य क्यों नहीं बना, अपितु एक बर्बर, असभ्य के रूप में उभरकर सामने आया। अभिनव मनुष्य नितान्त भोगवादी है। इतना संकीर्ण कि अपनी रोटी दूसरों के साथ मिल-बाँटकर भी नहीं खा सकता। उसका बस चले तो अपनी रोटी खाने के साथ वह औरों की भी छीन ले, उन्हें बेचकर उनसे प्राप्त धन से मद्य पी उन्मत्त हो जाए। क्या यही आज का विकसित, सभ्य, सुसंस्कृत मानव है? कैसे इससे सतयुगी उज्ज्वल भविष्य की आशा रखी जाय? आदि मानव अनगढ़-नर−वानर स्तर का था व आज का मानव प्रगति की चरमसीमा पर पहुँचा विकसित मानव है तो वह भोगवादी बनता हुआ चिंतन व आचरण से क्यों पशु को भी पीछे छोड़ता नजर आता है, इसका उत्तर किसी आधुनिक चिंतक-वैज्ञानिक के पास नहीं है। इसका उत्तर तो एक ऋषि ने आज से वर्षों-अगणित सहस्राब्दियों पूर्व उपनिषदों के आलोकपूर्ण काल में मानव की अतिभोगवादी मंत्रणाओं का पूर्वाभास करते हुए दे दिया था व कहा था-तेन त्यक्तेन भुंजीथाः अर्थात् “भोज भी त्याग के साथ करो”। यह है चिरपुरातन व आज की परिस्थितियों के लिए नितान्त सही समाधान जो भारतीय संस्कृति के माध्यम से मानवमात्र को उपलब्ध होता है, जो अध्यात्मवादी भौतिकता की बात कहती है व बताती है कि “साधनों का उपभोग करो पर भावना त्याग की रखो। स्वयं भी जियो, औरों को भी जीने दो।

“संस्कृति” जीवन जीने की एक पद्धति का नाम है जिसका विकास इस धरा पर सर्वप्रथम भारतवर्ष में हुआ, अतः वह भारतीय संस्कृति कहलाई। श्रुति कहती है “सा प्रथमा संस्कृति विश्ववारा”। आदि संस्कृति का जन्म इस परम पावन धरा पर हुआ व उसने विश्व मानवता का मार्गदर्शन तब से ही करना आरंभ कर दिया जब से यहाँ सृष्टि का प्रथम पुरुष जन्मा। सारे शास्त्रीय प्रमाण यही सिद्ध करते हैं कि आदि सृष्टि भारत के उत्तराखण्ड अर्थात् आर्यावर्त में हुई। जिन्हें आर्य कहा जाता है, वे पूर्ण सभ्य, संयमी व सशक्त कोटि के मनुष्य थे जो इस धरा पर जन्मे। अतः यह आर्यावर्त कहलाया। ‘मनु’ के वंशज होने से हम सब मनुष्य कहलाए। वही शब्द “जर्मन भाषा में अपभ्रंश होकर ‘मेनस’ तथा अँग्रेजी भाषा में मैन बन गया। इसी वैवस्वत मनु की कथा का अनुवाद यहूदी धर्मग्रन्थों में जलप्रलय-हजरत नूह की कथा प्रकरण के रूप में बाद में आया। बाइबिल और इस्लाम ग्रन्थों में नूह की सन्तानों हेमेटिक और सेमेटिक से सन्ततियों की उत्पत्ति बतलायी गयी है। हेमेटिक अर्थात् हिरण्यगर्भ यानी सूर्य तथा सेमेटिक यानी सोम-चन्द्र सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी ही संततियाँ ये हैं, जिनका विवेचन हम पाश्चात्य नृपत्व शास्त्रियों की पुस्तकों में पढ़ते हैं। किन्तु यहाँ प्रतिपाद्य विषय है भारतीय संस्कृति जो मानव संस्कृति कहलाई। इसके अति प्राचीन से लेकर आज तक के रूप पर प्रतिपादन थोड़ा आगे होगा, अभी तो यह चर्चा प्रमुख है कि यह मानव संस्कृति कैसे बनी?

