यह जीवन प्रभुमय बन जाए!

January 1989

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भगवत् प्रार्थना में अलौकिक शक्ति और अनंत सामर्थ्य है। इसे आत्मचेतना को परमात्म सत्ता से जोड़ने, उससे बातें करने तथा उसमें निवास करने का सर्वोत्तम उपाय माना गया है। यह वह उपक्रम है, जिसके द्वारा मनुष्य अपनी अंतरात्मा की भूख को मिटाता है। शरीर की क्षुधा-पिपासा अन्न-जल से मिटती है और इससे शरीर को शक्ति मिलती है। वह परिपुष्ट और बलिष्ठ बनता है। उसी तरह अंतरात्मा अपनी आकुलता को मिटाने, अपने ऊपर चढ़े मल-विक्षेपों को हटाने की तथा उसमें प्रकाश भरकर अपूर्णता को दूरकर पूर्णता भरने की प्रार्थना भगवान से करती है।

ईश्वर के प्रति— आराध्य के प्रति 'पितु-मातु-सहायक-स्वामी-सखा' की भावना रखकर उसके सम्मुख निश्चयपूर्वक की गई पुकार कभी निष्फल नहीं जाती। विश्वासपूर्वक की गई भावभरी प्रार्थना पर परमात्मा दौड़े चले आते हैं। उन्हें जहाँ कहीं, जब कभी हार्दिक अभिव्यक्ति मिलती है तो उनकी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहायता उभरे बिना रह नहीं सकती।

द्रौपदी निस्सहाय अबला के रूप में कौरवों की राजसभा में खड़ी थी। दुराचारी कौरवों द्वारा चीरहरण किए जाने पर भी उपस्थित किसी मानव ने उसकी सहायता नहीं की। प्रार्थना करने पर ईश्वरीय सत्ता ने उसकी लाज बचाई। दमयंती का बीहड़ वन में कोई सहायक नहीं था। सतीत्व पर आँच आते देख उसने भगवत्सत्ता को पुकारा, जो उसकी नेत्रों की ज्वालारूप में प्रकट हुई और उसने व्याध को जलाकर भस्म कर दिया। प्रह्लाद को दुष्ट पिता से मुक्ति दिलाने एवं ग्राह के मुख से गज को छुड़ाने, उनकी प्रार्थना पर भगवान स्वयं आगे आए थे। निर्वासित पांडवों की रक्षा स्वयं भगवान ने की। अपने प्रिय सखा अर्जुन का रथ जोता एवं गीता का उपदेश देकर धर्म दर्शन का निचोड़ मार्गदर्शन हेतु प्रस्तुत किया, साथ ही महाभारत की भूमिका बनाकर सतयुग की स्थापना हेतु स्वयं भूमिका निभाई। नरसी भगत के सम्मान की रक्षा व मीरा को विष के प्याले से बचाने हेतु भगवत्सत्ता के आने के मूल में उनकी प्रार्थना की शक्ति ही थी।

ये सभी उदाहरण ऐसे हैं, जिन्हें पौराणिक गाथाएँ कहकर उनकी सत्यता से इंकार नहीं किया जा सकता। वस्तुतः प्रार्थना विश्वास की प्रतिध्वनि है। रथ के पहियों में जितना अधिक भार होता है, उतना ही गहरा और तीव्र निशान वे धरती में बना देते हैं। प्रार्थना की रेखाएँ लक्ष्य तक दौड़ी जाती हैं और मनोवांछित सफलता खींच लाती हैं। विश्वास जितना सघन होगा, परिणाम भी उतने ही श्रेष्ठ और प्रभावशाली होंगे। प्रख्यात अंग्रेज कवि टेनीसन के अनुसार— "संसार की काल्पनिक दौड़ जहाँ तक संभव है, उससे कहीं अधिक महान कार्यों का संपादन अंतःकरण की भावभरी प्रार्थना द्वारा किया जा सकता है। अतः हमारी प्रार्थना ऐसी हो, जो लक्ष्य को वेध सके। जिसमें केवल स्वर का महत्त्व प्रकट होता है, वह प्रार्थना नहीं, वरन हृदयहीन विडंबनाभर कही जाएगी। प्रार्थना वह होती है, जो हृदय से निकलकर सारे आकाश को प्रभावित करती और परमात्मा के हृदय में भी उथल-पुथल मचाकर रख देती है। ऐसी प्रार्थना निष्काम, सच्ची और सजीव ही हो सकती है। वर्षा का जल गिरता है तो सारी धरती गीली हो जाती है। प्रार्थना के प्रभाव से परमात्मा का अंतःकरण द्रवित होता है और साधक की उपासना से अधिक सत्परिणाम प्रस्तुत होता है।"

प्रार्थना का अर्थ याचना नहीं है। वह तो आत्मा की पुकार है। जब दृढ़ विश्वास के साथ आकुल हृदय से मनुष्य ईश्वर को पुकारता है, तो वही भावना प्रार्थना बन जाती है। ईश्वर से हृदय का मिलन, उसका एकीकरण ही प्रार्थना का उद्देश्य होना चाहिए। उसकी सफलता का उपाय बताते हुए रामकृष्ण परमहंस ने कहा है— "जब मन और वाणी एक होकर कोई वस्तु माँगते हैं, तो उस प्रार्थना का उत्तर अवश्य मिलता है। केवल वाणी द्वारा प्रार्थना पर्याप्त नहीं, उसमें अंतःकरण की तल्लीनता भी आवश्यक है। ऐसी प्रार्थनाओं में ही सजीवता होती है, चुंबकत्व होता है और वह अपना संदेश परमात्मा तक पहुँचाने में समर्थ होती हैं। सदुद्देश्यों के लिए की गई हृदय की, आत्मा की पुकार अनसुनी नहीं जाती। ईश्वर उसे अवश्य पूरी करता है।"

