ईश्वर का अवतार, क्या, क्यों व कैसे?

June 1992

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विज्ञान की प्रत्यक्षवादी दृष्टि तो यह कहती है कि यह ब्रह्माण्ड क्रमशः फूलता-फलता जा रहा है तथा एक दिन महाप्रलय के साथ यह नष्ट हो जाएगा। समसामयिक परिस्थितियों पर भी जैसा विज्ञान का चिन्तन रहा है, वह वही है जो उपकरणों द्वारा शिक्षण-विवेचन की परिधि में आता हो। आर्ष-वांग्मय व्यष्टिगत समष्टिगत जीवन पर एक परिपूर्ण दृष्टि काल से परे डालता है व हो रहे घटनाक्रमों, संभावित भवितव्यताओं का मूलकारण समझाने का प्रयास करता है। सृष्टि की उलट-पुलट से लेकर एक अप्रत्याशित परिवर्तन जिसमें सारा वर्तमान ढाँचा बदल जाने की बात कही जाती है, पूर्णतः तथ्यों पर आधारित है तथा यही देव संस्कृति का प्राण है। भारतीय संस्कृति कहती है कि विश्व इतिहास में संकट की घड़ियाँ अनेक बार आती रही हैं, जिनमें विश्वमानवता पर विनाश के घटाटोप बादल छाये ही नहीं, भयानक रूप से गरजे और सब कुछ डूबा देने की चुनौती देकर मूसलाधार बरसे हैं। यह सब होते हुए भी स्रष्टा की सृजन क्षमता व उसकी न्यायक्षमता पर मनुष्य को, जीवन को विश्वास है। वह जानता है कि स्रष्टा अपनी इस अद्भुत कलाकृति विश्ववसुधा को मानवी सत्ता को सुरम्य वाटिका को विनाश के गर्त में गिरने से पूर्व ही बचाने की सक्रियता दिखाता व परिस्थितियों को उलटने का चमत्कार उत्पन्न करता है। यही अवतार है। असामान्य स्तर की विश्व मानवता पर छाई विपन्नताओं से निपटना उसी के बस की बात है।

भारतीय संस्कृति की अवतार मूलक अवधारणा बड़ी वैशिष्ट्यपूर्ण है, साथ ही मनोविज्ञान की दृष्टि से निराश की स्थिति में प्रेरणा देने वाली आशा का संचार करने वाली। अन्यान्य धर्म-संप्रदाय संस्कृतियों में भी अवतार, पैगम्बर, फरिश्ते का आना, दैवी वाक्यों या निर्देशों का धरती पर उतरना आदि घटनाक्रमों का विवरण हैं पर यह सब है चमत्कारिक परिप्रेक्ष्य में। यदि अद्भुत चमत्कारों से ही अवतार काम करते हों तो इससे परमेश्वर की सत्ता के भूमि पर अवतरण का उद्देश्य पूरा नहीं होता। योगीराज अरविन्द कहते हैं कि “अवतार ऐंद्रजालिक जादूगर बनकर नहीं आते, प्रत्युत मनुष्य जाति के भागवत नेता और भागवत मनुष्य के एक दृष्टान्त बनकर आते है।”