भारतीय चिन्तक पद्धति के अनुसार “मनु” शब्द से हम सब मानव कहलाये। मन शब्द भी मनु से बना है। मन अर्थात् इच्छाशक्ति, विचारशक्ति का सामंजस्य जिसमें हो ऐसे मनुष्य का आविर्भाव जब इस धरती पर हुआ तो मानवजाति की उत्पत्ति हुई। इच्छाशक्ति ने “एकोऽहं बहुस्यामि” की संकल्प प्रक्रिया द्वारा सृष्टि को जनम दिया तथा विचार शक्ति के साथ विकसित हुई विशिष्टता से अभिपूरित जीवन शैली संस्कृति कहलाई। सप्तद्वीपा वसुन्धरा में इसका जन्म भारत में हुआ। अतः यह भारतीय संस्कृति कहलाई। मानवी मूल्यों की प्रतिष्ठापना इसका मूल उद्देश्य था अतः यह मानव संस्कृति बनी। चूँकि मानव में देवत्व का उदय हमारी संस्कृति का मूल उद्देश्य था अतः यह देव संस्कृति नाम लेकर विकसित हुई। इसके प्रणेता थे ऋषि। ऋषि वे जो चेतना के सूत्र देते हैं अन्वेषक होते हैं तथा चेतना की काया व ब्रह्माण्ड रूपी प्रयोगशाला में प्रयोग करते रहते हैं। इनके नाम से यह संस्कृति ऋषि संस्कृति कहलाई। इस संस्कृति का केन्द्रीय तत्व था अध्यात्म-मानवी संवेदना। मन की शक्ति द्वारा परिस्थितियों का निर्माण। जीवन को सामंजस्यपूर्ण विधि से सही ढंग से जीना तथा औरों के आगे बढ़ने के लिए भी पथ प्रशस्त करना, अतः यह संस्कृति आध्यात्मिक संस्कृति कहलाई। स्थान विशेष की दृष्टि से यह सिंधुनद से लेकर सागर (कन्याकुमारी) पर्यन्त विस्तृत सिंधुदेश में जन्मी-वही शब्द “हिंदू” नाम से कालान्तर में बोला जाने लगा अतः यह हिन्दू संस्कृति कहलाई।

हिन्दू शब्द कितना असांप्रदायिक है, यह इससे स्पष्ट होता है।

“आसिन्धो सिन्धु पर्यन्ता यस्य भारत भूमिका पितृभः पुण्य भूश्चैव स वै हिंदुरिति स्मृतः।”

अर्थात् “जो इस सिंधुनद से लेकर सागर पर्यन्त विस्तृत भारत भूमि को अपनी पितृभूमि और पुण्य भूमि मानता है, वह हिन्दू है।”

