सृष्टि का प्रथम मानव आर्यावर्त में जन्मा

June 1992

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छान्दोग्योपनिषद् में एक कथा आती है। “इन्द्र तथा विरोचन दोनों ज्ञान प्राप्ति के लिए स्रष्टा के पास गए। दोनों आत्मतत्त्व जानना चाहते थे। ब्रह्माजी ने कहा दोनों सज-धजकर अपना प्रतिबिम्ब जल में देखो। जो जल में दिखाई पड़े, वही आत्मा है। विरोचन संतुष्ट होकर लौट आए। उनने शरीर को सजा-धजा व अपनी मुखाकृति देखी उसी से उन्हें संतोष मिल गया। किन्तु इन्द्र ने बारम्बार मनन किया-आत्म चिन्तन किया। पुनः बार-बार लौटकर प्रजा पिता ब्रह्मा से प्रश्न किया। उन्हें समाधान मिला कि शरीर नहीं यह स्थूल काया नहीं, वरन् आत्मसत्ता ही परमसत्य है। सजाना-सँवारना उसे चाहिए। उन्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई। विरोचन ने लौटकर देहात्मवाद का प्रचार किया। उनने प्रतिपादन किया कि देह ही आत्मा है। इसी की सेवा-शृंगार साधना की जानी चाहिए। मरने पर शरीर को सुरक्षित सुसज्जित किया जाना चाहिए। प्रलय तक आत्मा उसी में रहती है। जब अंततः सृष्टि प्रलय के समय नष्ट होगी तब कर्मों का निर्णय होगा। जबकि इन्द्र ने आत्मसत्ता के उत्कर्ष का प्रतिपादन किया व इसके लिए मानवधर्म का निर्धारण किया। साधना पद्धतियों बनीं जिनमें भोगों से त्याग की प्रधानता थी।” यह कथा कितनी सत्य है, यह ज्ञात नहीं पर इस अलंकारिक प्रतिपादन से एक सत्य उभर कर आता है कि दो प्रकार की जातियाँ उपनिषद् कालीन समाज में थीं। एक आर्य, जिसके प्रतिनिधि थे इन्द्र देवसत्ताओं के प्रतिनिधि, संस्कारी पुरुष। दूसरी दस्यु जातियाँ अथवा अनार्य जातियाँ। इन्हीं को सुर व असुर कहा गया। सुर वे जिनने भारत को अपनी कर्मभूमि बनाया तथा असुर वे जिनमें धर्मधारणा के प्रति प्रमाद था, देहसुख जिन्हें अधिक प्रिय था। विरोचन इन्हीं सत्ताओं का प्रतीक है व इन्हें देहात्मवाद के संस्कारों के साथ आर्यावर्त से बहिष्कृत कर दिया गया। इनने ही शवों को ‘ममी’ की तरह सुरक्षित रखने का प्रावधान बनाया जिसमें राजा-प्रजा सभी को एक साथ सजा-धजा कर दफना दिया जाता था।

यह कथा मनोरंजन हेतु नहीं, आदि संस्कृति भारतीय संस्कृति के विकास के विभिन्न आयामों को समझाने हेतु प्रस्तुत की गयी है। वस्तुतः प्रथम मानव इस क्षेत्र में भारतवर्ष में जन्मा व प्रचलित पाश्चात्य विकासवाद के विरुद्ध वह आदिम जाति का नहीं, अनगढ़ नरमानुष नहीं अपितु एक श्रेष्ठ मनुष्य था सभ्य था पूर्णतः संयमशील था तथा ज्ञानवान था, उसी से समग्र मानव जाति की उत्पत्ति व विकास का क्रम चला। महाभारत की एक आख्या के अनुसार।

अभगच्छत राजेन्द्र देविकाँ लोक विश्रुताम्। प्रसूर्तियत्र विप्राणाँ श्रूयते भरतर्षभ॥

अर्थात् “सप्तचरुतीर्थ के पास वितस्ता नदी की शाखा देविका नदी के तट पर मनुष्य जाति की उत्पत्ति हुई। प्रमाण यही बताते हैं कि आदि सृष्टि की उत्पत्ति भारत के उत्तराखण्ड अर्थात् इस आर्यावर्त क्षेत्र में ही हुई।