अवतार का अवतरण प्रक्रिया देव संस्कृति में सृष्टि की एक व्यवस्था के उपक्रम के रूप में वर्णित की गयी है। सृष्टि में सृजन और उत्थान के तत्व प्रधान हैं। तब भी वह स्थिति न तो स्थिर है, न निर्वाधगति से चलने वाली है। उत्पादन चक्र चलते रहने के लिए आवश्यक है कि उत्थान के बाद पतन और पतन के बाद उत्थान का क्रम जारी रहे। सूर्य का उदय-अस्त होना, प्राणियों का जन्म−मरण इस सुनिश्चित तथ्य की सुनिश्चित साक्षी देते हैं। सृष्टि में पतन और पराभव के तत्व सुव्यवस्था और सुन्दरता के साथ काम करते रहते हैं और प्राणियों को अधिक जागरूक रहने की सतत् प्रेरणा देते रहते हैं। जीवन प्रवाह का एक सिरा है जन्म, दूसरा मरण। गतिचक्र इसी प्रकार बनता है। विस्तार सतत् चलता रहे उतना स्थान इस ब्रह्माण्ड में नहीं है। इसलिए वह चक्रगति से चलने के लिए परिभ्रमण हेतु बाधित किया गया है। पहिये पहले नीचे जाते हैं, फिर ऊपर उठते हैं। सृष्टिक्रम में भी यही होता है। शैशव, किशोरावस्था, यौवन का क्रम पूरा होते-होते जरा-जीर्णता का ढलान आरंभ हो जाता है और अंततः मरण के अतिरिक्त और कोई समाधान नहीं रह जाता। हिन्दू अध्यात्म की मान्यतानुसार यह मरण भी अंतिम नहीं है। समापन के दिन से ही नवजीवन की भूमिका आरंभ हो जाती है। कायसत्ता की तरह विश्वसत्ता में भी औचित्य की संवर्द्धन और अनौचित्य का उन्मूलन क्रम रथ के दो पहियों की तरह सहयोग पूर्वक चलता रहता है। असंतुलन जब उत्पन्न होता है, जब सृजन के तत्व दुर्बल पड़ जाते हैं, निकृष्टता की विनाशलीला जब स्वच्छन्द होती दिखाई पड़ती है, जब आतंक की तमिस्रा धनी होती दिखाई देती है और निराशा भरी परिस्थितियाँ मानवी पुरुषार्थ को हतप्रभ कर देती हैं, ऐसे ही अवसरों पर स्रष्टा का वह आश्वासन अवतरित होता है, जिससे उसने अपने सुरम्य उद्यान को विनाश के गर्त में गिरने से पूर्व ही बचाते रहने का सुनिश्चित विश्वास दिलाया है। यही अवतार का प्रादुर्भाव है।

यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यह्म॥ 7 ॥

परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे 8 ॥

गीताकार द्वारा चौथे अध्याय में की गयी यह प्रतिज्ञा भगवत्सत्ता की मात्र अर्जुन के समक्ष ही प्रकट की गयी है, यह बात नहीं, वरन् इस आश्वासन का शास्त्रों और आप्तवचनों में अनादिकाल से अनवरत उल्लेख होता रहा है। न केवल उल्लेख वरन् उसके प्रकटीकरण के प्रमाण भी समय-समय पर उपलब्ध होते रहे हैं। मानवी पौरुष जब भी जहाँ भी लड़खड़ाता है, वहाँ गिरने के पूर्व ही सृजेता के लम्बे हाथ असंतुलन का संतुलन में बदलने के लिए अपना चमत्कार प्रस्तुत करते दिखाई देते हैं, यही स्रष्टा का लीला अवतरण प्रकटीकरण। सभी अवसरों पर एक ही प्रयोजन रहा है उस परम सत्ता का, अधर्म का उन्मूलन और धर्म का संस्थापन।

गीता के इस श्लोक में बड़ा अद्भुत रहस्य छिपा पड़ा है जो चौथे अध्याय में परमसत्ता के भाव से श्रीकृष्ण द्वारा अपने ईश्वरभाव का उद्घाटन करते हुए प्रकट हुआ है। स्वयं अलौकिक होते हुए भी इस लौकिक भूमिका में अपने अवतरण का वे हेतु बताते हैं। उपरोक्त श्लोकों में एक शब्द आया है “संभवामि”। श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे सृष्टि के आदि कारण हैं, स्वामी हैं, विश्व के प्रभु-स्वयं विश्वातीत हैं, विश्वमय हैं, सर्वेश्वर हैं तब भी वे अपनी प्रकृति को अधिष्ठान बनाकर, उसे अपने संकल्प के अधीन रखकर व्यक्ति भावापन्न हो जाते हैं। देखा जाय तो संपूर्ण सृष्टि प्रकृति की सभी घटनाएँ परमेश्वर की ही अभिव्यक्ति हैं किन्तु किसी को भी इस सत्य का जाग्रत अनुभव नहीं होता। यही प्रकृति जब विशेष भागवत संकल्प के अधीन सजग होकर सक्रिय हो जाती है, तब किसी विशेष देह-प्राण मन-बुद्धि संयुक्त व्यक्तित्व में भागवत अवतरण सचेतन होता है, आत्मचेतन होता है और यही पर्सोनीफाइड चेतना अवतार की संज्ञा पाती है।