यह सब स्पष्टीकरण इसलिये जरूरी है क्योंकि दुनिया भर की भ्रान्तियाँ इन सब के विषय में काल के प्रवाह के साथ जोड़ दी गयी हैं जबकि मानवतावादी संस्कृति होने के कारण भारतीय संस्कृति आज की समस्याओं का न केवल समाधान है वरन् उसमें अपने वैशिष्ट्य के कारण विश्व संस्कृति-मार्गदर्शक संस्कृति कहे जाने की पात्रता भी है। किसी देशकाल की “सभ्यता” किसी के लिए अहितकारी भी हो सकती है किन्तु “संस्कृति” सर्वदेश, सर्वकाल में सभी के लिए सर्वथा हितकारी होती है। इस परिभाषा की दृष्टि से भारतीय संस्कृति ही इस कसौटी पर खरी सिद्ध उतरती है। संस्कृति और सभ्यता दो अलग-अलग शब्द हैं। सामान्यतया सभी संस्कृति (कल्चर) शब्द को प्रयोग सभ्यता (सिविलाइजेशन) के पर्याय के रूप में करते हैं, जब कि दोनों में मौलिक अंतर है। सभ्यता बहिरंग का तत्व है तो संस्कृति आभ्यन्तरिक। सभ्यता वेशभूषा, रहन-सहन खान पान इत्यादि पक्षों तक ही सीमित है जबकि संस्कृति चिन्तन से लेकर जीवन व्यवहार एवं मानवी संवेदना से लेकर समष्टिगत एकता जैसे पक्षों को स्पर्श करती है। सभ्यता की आसानी से नकल की जा सकती है किन्तु संस्कृति को अपनाना समयसाध्य प्रक्रिया है। संस्कृति वह दृष्टिकोण है, जिससे कोई समुदाय विशेष जीवन की समस्याओं पर दृष्टि विक्षेप करता है। संस्कृति उस समयविशेष का लोक प्रचलन, धर्म, वांग्मय, चित्रकला, मूर्तिकला शाश्वत तत्व ऐसे हैं, जिससे बोध होता है अनगढ़ता को सुगढ़ता में बदलने का। यही आध्यात्म है। इतने बड़े व्यापक अर्थ के परिप्रेक्ष्य में जब चिन्तन किया जाता है तो स्पष्ट समझ में आता है कि जब हम भारतीय संस्कृति की बात करते हैं तो इसके सार्वभौम, सर्वकालीन, सामयिक गुणों के प्रसंग में चर्चा कर रहे हैं, न कि जाति, वर्ण, आश्रम, षोडश संस्कार आदि उसके विभिन्न विभाजनों की परिधि तक सीमित रह कर।

भारतीय संस्कृति देवसंस्कृति कही गयी है अर्थात्-मनुष्य में देवत्व की भावना का संचार करने वाले, उसे देवमानव बना देने वाले सारे तत्व उसमें विद्यमान हैं। तत्त्वदर्शन की प्रधानता होते हुए भी वह विशुद्धतः पारलौकिक नहीं है। उसमें जीवन को स्पर्श करने वाली हर उस दिशा-धारा का समावेश है जो जीवन निर्माण से संबंधित है। चेतनात्मक स्तर पर व्यक्तित्व को अनगढ़ से सुगढ़ बनाने के लिए क्या प्रयोग व प्रयास किये जायँ, इन सबका मार्गदर्शन उसमें विद्यमान है अतः यह अकारण नहीं कि भारत भूमि को "स्वर्गादपि गरीयसी” तथा यहाँ के निवासियों को संसार भर ने “देवमानवों” तैंतीस कोटि देवताओं की संज्ञा दी थी। वस्तुतः ज्ञान और विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में अग्रणी होने के कारण ही राष्ट्र जगद्गुरु-चक्रवर्ती आदि नामों से सम्मानित हुआ।

एक मानसिक संताप की बात यह कि अतीत का गुणगान तो खूब होता रहता है किन्तु इससे निर्देश लेकर वर्तमान को बनाने के प्रयास नहीं होते। नया भारत आज नये विश्व को कुछ दे, इस योग्य नहीं रहा क्योंकि जो स्वयं पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण कर रहा हो, वह दूसरों को क्या देगा? बीसवीं सदी के अंतिम दशक में मानव जाति के अस्तित्व के लिए चिंतित हम सब यदि नये विश्व को सतयुगी जीवन दर्शन देना चाहते हैं तो प्राचीन भारत ही वह सब दे पाने में सक्षम है। सच तो यह है कि भारतीय ज्ञान की महत्वपूर्ण कड़ियाँ इस मणिमुक्तकों के हार की लड़ियाँ नये संसार में स्वतः बिखर चुकी हैं व चारों ओर पूर्वार्द्ध दर्शन-रहस्यवाद अध्यात्मवाद-भारतीय संस्कृति को समझने जानने का प्रयास किया जा रहा है किन्तु इसे विडम्बना ही कहा जाना चाहिए कि अपने देश में इस संबंध में जन-जाग्रति शून्य के बराबर है। संस्कृति के प्रतीक समाप्त होते जा रहे हैं। भारतीय संस्कृति के बताए मार्गदर्शन पर चलना पिछड़ापन माना जाता है। प्रायश्चित यही है कि आज के युग की पीड़ा के समाधान हेतु भारतीय संस्कृति के अग्रदूत आगे आयें व वह तत्त्वज्ञान जन-जन तक पहुँचाएँ, जो बिखराव, विखण्डन, संत्रास, संक्षोभग्रस्त मानवजाति के लिए संजीवनी का काम कर सके।

