‘हम कहाँ जा रहे हैं? सभी के मन में यही प्रश्न था। उनके मुख सूख गए थे। वे दुर्दान्त, निसर्गतः क्रूर दस्यु जिन्होंने कभी किसी की करुण प्रार्थना एवं आर्त चीत्कार पर दया नहीं दिखाई, आज इस समय बार-बार पुकार रहे थे या खुदा या अल्लाह!
दस्युपोत था वह। उन्होंने रात्रि के अन्धकार में सौराष्ट्र के छोटे ग्राम पर आक्रमण किया। बड़ी निराशा हुई उन्हें। पता नहीं कैसे उनके आक्रमण का अनुमान गाँव वालों ने कर लिया था। पूरा गाँव जनशून्य मिला था उन्हें भवनों के द्वार खुले पड़े थे। न सामग्री हाथ लगी न पशु और न मनुष्य ही। अपनी असफलता के कारण वे चिढ़ उठे।
‘कोई बड़ा मगर आ रहा है!’ एक दस्यु जो पोत पर निरीक्षण के लिए था, दौड़ा आया। ‘मगर’ यह उनका सांकेतिक शब्द था। इसका अर्थ था कि उनके पोत को नष्ट करने में समर्थ कोई युद्ध पोत आ रहा है।
“मगर!” दस्युओं में भय फैला। बड़ी-बड़ी काली दाढ़ी भयंकर नेत्र, यमदूतों सी शकल-सूरत वाले वे किन्तु जो जितना क्रूर है उतना ही डरपोक होता है। समाचार इतना ही था ‘दूर लहरों में एक बड़ी रोशनी इधर आती लगती है।’ परन्तु वे भाग रहे थे।
“फूँक दो ये मकान।” एक ने मशाल उठाई।
‘बेवकूफी मत कर।’ सरदार ने डाँटा इनकी रोशनी समुंदर में दूर तक हम लोगों को रोशन करती रहेगी और जानता नहीं क्या, सोरठी मगर कितने खूँखार होते हैं?’
‘रणछोड़राय की जय! दस्यु जब भागे जा रहे थे, गाँव के बाहर एक झोपड़ी में से उन्हें यह ध्वनि सुनाई पड़ी। रात के अँधेरे में यह झोपड़ी उन्हें दीखी नहीं थी।
‘एक केकड़ा ही सही।’ दो चार एक साथ घुस पड़े झोपड़ी में। केवल एक अधेड़ साधु मिले उनको। साधु की झोंपड़ी में तूबा कौपीन छोड़कर और होना ही क्या था? दस्युओं ने ठोकर मारकर जल का घड़ा लुढ़का दिया पटककर तूँबा फोड़ दिया और साधु को घसीट ले चले। क्रोध के आवेग में और सच कहा जाय तो युद्ध पोत के आ धमकने के भय से वे सोच नहीं सके थे कि इस साधु को वे क्यों लिए जा रहे हैं और उसका क्या करेंगे? वे सबके सब डाँड सम्हाल कर बैठ गए थे। उन्हें युद्ध पोत के आने के पूर्व दूर निकल भागने की जल्दी पड़ी थी।
जलदस्यु समुद्र में मार्ग नहीं भूला करते। पर ‘आसमानी आफत’ का कोई रास्ता उनके पास नहीं था। वे तट से दूर समुद्र में पहुँचे और तूफान की भयंकर हरहराहट उनके कानों में पड़ी। किसी तरह तूफान गुजर जाए यही सबकी चिंता थी। घबराहट की इन धड़कनों के साथ ही रात का अँधेरा अरुणोदय के झुटपुटे में बदल गया। उन सबने देखा कि वे जिसे पकड़ लाए हैं, वह भारतीय साधु हिलते-डुलते पोत में एक तख्ते पर शान्त बैठा था। वह इतना स्थिर इतना शान्त था कि पोत में वह है यह बात ही दस्यु भूल चुके थे। अब वह हिला है और उठकर लहरों से एक चुल्लू पानी लेने की फिराक में है।