योगीराज श्री अरविन्द ने अपने “गीता प्रबन्ध” में लिखा है कि “अवतार का प्रयोजन गीता की ही अपनी भाषा में तो है साधुजन का परित्राण, दुष्कर्मियों का विनाश तथा धर्म की संस्थापना, किन्तु यह मात्र इतना नहीं है। धर्म संस्थापन का कार्य तो कोई भी उच्चस्तरीय चेतनसत्ता कर सकती है। यह कोई इतना बड़ा और पर्याप्त कारण नहीं है कि राम, कृष्ण, बुद्ध या ईसा को उतरकर नीचे आना पड़े। अवतार का जन्म भी दिव्य होता है, कर्म भी दिव्य होता है, यह घोषणा स्वयं श्रीकृष्ण (जन्म कर्म च में दिव्यम्) गीता में करते हैं और इस तथ्य का असाधारण महत्व घोषित करते हैं कि जो कोई व्यक्ति उनके जन्म और कर्म की दिव्यता को तत्त्वतः जान लेता है, वह पुनर्जन्म की बाध्यता से मुक्त होकर भगवत् प्राप्ति की स्थिति को पहुँच जाता है। जब जन्म व कर्म दिव्य हैं तो वह प्रयोजन भी, जिसके लिये वह अवतरित होते हैं एक ऐसा दिव्य प्रयोजन होना चाहिए, जिसे पूरा करना मानवी सामर्थ्य के बाहर की बात हो।”

यहाँ यह बात ठीक से समझनी होगी। धर्म की स्थापना व अधर्म का विनाश तो विशुद्धतः एक समाज सुधार का कार्य है। मात्र इतने से के लिए भगवान इस धरती पर आएँ यह सर्वथा अनावश्यक प्रतीत होता है। भगवान मानवीय भूमिका में उतरते हैं दिव्य सामर्थ्य के साथ, दिव्य ज्योति और शक्ति के साथ, दिव्य प्रयोजन से दिव्य कार्य करने के लिए, ऐसा कुछ करने के लिए जिसे मनुष्य न कर पाए किन्तु जिससे मनुष्य एक दिव्य आदर्श और सत्प्रेरणा ग्रहण कर सके। (श्रीअरविन्द के आलोक में “गीता का दिव्य सन्देश” अरविन्द आश्रम पाण्डिचेरी से प्रकाशित से उद्धत)।

दिव्य जन्म जब भगवत्सत्ता का होता है तो उसके दो पहलू होते हैं-एक है अवतरण दूसरा आरोहण अवतरण अर्थात् मानवजाति में भगवान का जन्म लेना, मानव आकृति और प्रकृति में भगवान का प्रकटीकरण। यही सनातन अवतार है। दूसरा है आरोहण अर्थात् भगवान के भाव में मनुष्य का जन्म ग्रहण करना। भागवत प्रकृति और भगवत् चेतना की दिशा में उसका उत्थान। (मद्भावमागताः) यह जीव का नव जन्म है। द्वितीय जन्म है। भगवान का अवतार व धर्म की संस्थापना का कार्य इस नव जन्म के लिए होता है गीता अवतारवाद की बड़ी गहराई में जाकर हमें समझाती है कि कोई ऐतिहासिक पौराणिक अतिमानव मात्र कल्पना के जोर से भगवान नहीं बन जाता है। अवतार एक मत विशेष की प्रचलित मान्यता भर नहीं, अपितु इसके अवतरण व आरोहण वाले दो पहलू यह बताते हैं कि एक विराट उद्देश्य के लिए, भगवत् प्राप्ति को मनुष्य मात्र के लिए सुलभ बना देने के लिए, भागवत् जीवन के लिए मनुष्य को प्रेरित करने हेतु दिव्य ज्ञान व दिव्य कर्मों के आदर्शों को स्थापित करने के लिए दिव्य चेतना अवतरित होती है। उसका लक्ष्य है मानव में देवत्व का जागरण मानवी स्वभाव में निहित नित्य अभीप्सा का जागरण उसे दिव्य आदर्शों के प्रति उन्मुख बना देना। तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गमय, मृत्योर्माऽमृतं गमय के रूप में यह तीन लक्ष्य मानवमात्र के हैं। यही है मनुष्य का सनातन धर्म, जिसमें वैश्वप्राण वैश्वचेतना वैश्वप्रकृति संयोजिका और सहायिका बनी हुई है। इस नैसर्गिक प्रक्रिया में अवरोध अर्थात् धर्म की ग्लानि व अधर्म का उत्थान व इसलिए सर्वसमर्थ भगवत्सत्ता का आगमन, अवतार का इस तरह वास्तविक प्रयोजन हुआ मनुष्य में दिव्योन्मुखी प्रवृत्ति का पुनर्जागरण और यह आश्वासन कि भगवान की कृपामयी सहायता सबको सदैव उपलब्ध है और भागवत् जीवन की उपलब्धि नित्य सबके लिए सतत् संभव है।