अगले दिनों सारा विश्व एक कुटुम्ब के रूप में आबद्ध हो, यह नियति है। स्रष्टा ऐसा ही चाहता है व इस पुण्य प्रयोजन के लिए देवसंस्कृति के धारणकर्ताओं को आगे आने देना चाहता है। यह सूक्ष्म जगत से संचालित दैवी सत्ताओं के क्रियाकलाप हैं जो कुछ प्रमाणों द्वारा मानव मात्र के एक सूत्र में आबद्ध होने का संकेत दे रहे हैं। अणु आयुधों के खिलाफ विश्वभर के राजनेताओं का एकजुट हो जाना, समष्टिगत दैवी विपत्तियों के लिए हर राष्ट्र का एक दूसरे की सहायता के लिए आगे आना तथा पृथ्वी के पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने के लिए विश्व मनीषा द्वारा एक साथ बैठकर हल निकालने के प्रयास यह बताते हैं कि महर्षि अरविंद का 21 वीं सदी का अतिमानस निश्चित ही धरती पर उतरने को तत्पर हो चुका है। नोस्ट्राडेमस ने भी विश्व वसुधा के एक हो जाने व भारतीय संस्कृति द्वारा विश्व मानव के मार्गदर्शन की घोषणा अपने दिव्यचक्षुओं से की है। परम पूज्य गुरुदेव ने मानव में देवत्व के अवतरण-मानवी चेतना में आमूलचूल परिवर्तन तथा धरती पर अनुकूल स्वर्गोपम परिस्थितियों के विनिर्मित होने की घोषणा “सतयुग की वापसी” के रूप में इन्हीं दिनों आगामी दस-पन्द्रह वर्षों के भीतर सम्पन्न होने की है। अर्थात् यह सब सुनिश्चित रूप से होना ही है, हम सबको तो चिरपुरातन के गौरव को विज्ञान-सम्मत-तथ्य-सम्मत बनाते हुए उन्हें युगानुकूल ढंग से प्रस्तुत भर करना है।

जैसे भारत ने किसी भी मत-सम्प्रदाय का दमन किये बिना अपने यहाँ धार्मिक एकता स्थापित की सभी मत-मतांतरों को अपने गर्भ में पलने-विकसित होने दिया, जैसे भारत ने किसी भी जाति की विशिष्टता को नष्ट किए बिना उन सभी को एक सूत्र में आबद्ध कर दिया, जैसे भारत ने बिना किसी भाषा की गरिमा घटाए सबको विकसित होने का अवसर देकर संस्कृत को राष्ट्रीय संस्कृति की भाषा बनाकर देश की सभी भाषागत कठिनाइयों का समाधान निकाला, विविधता में भी एकता दर्शाने वाली एक अद्भुत सामाजिक संस्कृति विकसित की, वैसी ही लगभग कुछ उसी प्रकार आज संसार के विभिन्न मत-मतांतरों नस्लों-जातियों विचारणाओं, भाषाओं वाले सभी राष्ट्रों के मध्य एक सोऽहम् क्रान्ति यह राष्ट्र संपन्न करने में सक्षम है। गुस्से व तनाव से भरे विश्वमानव को शान्ति का संदेश देने की सामर्थ्य भारतीय संस्कृति में है, जो सहिष्णु है, उदार है, मानवतावादी है तथा पूर्णतः आध्यात्मिक है।


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