क्रान्तियों के अविराम दौर को देखने और समझने वाले कल के महापरिवर्तन के बारे में विश्वस्त हैं। इस विश्वसनीयता ने सोच-विचार में रुचि रखने वालों के मन में जिस जिज्ञासा को जन्म दिया है, वह है कल के जीवन की रूप रेखा उसका स्वरूप और संस्कृति। एक तरफ तर्कों और प्रयोगों की कसौटी पर तथ्यों को परखने वाला विज्ञान हैं। दूसरी ओर विश्वासों की बैसाखी पर टिके हुए विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों का समूह है। संवेदनशील हो सोचने वाले मानववादियों, दार्शनिकों का अपना वर्ग है उनकी अपनी चिन्तन प्रणालियाँ है। कल की जिन्दगी इनमें से किसे चुनेंगी? अथवा किसमें वह सामर्थ्य है जो स्वयं को भावी-समाज के योग्य ठहरा सके। कुछ भी हो सवाल नवयुग की नयी संस्कृति की खोज का है।
शुरुआत से ‘खोज’ जीवन की मूलवृत्ति रही है। ‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है ‘ के सर्व प्रचलित सिद्धान्त ने समय-समय पर अनेकों उभार लिए हैं। आवश्यकता सभी को होती है-पशु हो या मनुष्य पर इनके स्वरूप में भेद है। पशुओं ने अपनी जिन्दगी की जरूरतों को पूरा करने स्वयं की वंशावली को बचाए रखने के लिए कम खोजें नहीं कीं। प्राणिशास्त्र इसी के अध्ययन का इतिहास है। प्रकृति की सूक्ष्म हलचलों को पढ़ने में सूक्ष्म-चींटी कुत्ते, संगठन करने वाली दीमक मधुमक्खी आदि के प्रयासों को देखकर दंग रहना पड़ता है। उनमें से अनेकों की अतीन्द्रिय सामर्थ्य का लोहा मानने के लिए सभी विवश हैं। पर इतने पर भी पशु भी किसी संस्कृति का निर्माण नहीं कर पाए। क्योंकि उन्होंने स्वयं की प्रकृति और प्रवृत्ति में परिवर्तन करने की न जरूरत महसूस की और न स्वयं में इसे कर सकने की सामर्थ्य का ही अनुभव किया। खोजी मनुष्य ने अपनी इसी विशेषता के कारण सभ्यताएँ निर्मित कीं संस्कृतियाँ रची और जीवन को अनूठा सौंदर्य प्रदान किया।
मनीषी स्टिच-स्टीफ न के “ग्रन्थ रिसर्च एण्ड प्रोसेस” के शब्दों में कहें तो “इस विराट ब्रह्माण्ड में शक्ति-चेतनता की अनेकों धाराएँ अनेकों स्तर हैं। इनमें से प्रत्येक स्वर का अपना वैभव अपनी उपलब्धियाँ हैं, खोज का अर्थ इनमें से किसी स्तर से अपना गहरा सामंजस्य बिठाना उसे मूर्त रूप देना है।”
प्रत्येक खोज का जन्म आवश्यकता से उत्पन्न इच्छा में होता है। इच्छा अपनी परिपक्व दशा में विचार और जिज्ञासा का रूप लेती है। जिज्ञासा के उपलब्धि की ओर बढ़ते कदम प्रक्रिया को जन्म देते हैं। प्रक्रिया की परिपूर्णता में सपना साकार हो उठता है। समय के प्रवाह में मनुष्य की अंतः प्रकृति और बाह्य प्रकृति में अनेकों परिवर्तन घटित होते रहते हैं। संसार का स्वरूप भी अपने में व्यापक फेर बदल करता रहता है। इन सारी उलट फेर में फँसकर प्रक्रियाओं में परिवर्तन आना स्वाभाविक है। लेकिन उपलब्धि का सिलसिला वही रहता है। उदाहरण के लिए आग को लें अग्नि तत्व सृष्टि के उदय काल से विद्यमान है। शुरुआत के दिनों इसकी जरूरत पड़ने पर मानव ने पत्थर रगड़कर इसे हासिल किया। तब से आज तक अग्नि उत्पादक प्रक्रियाओं में भारी अन्तर आ चुका है पर अग्नि वही है।