संसार भर में गोरे, पीले, लाल और श्याम (काले) ये चार रंगों के लोग विभिन्न क्षेत्रों में पाए जाते हैं। एक भारत ही ऐसा देश है जहाँ इन चार रंगों का भरपूर मिश्रण एक साथ देखने की मिलता है। वस्तुतः श्वेत-काकेशस पीले-मंगोलियन काले-नीग्रो तथा लाल रेड इंडियन इन चार प्रकार के रंग विभाजनों के बाद पाँचवीं मूल एवं मुख्य नस्ल है जो भारतीय कहलाती है। इस जाति में उपर्युक्त चारों का सम्मिश्रण है। ऐसा कहीं सिद्ध नहीं होता कि भारतीय मानव जाति उपर्युक्त चारों जातियों की वर्ण संकरता से उत्पन्न हुई उलटे नृपत्व विज्ञानी यह कहते हैं कि भारतीय सम्मिश्रित वर्ण ही यहाँ से विस्तारित होकर दीर्घकाल में जलवायु आदि के भेद से चार मुख्य रूप लेता चला गया।

न केवल रंग यहाँ चारों के सम्मिश्रित पाए जाते हैं, वरन् भारतीयों का शारीरिक गठन भी एक विलक्षणता लिए है। ऊँची दबी, गोल-लम्बी मस्तकाकृति उठी या चपटी नाक, लम्बी-ठिगनी पतली-मोटी शरीराकृति, एक्जो व एण्डोमॉर्फिक (एकहरी या दुहरी गठन वाली) आकृतियाँ भारत में पाई जाती हैं। यहाँ से अन्यत्र बस जाने पर इनके जो गुण सूत्र उस जलवायु में प्रभावी रहे, वे काकेशस, मंगोलियन, नीग्रॉइड व रेडइडियन्स के रूप में विकसित होते चले गए। अतः मूल आर्य जाति के उत्पत्ति स्थली भारत ही है, बाहर कहीं नहीं, यह स्पष्ट तथ्य एक हाथ लगता है। पाश्चात्य विद्वानों ने एक प्रकार किया कि आर्य भारत से कहीं बाहर विदेश से आकर यहाँ बसे थे। संभवतः इसके साथ दूसरी निम्न जातियों को जनजाति-आदिवासी वर्ग का बताकर वे उन्हें उच्च वर्ग के विरुद्ध उभारना चाहते थे। द्राविड़ तथा कोल, ये जो दो जातियाँ भारत में बाहर से आई बतायी जाती हैं, वस्तुतः आर्य जाति से ही उत्पन्न हुई थीं, इनकी एक शाखा जो बाहर गयी थी पुनः भारत वापस आकर यहाँ बस गयी।

भारतीय जातियों पर शोध करने वाले नृपत्व विज्ञानी श्रीनैसफील्ड लिखते हैं कि “भारत में बाहर से आए आर्य विजेता और मूल आदिम मानव (अरबोरिजिन) जैसे कोई विभाजन नहीं है। ये विभाग सर्वथा आधुनिक हैं। यहाँ तो समस्त भारतीयों में एक विलक्षण स्तर की एकता है। ब्राह्मणों से लेकर सड़क साफ करने वाले भंगियों तक की आकृति और रक्त समान है।”

मनुसंहिता (10/43-44) का एक उदाहरण है

शनकैस्तु क्रियालोपदिनाः क्षत्रिय जातयः। वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणा दर्शनेन च॥ पौण्ड्रकाशचौण्ड्रद्रविडाः काम्बोजाः भवनाः शकाः। पारदाः पहल्वाश्चीनाः किराताः दरदाः खशाः॥