अवतार हमें दिखाई क्यों नहीं देता, समझ में क्यों नहीं आता? भगवान इसे बड़ा स्पष्ट करते हुए अपने निष्काम कर्म का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि मानव शरीर में जो श्रीकृष्ण हैं और परमेश्वर रूपी श्री कृष्ण हैं ये दोनों उन्हीं भगवान् पुरुषोत्तम के ही प्रकाश हैं। वहाँ वे अपनी सत्ता में प्रकट हो रहे हैं, यहाँ मानवाकार में। किन्तु वे आगे कहते हैं-मेरे परमभाव को न जानने वाले मूढ़ लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझे तिरष्कृत करते हैं, क्योंकि वे मेरे सर्वलोक महेश्वर परमभाव को नहीं समझते (मुझ परमेश्वर को भी साधारण मनुष्य मात्र मानते हैं)” श्लोक 9 अध्याय 11 में यह बात स्पष्ट हुई है-अब जानन्ति माँ मूढ़ा मानुषीं तनुमाश्रितम्। परं भावम् जानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥ कितनी स्पष्ट “अवतार” की व्याख्या है। इस रहस्य को जाने बिना अवतार को पहचानना तो दूर उसके आगमन का हेतु व स्वयं की भूमिका भी व्यक्ति नहीं जान पाता। यही अद्वैत दर्शन की वेदान्त की व्याख्या है कि “सब कुछ ईश्वर में है और उसी में सब कुछ होता रहता है। प्रत्येक प्राणी में छद्मवेश में नारायण हैं।” बुद्धिवादी का कोई तर्क अवतारवाद के विरुद्ध टिक नहीं सकता इतना सशक्त देव संस्कृति का यह प्रतिपादन है। संस्कृति चिन्तन यह कहता है भगवान जब भी अवतार लेकर आते हैं तो मानव और अपने बीच के परदे को फाड़ने के लिए आते हैं। उस परदे को, जिस अपनी प्रकृति में सीमित मनुष्य उठा तक नहीं पाता।

‘अवतार’ शब्द का अर्थ है उतरना अवतरित होना। भगवान का उस विभाजन रेखा से नीचे उतर आना जो भगवान को मानव जगत या मानव अवस्था से पृथक् करती है। हम अपने सामान्य मानवता के अज्ञान और अविद्या से ऊपर उठ सीमा पार कर लें तो अवतार को जानने योग्य हो जाते हैं, यह भगवान का स्पष्ट संकेत है। इस तरह अवतार का आगमन एक प्रकार से मानवमात्र की सहायता के लिए, आस्था संकट की वेला में मानव जाति को एक साथ रखने के लिए, अधोगामी प्रवृत्तियों को चूर्ण विचूर्ण करने के लिए, मनुष्य के अंदर की भगवन्मुखी चेतना को जगाने के लिए व सत्प्रवृत्तियों की स्थापना के लिए तथा अशुभ सत्ताओं के विनाश के लिए होता है। यह क्रम अनादि काल से चलता चला आया है। भूतकाल में विश्व अनेक भागों में बिखरा हुआ था। एक दुनिया छोटी-छोटी कई दुनियाओं में बँटी थी। अतः विषमताएँ भी क्षेत्र विशेष की, स्थानीय परिस्थितियों की होती थीं क्षेत्रीय “अवतारों” के इसी कारण सीमित लक्ष्य रहते थे। भारतवर्ष में ही हिन्दूधर्म में 24 अवतार गिनाये जाते हैं। जैनधर्म में 24 तीर्थंकरों की चर्चा होती है। सिखधर्म में दस गुरुओं का वर्णन है ईसाई, मुस्लिम, पारसी, यहूदी आदि धर्मावलम्बी भी अपने अवतारों की गणना हिन्दूधर्म से अलग करते हैं। दर्शन विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ अर्जित करने वालों को भी मसीहा-अवतार संज्ञा दी जाती रही है। अवतार वस्तुतः व्यक्ति का नहीं चेतना का होता है, यह बात अच्छी तरह समझनी होगी। अंशावतार, कलावतार, भक्तवतार, चेतनावतार सिद्धावतार, आवेशावतार, इस प्रकार कई-कई भेदों से विस्तृत व्याख्या कर मानव को अवतार सिद्ध की जाने की कोशिश की जाती है, उस पर परम पूज्य गुरुदेव ने बड़ा स्पष्ट चिंतन देते हुए कहा है कि यदि व्यक्ति को अवतार मानना हो तो मात्र धर्म क्षेत्र की विभूति नहीं सृष्टि के संतुलन में सहायक हर महान सत्ता को उसी क्षेत्र में गिनना पड़ेगा ।