नेतृत्व विज्ञानियों के अनुसार आज से हजारों साल पहले भी आदमी ने अपनी सभ्यता के गौरवपूर्ण शिखरों को छुआ है। जिन्दगी के व्यापक दायरे के हर बिन्दु पर उसने तरह-तरह के शोध अध्ययन किए। समग्र जीवन पद्धति को रचने वाली संस्कृति के निर्माण में सफल हुआ। महायोगी अनिर्वाण के ग्रन्थ ‘वेद मीमांसा के अनुसार उसने अन्तः और बाह्य प्रकृति पर अनूठे प्रयोग किए। ऐसे प्रयोग जिनसे मनुष्य देवता बन गया और धरती स्वर्ग। समय के थपेड़ों और नई पीढ़ी की उत्तर दायित्वहीनता के कारण ढेर की ढेर प्रक्रियाएँ खो गई। उन प्रक्रियाओं के खोने का परिणाम है कि मनुष्य आज न जाने कितनी उपलब्धियों से वंचित है। वर्तमान परिस्थितियाँ इतनी बदली हुई हैं-कि वेदों के आख्यान-पुराणों के विवरण, शास्त्रों के वचन सुनने वालों को नानी की कहानी मालूम पड़ते हैं, जब कभी कोई ऋषि दयानन्द परमहंस विशुद्धानन्द, उन तथ्यों को अपने जीवन में प्रमाणित कर लोक जीवन को झकझोरता है सभी थोड़े समय उसे कौतुक और आश्चर्य से देखते हैं। फिर उस व्यक्ति विशेष को अतिमानव का सम्मान दे अपने लिए असम्भव बता किसी गहरी नींद में खोने लगते हैं।
इस ‘असम्भव और आश्चर्यजनक’ के पीछे झाँकने वाले तथ्यों को परखें तो प्रक्रियाओं का मौलिक अन्तर समझ पड़ता है। प्राच्य विद्या के विशेषज्ञ डा. गोपीनाथ कविराज के अध्ययन “भारतीय संस्कृति और साधना” के शब्दों में आज की शोध प्रक्रियाएँ जिन्हें विज्ञान की विभिन्न शाखा-उपशाखाओं का समूह कह लें विश्लेषण करने में समर्थ बुद्धि की उपज है। देव संस्कृति के विभिन्न पक्षों की खोज के पीछे अन्तर्ज्ञान सम्पन्न संवेदनशील मन को ढूँढ़ा जा सकता है। आज के जीवन में यदा-कदा ऐसे अवसर आ जाते हैं जब पुरानी शोध को नवीन मूल्याँकन से गुजरना पड़ता है। परिणति आश्चर्यजनक ढंग से सुखद होती है। लेकिन पुरानी प्रक्रियाओं के खो जाने के कारण आधुनिक प्रयोगकर्ताओं को इस विवशता का सामना करना पड़ता है, कि ऋषि मुनि कहे जाने वाले शोध विज्ञानी यन्त्रों और बहुमूल्य प्रयोगशालाओं के अभाव में इन निष्कर्षों तक कैसे पहुँच सकें समस्या को सुलझा सकने में अक्षम बुद्धि को एक ही बात समझ में आती है कि इन सब तथ्यों को संयोग कहकर चुप्पी साध ले। पर संयोग एक-आध हो सकते हैं। मानवीय ज्ञान के विविध क्षेत्रों में इनका भरा-पूरा सिलसिला इस बात को प्रमाणित करता है कि कहीं न कहीं तथ्यांकन की कोई प्रणाली अवश्य रही है। जो पुनर्मूल्यांकन के अपने मौलिक अधिकार के लिए गुहार लगा रही है।
