सभी विचारधाराओं के मूल में हैं, विश्व संस्कृति के चिन्तन-स्वर

June 1992

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आज की विपन्नताओं का क्या हल है ? यह सवाल दुनिया के न जाने कितने प्रतिभा सम्पन्न मस्तिष्कों में उधेड़ बुन मचाए है । उन्हें समझ नहीं पड़ रहा कि सुविधाओं से भरे-पूरे युग में वह अभाव ग्रस्तता कहाँ से उपज पड़ी जिसके कारण हर कोई उचित-अनुचित कर गुजरने के लिए आकुल-व्याकुल है । समस्याएँ-उलझने और विपत्तियाँ अपने-अपने ढंग से सभी को हैरान-परेशान कर रही हैं । चिन्ताएँ आशंकाएँ जन-जन के मन को आतंकित किए हुए हैं । देश और दुनिया में आज जो कुछ हो रहा है-उसे बताने के लिए दो ही शब्द काफी है-अशुभ और अनुचित ।

मोटी दृष्टि से जिन्दगी की बहरूपिये समस्याओं के अनेक कारण और उनके भिन्न-भिन्न हल समझ पड़ते हैं । पर एरिक फ्राम के ग्रन्थ “मैन फॉर हिमसेल्फ” के शब्दों में गहरे उतरने पर एक ही अति स्पष्ट और निर्विवाद कारण उभरता है-विचारों की टकराहट । जिसके कारण इनसानी जिन्दगी चिथड़े होने के लिए मजबूर है । इसी वजह से मानव-जाति पर अर्ध-विक्षिप्तता का दुर्भाग्य टूट पड़ा है । जिसके चंगुल में फँस जाने के कारण छोटे से लेकर बड़े तक के सिर पर अपने-अपने ढंग की सनकें सवार हैं । हर एक के अपने मत-मान्यताएँ और आग्रह हैं । अपनी ढपली-अपने राग का भोंड़ा प्रदर्शन करने में जुटे समाज के लिए एक मात्र समाधान है-सामंजस्य का शिक्षण। राष्ट्र हो या व्यक्ति प्रत्येक के मूल स्वर की रक्षा करते हुए उसे विश्व मानवता के पुष्पहार में पिरो देना ।

उद्देश्य कितना भी श्रेष्ठ हो-पर कार्य दुष्कर है । जब कभी पहले मनुष्य ने संस्कृति का निर्माण किया था-वसुधा को कुटुम्ब बनाने के सपने सँजोए थे उस समय बुद्धिवाद का बोल-बाला न था । इनसान भाव प्रवण था । हर किसी को एक दूसरे से सामंजस्य बिठाने की धुन थी । पहले हर पाँव एकता की ओर उठता था । आज उसकी गति अलगाव बिखराव की ओर है । लेकिन पाल ओपेन हाइमर की पुस्तक “द् बर्थ आफ मॉडर्न माइण्ड" के विचारों के साथ सोचें-तो “बिखराव कितना ही व्यापक और समर्थ क्यों न हो उसे किसी न किसी एकता से ही उपजना पड़ता है । इतना भर नहीं उसके चरमोत्कर्ष का अन्तिम परिणाम भी एकता में विलय है ।”

एकता की यह डोर काफी उलझी हुई जरूर है । लेकिन अगर इसे पूरे मनोयोग से सुलझाने की कोशिश की जाय तो परेशानी के बावजूद सफलता के चिन्ह दिखाई पड़ते हैं । यह सच है कि संसार में अनेक नृवंशों के लोग हैं । जो आपस में एक-दूसरे से नहीं मिलते । जिनके धर्म अलग-अलग हैं । जिनकी आदतों और आचारों में कोई समानता नहीं है । लेकिन दुनिया के मतों विचारों का गहराइयों से किया गया सर्वेक्षण उससे बड़े सच को प्रकट करता है । ये सभी मिलकर किसी एक जगह ऐसी भी है जहाँ सभी विचार अपने सारे विरोध छोड़कर एक होने के लिए लालायित हैं ।