अर्थात् “ब्राह्मणत्व की उपलब्धि को प्राप्त न होने के कारण उस क्रिया का लोप होने से पौण्ड्र, चौण्ड्र, द्राविड़ कम्बोज, भवन, शक पारद, पहल्व, चीना किरात, दरद व खश ये क्षत्रिय जातियाँ धीरे धीरे क्षुद्रत्व को प्राप्त हो गयी।” स्मरण रहे यहाँ ब्राह्मणत्व से तात्पर्य है श्रेष्ठ चिन्तन, ज्ञान का उपार्जन व श्रेष्ठ कर्म तथा क्षुद्रत्व से अर्थ है निकृष्ट चिंतन व निकृष्ट कर्म। क्षत्रिय वे जो पुरुषार्थी थे व बाहुबल से क्षेत्रों की विजय करके राज्य स्थापना हेतु बाहर जाते रहे।

मूल आर्य जाति ने उत्तराखण्ड से नीचे की भूमि में वनों को काटकर जलाकर उन्हें रहने योग्य बनाया। वहाँ नगर बसाए। इससे पूर्व वहाँ कोई निवास नहीं करता था। इस प्रकार मूल निवासी के रूप में एक ही उत्पत्ति आर्यों के रूप में हिमालय के उत्तराखण्ड क्षेत्र में हुई। वहीं से मनुष्य जाति का सारे विश्व में विस्तार हुआ। आदि मानव हिन्दू समाज था। इस प्रकार शेष सभी धर्म-मत-जातियाँ-रेस-वर्ण कालान्तर में समय प्रवाह के साथ विकसित होते चले गए भारतीय आर्षग्रन्थ ऋग्वेद केवल भारतीय आर्यों की ही नहीं, बल्कि विश्वभर के आर्यों (श्रेष्ठ मानवों) की सबसे प्राचीन पुस्तक है।

लेख के प्रारंभ में सुर असुर-अध्यात्मवादी के रूप में जो दो विभाजनों की चर्चा हमने की, वह यहाँ और स्पष्ट हो जाती है। “सुर” वे हैं जिनने ब्राह्मणत्व जिन्दा रखा व धर्मधारणा-संस्कारों आदि को जीवन में स्थान दिया। “असुर” वे जो किसी न किसी अपराध में शापित या दण्डित होकर बाहर निकाले गए व बाहर जाकर जो प्रदेश जिसे अनुकूल पड़ा उसे उनने अपना निवास बना लिया। उनकी संततियाँ होती चली गयीं व धीरे धीरे वह क्षेत्र आबाद होते चले गए। बाहर जाने वालों के साथ कोई कूलपुरोहित नहीं गया, फलतः उनके संस्कार लुप्त होते चले गए। भारत में ऋषियों ने अपौरुषेय वाणी के रूप में वेदों को जिन्दा रखा था। एक ही मंत्र के दो या तीन ऋषि मंत्रद्रष्टा बने। समय-समय पर शास्त्रों का, आर्षग्रन्थों का भाष्य होता रहा। वेदों की घनपाठ-जरापाठादि पद्धतियों के कारण ईश्वरीय ज्ञान मूल सूत्र रूप में न विस्मृत हुआ, न विकृत। किन्तु देश से बाहर जाने वाले या तो शापित आर्य थे या पुरुषार्थी योद्धा क्षत्रिय। धीरे धीरे शास्त्र व संस्कार विस्मृत होते चले जाने, धर्माचार लुप्त हो जाने से यही जातियाँ म्लेच्छ कही जाने लगीं। कभी ये भारत से बाहर सीमान्त देशों पर बसे किन्तु धीरे धीरे आर्य राजाओं द्वारा युद्ध तथा ब्राह्मणत्व प्रधान क्षत्रियों के शौर्य के कारण पराजित होते-होते ये पृथ्वी के विभिन्न क्षेत्रों में फैल गए व कालक्रम से उस जलवायु के अभ्यस्त होते हुए काले, श्वेत, लाल, पीले विकसित होते हुए विभिन्न नस्लों वाले कहलाए, मूलतः हैं सभी आर्य व सारी पृथ्वी भारत से निर्वासित क्षत्रिय कुमारों की सन्ततियों से ही भरी पूरी है, यह स्पष्ट होता है।