चरक का आयुर्विज्ञान, वाराहमिहिर, आर्यभट्ट की खगोल गणनाएँ, पतंजलि का मानसशास्त्र, गोरक्षनाथ की हठयोग प्रणाली, विभिन्न दार्शनिक पद्धतियों के सृष्टि और मनुष्य सम्बन्धी गहरे सर्वेक्षण प्रयोगों की कसौटी पर करने पर यह मानने के लिए विवश करते हैं कि यह सब कल्पना लोक की उड़ाने नहीं हैं। तब क्या इन सबके पास आज सी सुसज्जित प्रयोगशालाएँ थीं जिनका न तो उल्लेख मिलता है न अवशेष? इस प्रश्न का सुसंगत उत्तर इतना ही है कि प्रयोगों की प्रणाली तो थी पर आज से भिन्न। उन दिनों प्रारम्भ से ही अपनी अन्तः प्रकृति को तरह-तरह के गम्भीर प्रयोगों द्वारा इस लायक बना दिया जाता था कि वह सृष्टि के विभिन्न रचनाक्रमों और इसकी उपादेयता का सम्यक् ज्ञान अर्जित कर सकें। ऐसे शोधार्थी के रूप में चरक और उनके बहुयोगी किसी पौधे के प्राण स्पंदनों से अपने अन्तर्बोध सम्पन्न मन को एकाकार करके पौधे की गुणवत्ता, उसके भाग विशेष की रोगनिवारण की विभिन्न क्षमताओं का ज्ञान अर्जित कर लेते थे। परीक्षणों का व्यापक सिलसिला प्रयोगों की गुणवत्ता को शतप्रतिशत ठीक ठहराता था। यही कारण है कि आयुर्वेद के प्राचीन ग्रन्थों में पौधों के गुण-स्वभाव उनके विभिन्न की रोगनिवारक सामर्थ्य-प्रयोग विधि का ब्योरेवार विवरण तो मिलता है, पर पौधे के रासायनिक संगठन और सूक्ष्म विश्लेषण का अभाव है।
यही बात ज्ञान की अन्य धाराओं में संदर्भ में है। प्राचीन ज्ञान की प्रायः सभी शाखाओं-उपशाखाओं की उपलब्धि में प्रक्रिया का यही स्वरूप दिखाई देता है। इसका एक ही कारण है इसकी सर्वतोजयी प्रामाणिकता प्राचीन शास्त्रों में ज्ञान की चार विधियों का उल्लेख मिलता है इन्द्रियानुभूति द्वारा अन्तर्बोध सम्पन्न मन से, विश्लेषण क्षमता सम्पन्न बुद्धि से, और गहरे आत्मिक तादात्म्य द्वारा। आधुनिक समय में ऋषि अरविंद ने ‘लाइफ डिवाइन’ में इसी अन्तिम विधि को श्रेष्ठ बताया है। देव संस्कृति को जन्म देने वाले इस विधि में निष्णात थे यही कारण है उन्होंने इस उत्कृष्ट विधि के रहते निम्न विधियों का कम ही प्रयोग किया है।
आज का विज्ञान और वैज्ञानिक ज्ञान की जिस विधि का प्रयोग करते हैं वह है बौद्धिक विश्लेषण प्रणाली। जिसका सहायक तत्व उनकी प्रयोगशाला में प्राप्त होने वाला इन्द्रिय अनुभव होता है। इतने पर भी अन्तर्ज्ञान सम्पन्न मन की सहायता जरूरी होती है। हाँ उसका प्रायोगिक विश्लेषण की कसौटी पर खरा उतरना जरूरी समझा जाता है। सहज है किसी के मन में सवाल उठ खड़ा हो क्या देव संस्कृति की चिन्तन सम्पदा आज के विज्ञान सम्मत प्रयोगों और तर्क प्रवण वैज्ञानिक मन को प्रभावित करने अपने को प्रमाणित ठहरा सकने में समर्थ है। इस सवाल के जवाब में आधुनिक विज्ञान-सर्वश्रेष्ठ विज्ञानियों की अनुभूतियों का उल्लेख कहीं अधिक समीचीन होगा।