यह एक जगह कौन सी है ? इस बारे में यदि हम प्रो. मैक्समूलर से सवाल करें तो उन्हीं के शब्दों में उनका जवाब है “मैं सीधा संकेत भारत की ओर करूँगा ......। क्योंकि नीले आसमान के नीचे यही वह भू-भाग है जहाँ विचार समग्र रूप से विकसित हुए हैं । “ सैयद महमूद ने इस एक स्थान की खोज में मुहम्मद पैगम्बर के शब्दों का उल्लेख “हिन्दू मुस्लिम कल्चरल एकार्ड” में किया है । पैगम्बर के शब्द हैं “मैं हिन्द की तरफ से आती हुई ठण्डी हवाओं को महसूस करता हूँ।” यह शीतलता विचारों के सामंजस्य की है जिसका स्पर्श मानव मन की समस्त स्नायविक उत्तेजनाओं को शान्त करता हैं । सहीहू मुस्लिम में अबू होरैरा ने कहा है कि पैगम्बर ने कुछ स्वर्ग की नदियों का जिक्र किया है जिनमें से एक भारतीय नदी का नाम है । इब्ने हातिम ने अली का प्रमाण देते हुए कहा है कि हिन्द की घाटी में आदम बहिश्त से उतरा था । चौथे खलीफा का कहना था कि भारत में सबसे पहले किताबें लिखी गई और बुद्धि ज्ञान का प्रसार भी यहीं से हुआ।

इस देवभूमि में उपजे विचार सभी का इतने अपने और लुभावने लगे कि किसी को इन्हें अपनाने में कभी संकोच नहीं करना पड़ा । स्वयं मुहम्मद साहब ने तोबा, सुन्दास और अबलाइ जैसे संस्कृत शब्दों का प्रयोग किया है । शब्दों की तरह विचारों और सिद्धान्तों की ग्रहण-शीलता इस्लामी दर्शन में प्रचुर मात्रा में बिखरी पड़ी है । जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति ओर तुरीय कठोपनिषद् में निरूपित ये चार अवस्थाएँ यहाँ चार मंजिलों के नाम से प्रसिद्ध हैं । जाग्रत अवस्था को इस्लामी चिन्तन में नासूत स्वप्नावस्था को मलकूत सुषुप्ति को जबरुत और तुरीय को लाहूत कहा गया है तुरीयावस्था की सोअहमस्मि का अनुभव चतुर्थ मंजिल लाहूत का अनलहक का अनुभव है ।

इसी प्रकार भारत के सोऽहम् चिन्तन और इस्लामी दर्शन के अनेकों सिद्धांतों में केवल नाम का ही अंतर है उदाहरण के लिए यहाँ के दार्शनिक चिन्तन का अद्वैत, इस्लाम में तोहीद, परम सत्य-इस्लाम का ‘मुतलक’ ‘सत्यस्य सत्यम्’ इस्लाम में ‘हकीकत उल हकाहक’ और ज्योति को इस्लाम में नूर-उल-नूरिन कहा है । जिस प्रकार यहाँ के आर्षग्रन्थों में ईश्वर को सर्वव्यापी और अन्तर्यामी कहा है, उस प्रकार इस्लामी चिन्तन में ईश्वर को ‘बातिन’ और ‘जाहिर तथा मुदत’ और ‘सादी’ बतलाया है । विचारों की घनिष्ठता और पारस्परिक साम्य कहीं गहरे में मधुर सम्बन्धों को और भविष्य की किसी उज्ज्वल सम्भावना को व्यक्त करती है । ब्राउन मैक्सहार्टिल, और गोल्ड जीहर आदि अनेकों पाश्चात्य विद्वानों ने अपने गहरे अध्ययन के बाद विश्वास जताया है इस्लाम विचारधारा के प्रमुख तत्व भारतवर्ष से लिए गए हैं (हिस्ट्री आँव फिलॉसफी इस्टर्न एण्ड वेस्टर्न खण्ड-1 / 5 /502) अरब युग में बहुत से प्रमुख भारतीय ग्रन्थों का फारसी और अरबी में अनुवाद हुआ । अलकिण्डी ने भारतीय धर्मों पर एक पुस्तक लिखी, सुलेमान और अलमसूदी ने भारत के विषय में सूचनाएँ इकट्ठी कर लिपिबद्ध किया तथा अलनदीय, अलशरी, अलबरूनी एवं अन्य लोगों ने अपने यात्रा विवरणों में भारत के दार्शनिक विचारों का विस्तार से वर्णन कि या है । साहित्य-विज्ञान और दार्शनिक चिन्तन इन तीनों ही क्षेत्रों में इस्लामी जगत भारतीय जीवन और विचारधारा से प्रभावित हुआ है । मुंडकोपनिषद् ने इस तथ्य का रहस्योद्घाटन करते हुए सही ही लिखा है-