ऐसे व्यक्तियों की, जो परब्रह्म की अवतार सत्ता के साथ युग संतुलन संभालने सुधारने इस धरती पर आते हैं। तीन श्रेणियाँ पूज्यवर ने बतायी हैं। संत, सुधारक और शहीद। इन्हें छोटे बड़े अवतार कहा जा सकता है। संत अपनी सज्जनता से मानव जीवन की गरिमा के अनुरूप जीवन जीते हुए आदर्शवादिता को जीवन में उतारते हुए जनमानस का मार्गदर्शन करते हैं। प्रतिकूलताओं के बीच भी जीवन निर्वाह संभव है, मनःस्थिति से परिस्थिति बदल जा सकती है, निराशा की अनास्था को उलटकर आस्था की ज्योति जलाना संभव है, यह शिक्षण संत अपनी जीवनचर्या से देते हैं। वे पृथ्वी के देवता कहलाते हैं।

संतों से ऊँचा स्तर है सुधारक का। सुधारक वह जो आत्मनिर्माण भी करे, व दूसरों का सुधार भी करें। ऐसे व्यक्ति में अधिक प्राणशक्ति की आवश्यकता पड़ती है। संत का ब्राह्मण होना पर्याप्त है किन्तु सुधारक को दो मोर्चे एक साथ सँभालने होते हैं उनके एक हाथ में शास्त्र और दूसरे में शस्त्र रहता है। व्यापक परिवर्तन इससे कम में संभव नहीं। परशुराम द्रोणाचार्य, बन्दा वैरागी, गुरुगोविन्द सिंह जैसों की गणना इनमें होती है। अवतार का तीसरा चरण है शहीद का। शहीद कौन? वह जो ‘स्व’ का अहंता ‘पे’ ‘पर’ के लिए सम्पूर्ण करके। यही समर्पण है शरणागति है। स्वार्थ को परमार्थ में उत्सर्ग है। जान गवाँ देने वाली शहादत एकाँगी परिभाषा बताती है। बलिदानियों की वहाँ अवमानना नहीं की जा रही है वरन् ‘शहीद’ शब्द का व्यापक अर्थ जो परम पूज्य गुरुदेव ने बताया है, वह है संकीर्ण स्वार्थ परता का अंत करके परमार्थ को ही महत्वाकांक्षाओं का केन्द्र बना लेना। यह मानसिक शहादत है। संस्कृति, राष्ट्र धर्म के प्रति समर्पित ऐसे व्यक्ति तत्कालीन समाज को ऊँचा उठाते हैं व धर्मधारणा जिंदा रखते हैं जीवनमुक्त ऋषि के रूप में शहीद शब्द की व्याख्या सही सही हो जाती है। शहीद तो मरने के उपरान्त उथल−पुथल पैदा करते हैं किन्तु ऋषियों की चेतना हर क्षण स्वर्गोपम श्रद्धा संवेदना का संचार जन-जन में करती रहती है।

ऊपर बताये तीनों स्तर जनसाधारण में तब अवतरित होने लगते हैं जब गीता में दिये अपने वचनानुसार परमसत्ता इस धरती पर आती है। रामकाल के रीछ वानर, कोल, भील, गिद्ध-गिलहरी तथा कृष्णकाल के पाण्डव, ग्वाल-बाल इसी तथ्य के परिचायक हैं कि अवतार के साथ-साथ चेतना के विकसित रूप भिन्न-भिन्न जीवों में आवेश के रूप में अवतरित होते हैं व उनके शरीर से परमसत्ता वह करा लेती है जो उसे अभीष्ट है। आर्ष वांग्मय के अनुसार पिछले सभी अवतारों पर दृष्टि डालें तो हमें ज्ञात होता है कि समय की आवश्यकता के अनुसार अपने स्वरूप व कार्य क्षेत्र को विनिर्मित करने अवतार आए हैं। जब-जब जिस प्रकार का असंतुलन पैदा हुआ है तब तब प्रभु का वैसा लीला उपक्रम बना है।

