“माँ!” बन्दा चौंक पड़े। उन्होंने बड़ी कठिनाई से वृद्धा को अपने पैरों पर से उठाया। वृद्धा ने रोते हुए कहा “मेरा बेटा मरणासन्न है, आप आशीर्वाद दें, वह अच्छा हो जाय। आपके आशीर्वाद से वह अवश्य रोगमुक्त हो जाएगा।”
“मैं क्या आशीर्वाद दूँगा। मेरे पास न तो कोई सिद्धि है, न तपस्या की शक्ति और न पुण्य।” बन्दा ने समझाने का प्रयत्न किया। कुछ मेरे द्वारा होता भी है तो वह परम पुरुष की कृपा और गुरु की प्रेरणा से। मैं कौन होता हूँ? जिसकी शक्ति कार्य करती है, कार्य के फल उसके।”
“आप एक चुटकी भस्म देदें।” बुढ़िया इस समय उपदेश सुनने समझने की स्थिति में नहीं थी। वह गिड़गिड़ा रही थी।
“जैसी जगदम्बा की आज्ञा!” बन्दा अत्यन्त गम्भीर हो उठे, उन्होंने बुढ़िया को मस्तक झुकाया “आप जगदम्बा ही तो हैं। बच्चे से जो कराना हो, करा लें।” एक साधु की गम्भीरता से बन्दा ने वृद्धा के पैरों के पास से ही एक चुटकी धूल उठाई, उसे मस्तक तक ले गए एक बार नजर आकाश की ओर गई और वह धूल उन्होंने वृद्धा के हाथ में रख दी।
“मेरा बेटा अब जी जायेगा!” बुढ़िया उल्लासपूर्वक उठ खड़ी हुई, उसने नहीं देखा कि बन्दा की आँखें भर आई हैं। भाव बिन्दुओं को रोकने की कोशिश में उन्होंने दूसरी ओर मुँह मोड़ा देखा उनका सहयोगी धीरसिंह खड़ा है। एक पल को अपने को सामान्य करते हुए उन्होंने उसके चेहरे पर नजर टिकाई। इस दृष्टि में प्रश्न की झलक थी। “सूबेदार की सेना आ रही है। बहुत बड़ी सेना है और हमारे साथ इस समय केवल पच्चीस सैनिक हैं।” बन्दा के समीप खड़े सुदृढ़काय, विशालदेह पुरुष ने बन्दा की ओर देखते हुए कहा-आप आज्ञा करें तो हम लोग अब भी पर्वत तक पहुँच सकते हैं।”
“छिः!” “बन्दा के नेत्रों में चमक आयी।” अपने प्राणों के मोह से बैरागी इन ग्रामीणों को भेड़ियों की कृपा पर छोड़कर भाग जायेगा?” बन्दा ने कवच धारण करते हुए कहा।” बन्दा अपने आश्रितों को आततायियों के हाथों छोड़ जाएगा ऐसी आशा तुम उससे नहीं कर सकते।”
सभी जानते थे बन्दा योगी है। गुरु ने अपना तेज दिया है। वे महापुरुष हैं। अकालपुरुष की ज्योति उनमें उतरी है। पर बन्दा अपने को दोनों दलितों का सेवक मानते थे, उनकी वज्रदेह के भीतर फूल सा कोमल हृदय था। जिसमें संवेदनाएँ लबालब भरी थीं, जो किसी की पीड़ा देखकर तड़प उठता था। न जाने कितनों की कराहें बन्दा को बेचैन बनाए रखती थीं।
“धीरसिंह।” अपने घोड़े पर बैठते-बैठते बन्दा ने सहचर को सम्बोधित किया-हमारे पास केवल पच्चीस सैनिक नहीं हैं।” “मैं आपके नाम का प्रताप समझता हूँ।” धीरसिंह ने देखा कि हल पकड़ने वाले हाथ अब भाला-तलवार उठाए हैं। ग्रामीण तरुणों की संख्या बढ़ती जा रही है। वृद्ध तक दौड़े आ रहे हैं।
“प्रताप तो सर्वत्र परमात्मा का!” बन्दा ने किसी अलक्ष्य के प्रति माथा झुकाया “कर्म का प्रयोजन अपनी समूची सामर्थ्य का आदर्श के लिए उत्सर्ग है। काम तो सभी करते हैं धीरसिंह! कोई लोभ या भय के वशीभूत होकर करता है-तो कोई अकाल पुरुष के प्रति भक्ति और अनुरक्ति से विभोर होकर। एक बँधता है दूसरा मुक्त होता है।” अपनी धुन में कहते-कहते कुछ सोचकर बोले “तुम इन नवीन सैनिकों को सँभाल लोगे?”
“जैसी आपकी आज्ञा।” धीरसिंह सभी को व्यूह बद्ध करने लगा। वृक्षों के शिखर ऊँचे टीले गहरे खड्ड सब कहीं वैरागी के सैनिक बैठ चुके थे। थोड़ी देर में दृश्य बदल गया-तीन घण्टे विकट संघर्ष के थे। सेना सूबेदार की ही थी, वे लोग आए थे गाँव के निरीह लोगों को लूटने काफिरों को कत्ल करके गाजी बनाने और हो सके-तो कोई सुन्दर सी लड़की ले जाने। सिर का सौदा करने को उनमें कोई तैयार न था बैरागी से सामना हो जाएगा, यह उन्हें पता होता तो इधर कदम रखने की भूल वे कर नहीं सकते थे।
“वैरागी आ गया।” कयामत उतर आयी उसके साथ! बहुत शीघ्र शत्रु के पैर उखड़ गए। अपने घायलों तक को कराहते छोड़कर वे भागे और भागते चले गए। उन्हें बन्दा नहीं बन्दा का भय खदेड़े जा रहा था। आततायियों को खदेड़ कर वे अपने सदा के नियम के अनुसार पास के घने जंगल में अकेले ध्यान के लिए जाना चाहते थे। धीरसिंह ने आग्रह किया “आपकी कृपा से हमने विजय प्राप्त की। शत्रु से छीनी सामग्री के वितरण का तो आप आदेश दे जायँ।” “आप साक्षात् भगवान है। आपने मेरे पुत्र को जीवित कर दिया।” सहसा वृद्धा गिरी वैरागी के चरणों पर। उसके साथ था उसका पुत्र। दुर्बल होने पर भी उसके चेहरे पर आरोग्य की चमक थी।
“माता परमात्मा को धन्यवाद दो। तुम्हारे पुत्र को दयामय ने अच्छा किया है।” बन्दा वैरागी ने धीरसिंह की ओर मुख किया-और भाई तुम भी। विजय उस प्रभु की हुई और उसी की शक्ति से हुई।”
“फल हुआ वह प्रभु की कृपा उनका प्रसाद।” वैरागी अश्व पर बैठते हुए बोले उसे अपने कर्म का फल मानकर पूरे कर्म का उत्तरदायित्व क्यों सिर पर लेते हो। अपने को कर्म फल का कारण कभी मत बताओ, फल को भगवान पर छोड़ दो। कोई कर्म तुम्हें बाँध नहीं सकेगा।”
वैरागी का अश्व उड़ चला। विजय में प्राप्त श्रेय यश तथा सम्पत्ति वे कभी न लेते थे। पद और प्रतिष्ठ उनके पास फटकने के नाम से काँप उठते थे। वे मुक्त पुरुष.........।