यथा नद्यः स्यदमानाः समुद्रोऽस्तं गच्छन्ति नामरुपेविहाय । तथा विद्वान नाम रुपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैतिदिव्यम् ।। -मु .उप . 3 /2 /8

अर्थात् “जिस प्रकार नदियाँ अनेक मार्गों से बहती हुई समुद्र में जाकर विलीन हो जाती है और उनके नाम रूप के भेद मिट जाते हैं, उसी प्रकार विद्वान अपनी-अपनी रुचि और अधिकार के अनुसार क्रमशः नाम रूप रहित एक ही सत्य-रूप परमात्मा में लीन होते है ।”

बात किसी एक मत या पंथ की नहीं है । जिसने भी यहाँ की वैचारिक संवेदना का स्पर्श पाया-वही इससे एक होता गया । सर चार्ल्स इलियट के ग्रन्थ “ हिन्दुइज्म एण्ड बुद्धिज्म” के पन्ने पलटें तो पता चलता है भारत के रहस्यवादी विचार सूफी मत के माध्यम से यहूदी रहस्यवाद में पहुँच गए जो-कब्बाला कहलाते हैं । यह कब्बाला मिश्र और पश्चिम एशिया में विकसित होकर यूरोप में भी जा पहुँचा। कब्बाला के बहुत से लक्षण जैसे-देवताओं की दशाएँ और निर्गमन, पिण्ड और ब्रह्माण्ड के सम्बन्ध सिद्धान्त आश्चर्यजनक रीति से-भारतीय तंत्र दर्शन से प्रभावित हैं । इस प्रभाव का निश्चित पता तो पुनर्जन्म और सर्वेश्वर वादी सिद्धान्तों से चलता है। सर्वोच्च-देवत्व अथवा ईश्वर एन-साफ कहलाता है-जिसका अर्थ अनन्त अज्ञेय और वर्णनातीत है । इसके बारे में जो कुछ कहा गया है वह इलियट के शब्दों में उपनिषदों के सार वाक्य है।