सृष्टि के आदि जल ही जल था व सभी जीव जलचर प्रधान थे, तब उस क्षेत्र की अव्यवस्था को मत्स्यावतार ने सँभाला था। मानव बीज की रक्षा कर सृष्टि को बनाए रखने का दायित्व इस अवतार ने संभाला। जल व थल पर जब छोटे प्राणियों की हलचलें बढ़ी तो कच्छप काया लेकर उन्हें आना पड़ा। समुद्र मंथन का पुरुषार्थ इन्हीं के माध्यम से संभव हुआ। हिरण्याक्ष द्वारा जल में पायी संपदा को ढूँढ़ निकालने के लिए वाराह रूप ही संभव हो सकता था। वहीं धारण किया गया नरसिंह की आवश्यकता तब पड़ी जब हिरण्यकश्यपु के रूप में उद्धत आचरण करने वाला असुर सामने आया भगवान ने उन दिनों की परिस्थितियों के अनुरूप नर और व्याघ्र का समन्वय आवश्यक समझते हुए सज्जनता का संरक्षण किया।

अनुदार बलि में सम्पदा का सदुपयोग करने की उदारता अपनाने की गुंजाइश देखकर ही प्रभु ने वामन रूप बनाया व समझा बुझाकर ही वह प्रयोजन पूर्ण कर लिया जो करने पर हो सकता था। सामन्तवादी आधिपत्य को परशुराम ने शत्रुबल से निरस्त किया। श्रीराम ने मर्यादा पालन, रावण व लंका के रूप में अनीति दमन, रामराज्य संस्थापन का कार्य किया श्रीकृष्ण ने छद्म से घिरी परिस्थितियों का शमन करने के लिए कूटनीतिक दूरदर्शिता को अपनाया तथा एक विशाल भारत बनाने की दूरगामी योजना बनायी। धर्म की आड़ में लोक व्यवस्था जब गड़बड़ाने लगी तो बुद्ध ने विवेक की सज्जनों के संगठन की आवश्यकता बताई तथा धर्म चक्र प्रवर्तन द्वारा देव संस्कृति का तत्त्वज्ञान घर-घर पहुँचाया। यह विगत नौ अवतारों की जो पौराणिक मान्यतानुसार हैं, संक्षिप्त चर्चा हुई।

आज का समय भी वैसा ही है, जो परशुराम से बुद्ध तक के समय में था। दशम अवतार कल्कि अवतार है। इसे परम पूज्य गुरुदेव ने प्रज्ञावतार कहा है व बुद्धावतार के उत्तरार्ध के रूप में निरूपित किया है। बुद्धि प्रधान युग की समस्याओं का निवारण विचार क्रान्ति द्वारा चेतना जगत में ही होगा, ऐसी सबकी मान्यता है। पूज्यवर कहते हैं कि आदर्शवादी दुस्साहस ही अवतार है। वह एक भावनात्मक प्रवाह के रूप में अगणित व्यक्तियों की चेतना में उभरता है और असंख्यों को अनुप्राणित करता है। गाँधी युग में सत्याग्रही थोड़े से थे किन्तु अवतार चेतना ने उनसे कार्य कराया। निहत्थे असहयोग करने वालों ने महाशक्ति से टक्कर ली व अनुकूलताएँ उपस्थित होती चली गयीं। व्यक्ति का पुरुषार्थ नहीं, इसमें सूक्ष्म जगत में कहने वाली प्रचण्ड शक्तिधारा का प्रवाह मुख्य था जिसका उद्गम ऋषि संस्कृति का अनादि केन्द्र हिमालय था। रामकृष्ण परमहंस से लेकर रमण महर्षि, विवेकानन्द, योगीराज श्री अरविन्द एवं परम पूज्य गुरुदेव जिसके माध्यम थे।

अब जो अवतार जन्म लेने जा रहा है वह दार्शनिक स्तर पर ऋतम्भरा प्रज्ञा की प्रसंग भरी हलचल के रूप में समझा जा सकता है। युग परिवर्तन यह दशमावतार कल्कि अवतार, प्रज्ञावतार ही करेगा, ऐसी ऋषियों की, द्रष्ट मनीषियों, की भविष्य वक्ताओं की मान्यता है व हम आप सभी इस प्रक्रिया में एक निमित्त बनकर श्रेयार्थी बनने जा रहे हैं, देव संस्कृति के निर्धारण उसका माध्यम बनने जा रहे हैं व भारतवर्ष उसकी धुरी बन रहा है, इससे बढ़कर सौभाग्य की बात और क्या हो सकती है?


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