साधु को इसकी कोई चिन्ता नहीं जान पड़ती थी कि वह इन यमदूतों के बीच हैं पोत अब भी बुरी तरह उछल रहा है इसकी भी उसे फिक्र नहीं थी । उसके मुख पर न भय के चिन्ह थे और न खेद के। वह एक हाथ से पोत का किनारा पकड़कर दूसरे हाथ से उत्ताल तरंगों में से एक-एक चुल्लू जल लेकर मुख धो रहा था। साधु को समुद्र के जल से आचमन करते देख दस्युओं को कौतूहल हुआ।
साधु ने संध्या की और सागर की लहरों से उठते भगवान भास्कर को अर्घ्य अर्पित किया। पोत में खड़े होना सम्भव न होने के कारण वे बैठकर प्रार्थना करने लगे ‘विश्वानिदेव सवितुर्दुरितानि परासुव..........।’
“यह तो इबादत कर रहा है खुदा की इबादत!” सरदार ने साथियों की ओर देखा।
दूसरा दस्यु चिढ़ उठा “आफ़ताब है इसका खुदा!” और भाला उठाया उसने।
‘तुम मेरे सामने हथियार उठाने की जुर्रत करते हो?’ सरदार चिढ़ उठा, उसके नेत्र जलने लगे। अपनी भारी तलवार उसने खींची “रात को कहाँ था आफ़ताब? वह पूरी रात परस्तिश करता रहा है और कौन जानता है कि खुदा ने उसी की दुआ कुबूल करके हमें बचाया नहीं है?” सरदार आगे बोला, मैं नहीं चाहता कि वह कत्ल किया जाय।” सरदार ने स्वर को नरम करके कहा “कुल घण्टे भर में हम मौत के जजीरे के पास पहुँच रहे हैं। वहाँ इसे उतार देंगे।”
मौत का जजीरे महाद्वीप अफ्रीका के समीप का वह घने वनों से आच्छादित द्वीप। जलपोत उसके तट से दूर ही रहने की कोशिश करते थे। उस पर रहने वाले वन्य मानव इतने भयानक थे कि उनका दर्शन न होना ही ठीक, चुटकी बजाते वह बिल में से चींटियों के समान वन में से ढेर निकल पड़ते हैं। अपनी वृक्ष नौकाएँ वे पाँच-सात हाथों पर उठाए दौड़े आते हैं और समुद्र में एक बार उनकी नौका छूट गई तट के मील भर का क्षेत्र तो उनके लिए भूमि पर दौड़ने जैसा क्षेत्र है। उनके अचूक निशाने उनके हाथ के फेंके भाले लक्ष्य चूकना जानते ही नहीं । आरण्य सुपुष्ट दैत्याकार ये दस्यु भी इन कौपीनधारी, काले रंग के मोटे होठ और रूखे घुँघराले बालों वाले वन्यमानवों से दूर रहने में कुशल मानते हैं।
दस्युपोत महाद्वीप के पास नहीं गया। उपद्वीप से भी दूर घूमता रहा। वह जैसे कुछ प्रतीक्षा कर रहा था। सहसा उस उपद्वीप की हरियाली में हल चल हुई। कुछ आकृतियाँ रेंगती दिखाई पड़ी फिर तो चिचियारी का कोलाहल समुद्र की लहरों पर गूँजने लगा।
“जल्दी फेंक दो इसे। वे आ रहे हैं। पास आ गए तो समझो कयामत आ गई।” दस्यु सरदार ने लहरों के ऊपर दूर तैरती काली-काली नौकाएँ देख ली थी। जैसे बड़े-बड़े मगर मुख फाड़े बढ़े आ रहे हों।
मेहरबान! अब इन लोगों का मेहमान बनना है जनाब को।” दो दस्युओं ने पकड़कर उठाया साधु को और अट्टहास करके फेंक दिया समुद्र में।
‘या खुदा! सरदार ने सिर पर हाथ दे मारा। कई नौकाएँ एक बड़ी लहर के पीछे से ऊपर आयीं एक साथ। अब उन पर खड़े चीत्कार करते वन्यमानव स्पष्ट देखे जा रहे थे। चिल्लाया-सरदार “फुर्ती! उठाओ! मौत दौड़ी आ रही है! मौत!!”