मनुसंहिता यही बात कहती है

एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेन पृथिव्याँ सर्वमानवः॥

किन्तु भारत से बाहर जाने के बावजूद अपने धर्म आचरण के प्रति अनुराग के कारण उनने अपने संबंध भारतवर्ष से बनाए रखे। महाभारत काल तक भारतीय नरेशों से उनके वैवाहित संबंध हुए। उनकी कन्याएँ भारत आयीं। सत्यभामा व शैब्या के प्रसंग यही बताते हैं। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि सारी धरती पर बसे विश्व के सारे मानव आज से पाँच सहस्र वर्ष पूर्व तक भारतीय संस्कृति के ही अनुयायी इसी की संतति थे। भारतीय दृष्टि से वे संस्कारच्यूत थे किन्तु बहुसंख्य सतत् प्रयत्नशील रहते थे कि वे भारतीय विचारधारा के संपर्क में रहें।

भारतीय नृतत्त्वविज्ञान के अन्वेषणकर्ता श्रीटेलर कहते हैं कि विश्व में ईरान की पारसी जाति और भारतवासी हिन्दू यही प्राचीनतम संस्कृतियों के उपासक मूलतः हैं। दोनों अपना निवास मूलतः हिमालय को मानते हैं। पारसी धर्म से ही क्रमशः यहूदी, ईसाई, मुसलमान धर्म विकसित हुए। बौद्धधर्म हिन्दू धर्म की ही एक शाखा है और जैन धर्म की भाँति हिन्दू धर्म से ही वह उत्पन्न हुआ है। इन सभी को मत-सम्प्रदाय कहा जाय तो उचित होगा। मूलधर्म एक ही है वैदिक धर्म-हिन्दू धर्म। पारसी धर्म इस वैदिक धर्म से ही निकला है, इस पर सभी अन्वेषक सहमत हैं। भारत से बाहर जाकर बसी एक आर्यों की शाखा पारस्य देश (फारस) में बस गयी व पारसी बनकर भारत व अन्यान्य-क्षेत्रों को गयी। फारसी में ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ होता है अतः उन्होंने सिंधु देश को हिन्दू कहा, स्वयं को पश्चिमी हिन्दू तथा भारतीयों को पूर्वी हिन्दू कहा। अपनी नदी-नगरों के नाम भी उन्होंने संस्कृतनिष्ठ रखे। सरस्वती वहाँ हरहवती कहलाई, सरयू हरयू तथा भरत यूफरत (यूफ्रेटिस) भूपालन बेबिलोन तथा काशी कास्सी बन गए। अथर्ववेद की पैप्पलाद शाखा ही पारसी धर्म की मूल है इस तथ्य पर सभी वैदिक साहित्यकार व अन्वेषक एकमत हैं। गोपथ ब्राह्मण में शन्नों देवी इस मंत्र से अथर्ववेद पढ़ना चाहिए यह बात 1.19 मंत्र में बतायी गयी है। पारसी धर्मग्रन्थ होमयस्त के 1.24 मंत्र में यही बात कही गयी है। इस प्रकार ईसाई, इस्लाम सभी धर्म वैदिकधर्म से जन्मे, यह प्रमाणित होता है। यहाँ उद्देश्य किसी प्रकार का साम्प्रदायिक विद्वेष खड़ा करना व अपने धर्म की श्रेष्ठता बताने का नहीं, वरन् देवसंस्कृति के विराट सामाजिक रूप का परिचय देना है, जिसका मूल खोजने पर हुई शोध हमें “एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति” का संदेश देकर एक ही सत्ता को परमसत्ता मानने की प्रेरणा देती है।