प्रार्थना से बुद्धि पवित्र बनती है। विवेक जाग्रत होता है, जिससे उलझी गुत्थियों को सुलझाने की सूझ-बूझ प्राप्त होती है, संकट की स्थिति में उचित मार्ग-निर्देशन मिलता है। महात्मा गांधी अपने उत्थान का प्रमुख आधार प्रार्थना को ही मानते थे। जीवन के अंतिम क्षणों तक इसकी नियमितता को उन्होंने बनाए भी रखा। उनका संपूर्ण जीवन प्रार्थनामय था। वह कहा करते थे— "प्रार्थना मेरी जीवनजड़ी है। जब-जब कोई कठिनाई आती है, मैं उसी का आश्रय लेता हूँ। मेरे सामने आने वाले राष्ट्रीय, सामाजिक तथा राजनीति के कठिन प्रश्नों की गुत्थियों का हल मुझे अपनी बुद्धि की अपेक्षा अधिक स्पष्टता और शीघ्रता से प्रार्थना द्वारा विशुद्ध अंतःकरण से मिल जाता है। प्रार्थना का सहारा न होता तो मैं कब का पागल हो गया होता। मेरी आत्मा के लिए इसकी उतनी ही अनिवार्यता है, जितना शरीर के लिए भोजन। प्रार्थना के बिना मैं कोई कार्य नहीं करता। सच्चे हृदय से की गई पुकार का परिणाम अवश्य महान प्रतिफल प्रस्तुत करता है।"

प्रार्थना एक सार्वभौम मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। सभी धर्मों ने इसकी महत्ता को स्वीकार किया है। तत्त्ववेत्ताओं ने इस पर गहन मनन और चिंतन किया है और इसे शक्ति प्राप्त करने की एक वैज्ञानिक पद्धति घोषित किया है। इसकी महत्ता पर प्रकाश डालते हुए प्रसिद्ध विचारक मनीषी डेल कार्नेगी ने कहा है— “यदि लोगों को यह ज्ञात हो जाता कि प्रार्थना से शांति और संतोष मिलता है, तो जो आत्महत्या की चेष्टा करते हैं अथवा पागल हो जाते हैं, उनमें से अधिकांश को बचाया जा सकता है।” उन्होंने चिंताओं-मनोविकारों से छुटकारा प्राप्त करने का उपाय प्रार्थना को बताया है। नोबेल पुरस्कार विजेता प्रसिद्ध वैज्ञानिक डाॅ॰ अलेक्सिस कैरेल ने अपनी पुस्तक  'मैन द अननोन' में लिखा है कि, "प्रार्थना द्वारा कठिन रोगों से भी छुटकारा पाया जा सकता है।" इसी तरह की मान्यता वैज्ञानिक अलबर्ट विल्क की भी है। उनने अपनी पुस्तक  'लेसन्स इन लिविंग' में कहा है कि, "प्रार्थना से स्वास्थ्य लाभ मिलता तो है, पर इसकी कामना इस रूप में करनी चाहिए कि आज उस परम सत्ता ने हमें इसलिए स्वस्थ कर दिया है कि कल हम कुछ अच्छा कार्य कर सकें। अपने लिए ही नहीं, वरन समाज के लिए भी उपयोगी सिद्ध हो सकें। सार्थक पुकार यही है।" इसे अधिक स्पष्ट करते हुए मनीषी रिबेका बीयर्ड ने अपनी कृति 'एवरी मैन्स सर्च' में कहा है— “प्रार्थना द्वारा विपरीत परिस्थितियों को भी अनुकूलता की दिशा में मोड़ा-मरोड़ा जा सकता है। शक्ति की इस धारा को शुभ दिशा में प्रवाहित करने के लिए आवश्यक है कि जिस परिणाम को हम उपस्थित देखना चाहते हैं, उस परिस्थिति को हम निर्मित करें।”

'थियालाजिका जर्मेनिका' नामक प्रसिद्ध पुस्तक में कहा गया है— “जब प्रार्थना द्वारा साधक ईश्वर के संपर्क में आकर उसमें आत्मसात हो जाता है तो वह अपनी खोई हुई शक्ति को पुनः प्राप्त कर लेता है। उसे शाश्वत जीवन की उपलब्धि होती है।" संत इगर्नेशियम के अनुसार— “प्रार्थना से हृदय में ईश्वर के प्रति पूर्ण निर्भरता का भाव जाग्रत होता है। अंतःकरण शुद्ध होकर उसमें देवत्व का विकास होता है, विनम्रता आती है और आत्मसंतोष का भाव पैदा होता है।"

निःसंदेह प्रार्थना में अमोघ शक्ति है। परोपकार, आत्मकल्याण और जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही उसका सदुपयोग होना चाहिए। आत्मकल्याण और संसार की भलाई से प्रेरित प्रार्थनाएँ ही सार्थक हो सकती हैं। जब "असतो मा सद् गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माऽमृतं गमय" के श्रद्धापूरित भाव, उद्गार अंतःकरण से उठेंगे, तो निश्चय ही जीवन में एक नया प्रकाश प्रस्फुटित होगा।


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