एक दो चार-पचीसों नौकाएँ बढ़ी आ रही थीं। पोत इन नौकाओं के समान शीघ्रगामी कैसे हो सकता है और समुद्र अभी शान्त हुआ नहीं है। दस्यु प्राण पर खेलकर डाँड चला रहे थे।
‘ओह! सबसे आगे की नौका पर खड़े एक काले पुरुष ने हाथ उठाया। उस हाथ के साथ अनेकों हाथ उठे-खट-खट-खट बराबर भाले दस्युओं या पोत पर पड़ने लगे थे। दस्यु लुढ़कने लगे। पोत नौकाओं से घिर गया। भागने की चेष्टा व्यर्थ समझ दस्यु सरदार सागर में कूद पड़ा, इतने वन्य मानवों से युद्ध की बात तो सोची भी नहीं जा सकती।
सरदार जब सचेतन हुआ तब तक परिदृश्य बदल चुका था। उसने देखा कि वही साधु उसके ऊपर झुके कुछ पूछ रहे थे। परन्तु अभी वह कुछ बोल सके, ऐसी दशा में नहीं था। मस्तक में भयंकर पीड़ा हो रही थी, तनिक सिर घुमाकर वह उल्टी करने लगा। पेट में से समुद्र का पानी निकल आने पर उसे कुछ शान्ति मिली।
‘बहुत थोड़ी चोट लगी। सिर चट्टान से टकरा गया लगता है, परन्तु रक्त अब बन्द हो गया है।’ साधु पास बैठे उसका सिर सहला रहे थे।
‘हुजूर की मेहरबानी!’ वह अत्यन्त दीन स्वर में बोला आँखों से आँसू बह चले ‘मुझे हुजूर माफी दें। खुदा के बन्दे हैं हुजूर !” उसे साधु के आत्मीय बर्ताव को देखकर और अपने व्यवहार की याद कर आश्चर्य हो रहा था।
‘उसके आश्चर्य को भाँपते हुए साधु बोले “मेरी संस्कृति ने मुझे प्रेम करना सिखाया है, मुझे यह बताया है कि भगवान सभी में और सभी स्थानों पर है। प्रेम और सेवा उनकी आराधना है।” दस्यु सरदार हतप्रभ हो सुन रहा था। दोनों तट के समीप वृक्ष के पास जा कर बैठ गए। दूर से आवाजें आ रही थीं वन्य मानव अन्य दस्युओं के साथ क्या व्यवहार कर रहे होंगे-यह सोच कर ही सरदार काँप उठा।
“आइए भगवन्!” पेड़ का छाया में बैठे अभी आधा घण्टा भी नहीं हुआ था कि सामने की झाड़ी से दो नेत्र चमक उठे। दस्यु का चेहरा भय से पीला पड़ गया। पर साधु ने तो उसे ऐसे बुलाया जैसे किसी सामान्य अतिथि का बुला रहा हो।
सचमुच झाड़ी में से सिंह निकला और साधु के पास आकर बैठ गया। उसने अपना मुख उनके पैरों पर रख दिया। एक पालतू कुत्ते के समान अपनी पूँछ हिला रहा था और उसकी आँखें अधमुँदी हो रही थीं।
“हुजूर करिश्मा कर सकते हैं हुजूर आफ़ताब
की इबादत करते थे और अब शेर को खुदा कह रहे हैं।” दस्यु की समझ में कुछ नहीं आया था, पर उसका भय दूर हो गया था।
“तो आप समझते हैं कि खुदा हर जगह और हर वस्तु में नहीं है?” साधु ने देखा दस्यु की ओर।
‘वे आ गए उनमें भी खुदा।” दस्यु का स्वर भय से बन्द हो गया। झाड़ियों के पीछे कुछ काली आकृतियाँ उसने देख ली थीं जो इधर-उधर हिल रही थीं। पता नहीं क्या हुआ एक चिचियारी गूँजी और शान्ति फैल गई। कुछ क्षण ऐसा लगा कि वन्य मानवों को समूह घने वन में लताओं के पीछे जमा हो रहा है और तब तीन-चार व्यक्ति धीरे-धीरे एक ओर से बाहर आये।
कुछ पुकार कर कहा उन लोगों ने एक साथ पूरी भीड़ वन के पीछे से निकल आयी वन्य मानव भूमि पर लेटकर साधु को प्रणाम करते थे।
“वे कहते हैं कि आप वन के देवता हैं या उनके दूत?” दस्यु ने होंठ हिलाकर बिना शब्द किये एक वृद्ध से संकेत की भाषा में बातें प्रारम्भ कर दीं।
“देवताओं का आराधक!” साधु का उत्तर सुनकर वे वन्य मानव नृत्य करने लगे। सिंह की उपस्थिति वे भूल ही गए। उन्होंने साधु से प्रार्थना की कि वे उनके ग्राम को पधारकर पवित्र करें। साधु ने वहीं निश्चय किया कि वे वहीं रुककर इन्हें सुसंस्कृत बनाएँगे। दस्यु सरदार ने हतप्रभ होकर पूछा?” साधु हँसकर बोले “भारत की संस्कृति की यही विशेषता है इसका शिक्षण तलवार और अधिकार से नहीं प्रेम और आत्मीयता के भाव स्पन्दनों से होता है। व्यक्तित्व की समर्थ भाषा से ही इसकी अभिव्यक्ति सम्भव है।”
भगवान मनु के आदेश “स्वे स्वे आचरण शिक्षण को अपने जीवन काव्य से ध्वनित करने वाले मेधातिथि नामक इन साधु को जिक्र नृपत्व विज्ञानी डारेल हफ ने अपने ग्रन्थ ‘एन एन्थ्रोपोलिजकल अप्रोच टू काँगों में मेडागाफ्र नाम से किया है। श्री हफ के अनुसार काँगो कबीलों की सूर्य उपासना का अपभ्रंश स्वरूप भी इन्हीं भारतीय साधु की देन है।