उपनिषदों का भाव संदेश-किस प्रकार दुनिया के हर कोने तक पहुँचता-फैलता गया ? इसके विषय में आधुनिक पीढ़ियों को शायद कल्पना भी न उभरे । इसके व्यापक प्रसार को साधन भाषण देने वालों की कुशलता, मिशनरी लोगों द्वारा किए जा रहे प्रलोभन के भाँति-भाँति के प्रयोगों जैसी कुछ न होकर अपनत्व का बोध कराना रही है । विचारों की प्रामाणिकता, उत्कृष्टता, इनकी जीवन में सार्थकता स्वयं अपनी व्यापकता कारण बनी है । व्यक्ति अथवा समूह की बैसाखियाँ इसने कभी नहीं स्वीकारी । इसी आश्चर्य से अभिभूत होकर ए . ए . मैकडोनल “ए हिस्ट्री आँव संस्कृत लिटरेचर” में कह उठा “विश्व के सोऽहम् मंच पर यदि कोई सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जा सकती है तो वह है संस्कृत साहित्य की जानकारी ।” एन.ए. नोटोविक ने अपनी पुस्तक “अननोन लाइफ आँव जीससक्राइस्ट” में इस तथ्य का सत्यापन किया है कि “भारत भूमि के विचारों और साधना पद्धतियों ने इस ईश्वर पुत्र के हृदय में इतना गहरा आकर्षण उत्पन्न किया कि वे सोलह वर्षों तक यहाँ के ब्राह्मणों और साधुओं के साथ रहे ।” नोट विक ने जिस गहरे सत्य की शोध की है उसका निष्कर्ष बहुतों को आश्चर्यजनक लग सकता है । पर संस्कृत साहित्य में संजोई विचार सम्पदा ने न जाने कितने यूरोपीय विद्वानों को इसके अध्ययन के लिए अपना जीवन समर्पित करने को विवश किया है । इस सर्वप्रचलित और बहुपरीक्षित तथ्य से सभी सहमत हैं ।

चार्ल्स विल्किस इस परम्परा का पहला व्यक्ति था । जिसकी प्रशंसा करते हुए संस्कृत पाण्डित्य के जन्मदाता एच. टी. कोलब्रुक ने कहा है कि पाइथागोरस से लेकर उस समय तक ऐसा कोई विदेशी विद्वान नहीं रहा जिसने विल्किस की तरह यहाँ के विचारों को आत्मसात् न किया हो । विल्किस ने हितोपदेश, भगवद्गीता, महाभारत के शकुन्तलोपाख्यान सहित अन्य कई रचनाओं का भावपूर्ण अनुवाद किया । विल्किस की परम्परा में विलियम जोन्स, बर्क, गिबन, शेरीडाँन, गैरिक और जॉनसन जैसे अनगिनत विचारों के उपासक दीक्षित होते चले गए । यूजीबरनाफ ने अपनी गहन शोध के द्वारा अवेस्ता के नियमों पर भारत के सोऽहम् बोध की छाप प्रभावित की । अध्ययन की इस परम्परा में उसने एक शिष्य को गढ़ा । मैक्समूलर के नाम से विख्यात इस शिष्य ने अपने गुरु की भावनाओं का कितना सम्मान किया यह किसी से छुपा नहीं है।

जर्मनी के विचारक तो भारतीय विचारशीलता की गहरी अनुभूति कर स्वयं के जीवन की सार्थकता पर विभोर हो उठे जार्जफास्टर ने जब लोक विख्यात मनीषी हर्डर को, शाकुन्तल का जर्मन अनुवाद भेजा तो वह कह उठा “मानव मस्तिष्क की इससे अधिक आनन्दप्रद और कोई कल्पना मुझे नहीं मिली .......पूर्व का एक विकसित पुष्प, सुन्दरता में बेजोड़ ! उसने शाकुन्तल का विश्लेषण करते हुए दावा किया कि इस कृति से यह प्रचलित विश्वास अमान्य हो जाता है कि नाटक का आविष्कार प्राचीन ग्रीकों ने किया है । जर्मन कवि गेटे ने शाकुन्तल के बारे में अपनी अनुभूत लिखी यह मेरे जीवन के एक अति महत्वपूर्ण युग का प्रतीक है ।