ऋषियों की चिन्तन सम्पदा के वेदान्त दर्शन ने क्वाण्टम भौतिकी के वैज्ञानिक पारनर हाइज़ेनबर्ग की सोच में व्यापक उलट-फेर कर दी। क्या यह दार्शनिक चिन्तन किन्हीं अनुभूतियों पर आधारित है? क्या इनको आधुनिक विज्ञान के द्वारा परख सकना संभव है? इन महत्वपूर्ण सवालों को लेकर हाइज़ेनबर्ग सन् 1929 में भारत आए। विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर से इस चिन्तन के विशेष बिन्दुओं पर गम्भीर चर्चा की और वापस लौट कर अपने प्रयोगों में जुट गए। कुछ ही समय बाद उन्होंने भौतिकी जगत को “अनिश्चितता का सिद्धान्त” दिया। जो और कुछ नहीं वेदान्त के इस तत्व की व्याख्या है कि पदार्थ का स्वरूप प्रतिक्षण अनिश्चित है। उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘फिजिक्स एण्ड फिलॉसफी में यहाँ के चिन्तन से स्वयं के प्रभावित होने का मार्मिक वर्णन किया है। नोल्सवोर और इरविन श्रोडिंजर के स्वरों में भी यही गूँज सुनाई देती है। श्रोडिंजर वेदान्त में वर्णित प्रकृति के अनिश्चित स्वरूप की व्याख्या के आधार पर अपना आणविक अध्ययन करने में लगे थे। प्रयोगों से प्राप्त निष्कर्ष में उन्हें हतप्रभ हो कहना पड़ा “अरे। सचमुच नाम रूप से अजूबा लगने वाला संसार कुछ तरंगों की हलचल भर है।” उनके प्रयोगों के इस निष्कर्ष ने वेंक्स मेकनिक्स का रूप लिया।
विज्ञान के क्षेत्र में आइंस्टीन और हाइज़ेनबर्ग के प्रतिमानों को पार करने वाले जियोफेरी च्यू ने बूट स्ट्रैप का अनोखा सिद्धान्त दिया है। इसमें हाइज़ेनबर्ग की क्वाण्टम मैकेपिक्स और आइंस्टीन की सापेक्षता दोनों के तत्व समाएँ हैं। इसके अनुसार प्रकृति के मौलिक तत्व को विघटित नहीं किया जा सकता। वस्तुओं का अस्तित्व उनके गुणों और अन्यों के साथ उनके गहरे ताल-मेल के कारण हैं । यह तालमेल जहाँ विभिन्न शक्तियों के आपसी सहयोग का बोध कराता है वहीं इनकी अभिन्नता और एकता का ज्ञान देता है।
विज्ञानी च्यू से जब भौतिकविद् काप्रा ने इस प्रयोग के संदर्भ में चर्चा की। तो उन्होंने हँसते हुए कहा जब वह सन् 1969 में सपरिवार भारत आने की तैयारी कर रहे थे। इस तैयारी के दौरान उनके लड़के ने बौद्ध महायान का एक ग्रन्थ उनके हाथ में दिया। इस ग्रन्थ में वे सारी बातें कही गई थी जिन पर वे विचार कर रहे थे। उन्हें स्वीकार करना पड़ा कि उनके प्रयोग भारत की सोऽहम् ज्ञान का सत्यापन भर हैं।
च्यू की भाँति डेविड बोम के प्रयोगों का निष्कर्ष-अखण्डित पूर्णता वेदान्त का एक रूप है। इसे स्वीकार करते हुए उन्होंने बताया कि सन् 1974 में उनकी मुलाकात भारतीय दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति से हुई। कृष्णमूर्ति के विचारों ने उन्हें पूर्वी तत्त्वचिंतन को वैज्ञानिक कसौटी पर करने के लिए प्रेरित किया। इस प्रेरणा और प्रभाव ने ही भौतिक विज्ञान को ‘अनब्रोकेन होलनेस’ का अभिनव सिद्धान्त दिया।