नृपत्व विज्ञान से लेकर चिरपुरातन इतिहास का आमूलचूल सर्वेक्षण एक ही तथ्य प्रमाणित करता है कि आदिकालीन मानव आर्य था, वैदिकधर्म को मानता था व चिंतन चरित्र व व्यवहार की दृष्टि से श्रेष्ठ था। शक, हूण, मिस्री, यवन आदि सब हिन्दू ही थे। कालान्तर में संस्कार विहीन होने के कारण ये जातियाँ आर्यावर्त से बाहर जाती रहीं निर्वासित होती रहीं, पुनः मातृदेश लौटती रहीं। पुरातन काल में जातिच्यूत व्यक्ति को पुनः आर्य-मानव जाति का अंग बना लेना ही शुद्धि का प्रतीक था। जाति की मिथ्या परिभाषा, वर्ण जातिभेद की गलत व्याख्याएँ तथा व्यापक पैमाने पर बहिष्कार की परम्परा ने हिन्दू संस्कृति का कालान्तर में कितना नुकसान किया व आज भी विश्व मानवता के पथ पर एक अवरोध बनकर खड़ा है, इस पर सभी मानवतावादियों का मत एक है। परम पूज्य गुरुदेव ने हिन्दू संस्कृति को देवसंस्कृति कहकर उसके चिरपुरातन गौरव की ओर ध्यान दिए जाने को तो हम सबसे कहा पर साथ ही यह भी निर्देश दिया कि हमारी संस्कृति में कालक्रम के अनुसार कई विकृतियों का समावेश होता रहा है। हमें युगानुकूल संस्कृति विकसित करना है व इसे विज्ञान सम्मत, पुनः इसके शाश्वत सार्वजनीन रूप में लाकर इसके द्वारा विश्वमानवता का मार्गदर्शन करना है।

वस्तुतः समस्त भारतीय संस्कृति एक सर्वांगपूर्ण दर्शन है, उसका इतिहास एक शाश्वत जीवन दर्शन हम सबके समक्ष रखता है किन्तु यह विवेचन अध्यात्म के व्यावहारिक व युगानुकूल प्रतिपादन के रूप में जन-जन के समक्ष आए तो ही इस प्रतिपादन की सार्थकता है। हमें भारतीय संस्कृति के आदिकालीन रूप से लेकर चिरनवीन प्रसंगों तक सभी पर विवेचन करना चाहिए। यदि हम वेदों मात्र तक सीमित रह जाते हैं तो उन समृद्ध परम्पराओं की उपेक्षा करते हैं जो पिछले दो हजार वर्षों में पनपी हैं। आर्य जाति की कल्पना व आर्यावर्त की धारणा हमें उत्तर भारत (नर्मदा से ऊपर का क्षेत्र) तथा दक्षिणी भारत दो में अलग करती है जबकि दक्षिण में रहने वाली द्राविड़ जाति, जो बाद में हिन्दू संस्कृति के विकास का मुख्य केन्द्र रही मूलमानव से उपजी ही संतति थी जो दक्षिण में जाकर बस गयी। इस कथन पर कई विवाद भी खड़े हो सकते हैं व कई विद्वान अपने तर्क भिन्न-भिन्न रूपों में प्रस्तुत कर सकते हैं, पर एक सत्य शाश्वत है व हमेशा रहेगा कि जातियाँ रेस के सिद्धान्त हमारे यहाँ बाद में आए। मैथिल, गौड़, कान्यकुब्ज की तरह द्राविड़ शब्द भौगोलिक परिप्रेक्ष्य में ही समझा जाना चाहिए।

आग्नेय, द्राविड़, इन्डोयूरोपीय, किरात, आदिम मानव (अरबोरिजिन तथा आर्य इनकी परिकल्पना व प्रतिपादन शास्त्र चर्चा व मनोविलास के प्रसंग हो सकते हैं, किन्तु तथ्य यही है कि नृपत्व विज्ञान (एंथ्रापॉलाजी) एवं मानुषमिति (एंथ्रोपोमेट्री) भी अब इसी निष्कर्ष पर पहुँच रहे हैं कि प्रकृति ने भारत भूमि पर एक विलक्षण प्रयोग किया है। एक श्रेष्ठ आदिमानव व सामाजिक संस्कृति के रूप में भारतीय संस्कृति का जन्म आर्यावर्त में होना प्रमाणित हो चुका है व संस्कृति के शाश्वत तत्व जिनका आज हम प्रतिपादन करते हैं, सारी विश्वमानवता का मार्गदर्शन करने में आज भी सक्षम है।


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