अठारहवीं सदी में जर्मनी में भारतीय साहित्य को पढ़ने-समझने की ऐसी ललक पैदा हुई कि चिन्तकों के समूह जैसे सामान्य जन तक यहाँ तक कि समयाभाव से ग्रसित राजनीतिज्ञ भी इसे पढ़ने और जीवन में अपनाने की आतुरता न रोक सके । विटरनित्ज की ‘ए हिस्ट्री आँव इण्डियन लिटरेचर’ के पृष्ठो से पता चलता है कि फान , थीलमान, रोजन साल्फ और विल्हेनवान आदि राजनीतिज्ञ अवकाश मिलते ही देव संस्कृति के चिन्तन सूत्रों में अपने को खोने लगते थे । हम बोल्ट ने भगवद्गीता को पढ़ने के बाद अपनी अनुभूति व्यक्त करते हुए कहा कि वह परमात्मा को जीवन प्रदान करने के लिए धन्यवाद देता है क्योंकि इस कारण ही उसे भगवद्गीता जैसा उत्कृष्टतम विचारकोश अध्ययन के लिए मिल सका ।

प्राच्य विद्याविदों, सामान्य अध्येताओं की ही भाँति पश्चिम के दार्शनिकों ने भी ऋषि संस्कृति के चिन्तन के प्रति स्वयं को ऋणी माना है । शोपेनहार, विक्टर कजिन, पालडायसन , श्लेगिल आदि पश्चिमी तत्व वक्ताओं ने अपने तत्व अभिव्यक्त किया है । कई जगह तो सिर्फ शब्दों की फेर बदल भर दिखाई देती है । मनीषी टामलिन इसे स्वीकारते हुए कहते हैं “शाँकर दर्शन की दिशा लगभग वही थी जिसे बाद में जाकर काण्ट ने अपनाया । मैक्समूलर के ग्रन्थ “थ्री लेर्क्चस आन द् वेदान्त फिलॉसफी पढ़ें तो पता चलता है कि उपनिषदों ने जिस ब्रह्म का प्रतिपादन किया है उसी को स्पिनोजा ने “सबस्टेशिआ” ‘स्वतन्त्र तत्व’ नाम दिया है । इसी तरह शंकराचार्य की ‘माया ‘ को लाइबिनज ने ‘मैटेरिया प्राइम’ कहकर स्वीकार किया है । फिक्ते ने इसी को अपने चिन्तन में ‘अंसटास’ नाम दिया है । इसी तत्व को शेलिंग ने अपने दर्शन में ‘डार्कग्राउण्ड’ कहकर उल्लेख किया है । शोपेनहावर का संकल्पवाद-छान्दोग्य के 7 /4 /2 अंश की व्याख्या भर है । छान्दोग्य उपनिषद् के इस अंश में संकल्प को ब्रह्म रूप देते हुए कहा है कि जो इस संकल्प ब्रह्म की उपासना करता है, वह भगवान के रूप को प्राप्त करता है ।

विभिन्न रूपों में- विभिन्न पद्धतियों में-विभिन्न देशों में देव संस्कृति के ये सभी चिन्तन स्वर जिस एक बात का उद्घोष करते हैं वह है उसका अपनत्व और यही वह पृष्ठ भूमि है जो इसे विश्व संस्कृति का गौरव प्रदान करेगी संस्कृति का उद्देश्य हृदय पर अधिकार पाना है और हृदय की राह समरभूमि की लाल कीच नहीं सहिष्णुता का शीतल प्रदेश है, उदारता का उज्ज्वल क्षीर समुद्र है । ऋषि चिन्तन की वही उर्जस्विता विश्व मानव को वैचारिक संघर्ष से मुक्ति देगी । कल का भविष्य जिस महानतम आश्चर्य को साकार करेगा वह है संसार की सभी विचारधाराओं का अपने मूल स्वर से सामंजस्य । इसी घटना के साथ विश्व संस्कृति के चिन्तन स्वर गूँज उठेंगे “सभानोमत्रः समितिः सभानी, सभानो मनः सह चित्तभेषाम्” सब लोग एक विचार वाले हो जाएँ सभी के मन एक समान हो जाएँ सभी के चित्त में एक से संवेदन उठने लगें । यही वैदिक दर्शन की मान्यता रही है व यही अगले दिनों साकार रूप लेने जा रही है।


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