ऋषियों के चिन्तन के प्रभाव विज्ञान की किसी शाखा विशेष तक सीमित नहीं हैं। अन्य शाखाएँ और उनके अध्येता इसकी प्रेरणा और प्रभाव को ग्रहण कर विज्ञान के क्षेत्र में कुछ नया दे सके हैं। “स्टेप्सट्एन इकॉलाजी आँव माइन्ड” की रचना करने वाले ग्रेगरी बैटसन अपने प्रयोगों में मन को एक नए रूप में जान सके। उन्हीं के शब्दों में ‘माइन्ड विदआउट नर्वस सिस्टम’ की धारणा पूर्वी चिन्तन से प्राप्त हुई। इसी प्रकार मनोविज्ञान के क्षेत्र में क्रान्ति लाने वाले आर.डी. लेंग से फ्रिटजोफ काप्रा ने लन्दन में मुलाकात कर उन्हें अवगत कराया कि वह पूर्वी तत्त्वचिंतन और आधुनिक विज्ञान का समन्वय कर रहे हैं। लेंग ने हल्की मुसकराहट के साथ कहा समन्वय की बात नहीं पूर्वी चिन्तन पूर्णतया वैज्ञानिक है। वह स्वयं योग और ध्यान का अभ्यास करते हैं। इसी तत्व चिन्तन की प्रेरणा से वह ह्यूमिनिस्टिक साइकोलॉजी की धारणा दे सके हैं।
आर.डी.लेंग की तरह स्टेनग्रोफ की रीलय आँव ह्यूमन कांशसनेश में कार्ल गुस्ताव जुँग के प्रयोगों राबर्टो असमोली की साइकोसिन्थेसिस में भारत की सोऽहम् चिन्तन के प्रभाव स्पष्ट दिखाई देते हैं । इन प्रभावों का विस्तृत अध्ययन इतना व्यापक होगा जिसके लिए अनेकानेक शोध ग्रन्थों के कलेवर छोटे पड़ जायँ। बात इन कतिपय उदाहरणों और छुटपुट प्रयोगों की नहीं समस्त संस्कृति की है जो आज भी समीचीन और सम-सामयिक है।
इसे ऋषि सन्तानों का हतभाग्य ही कहें कि उन्होंने अपना यह वैभव भुला दिया। इस विस्मृति का ही परिणाम है अपनी प्रतिभा से विश्व मनीषा को चमत्कृत कर देने वाला देश आज ज्ञान सम्पदा के लिए याचक है। क्योंकि उसमें उस सत्यनिष्ठ शैली और लगनशीलता का अभाव है जो ज्ञान को अपना अनुगमन करने के लिए बाध्य करती है। इसे आश्चर्य ही कहेंगे कि समूचे देश के सिर पर शोध प्रबन्धों के गट्ठरों का बोझ प्रतिवर्ष बढ़ते जाने के बावजूद जीवन की समस्याएँ उलझी हैं समाज के प्रश्न अनुत्तरित हैं। फिर शोध क्या और किसकी?
विज्ञान जिस कारण अपने को लोक विख्यात बना सका है वह है उसकी सत्यनिष्ठ। इतने पर भी वह संस्कृति नहीं रच सका और ने भविष्य में रच पाने में समर्थ है। क्योंकि उसकी अपनी सीमाएँ हैं, उसने जीवन के अधूरेपन को छुआ है। अर्थ और काम के यत्किंचित् पहलू ही उसकी समझ और पकड़ में आए हैं। व्यक्ति और समाज की गहराइयों को छूने वाली धर्म और मोक्ष की पद्धतियाँ उसके बौने हाथों से दूर हैं। क्रियापरायणता के बावजूद संवेदनाओं का मृदुल स्पर्श उसे नहीं मिल सका। यही कारण है कि आइंस्टीन जैसे विज्ञान विदों को संवेदनाओं की इस अनुभूति के लिए धर्म की आवश्यकता और पूर्वी चिन्तन की उपादेयता पर बल देना पड़ा।
सत्य है जीवन जितना व्यापक है संस्कृति को उतना व्यापक और समग्र होना पड़ेगा और यह व्यापकता और समप्रता देव संस्कृति का सहज धर्म है, आवश्यकता इसकी युगानुकूल प्रक्रियाओं के अध्ययन और निर्माण की है। जिसके लिए युग ऋषि की पराचेतना से संचालित ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान कृतसंकल्प है। यहाँ देव संस्कृति के विभिन्न पक्षों का गम्भीर शोध अध्ययन सम्पन्न किया जा रहा है। जिसके निष्कर्ष-नवयुग के नए मानव को जीवन का नया विधान दे सकेंगे। उसे अपनी देव संस्कृति का ऐसा युगानुकूल वैभव प्राप्त हो सकेगा। जिसकी वह चिरकाल से खोज कर रहा है।