एक संपन्न व्यक्ति ने चार यज्ञ किए। उनका बहुत सारा पुण्यफल देवताओं के कोष में जमा हो गया।
एक बार वही व्यक्ति कहीं परदेश जा रहा था। साधन सब समाप्त हो गए थे। मात्र एक जून का भोजन शेष रहा था। उसे खाने बैठा तो कोई नितांत भूखा उधर आ पहुँचा। याचना की, तो उसने सारा भोजन उसी को दे दिया। स्वयं भूखा रहा। दूसरे दिन उसने श्रम करके जो पाया, उससे पेट भरा।
जब परलोक में उस संपन्न का जाना हुआ तो पुण्यफल के बहीखाते देखे गए। चार सामान्य यज्ञों का लेखा-जोखा था और पाँचवाँ महायज्ञ भी जमा पाया गया। पाँचवाँ महायज्ञ कौन है? इस पर उस व्यक्ति को भी आश्चर्य हुआ, पूछने पर बताया गया कि चार यज्ञ तो अपनी हैसियत के एक अंश से ही किए गए थे; इसलिए उन्हें साधारण गिना गया, पर जिसमें अपना सारा भंडार खाली कर दिया गया, वह भूखे को भोजन उस स्थिति में देना था, जिसमें स्वयं को भूखा रहना पड़ा, इसलिए उसे महायज्ञ माना गया। दान में राशि का महत्त्व नहीं। महत्त्व इस बात का है कि अपनी सामर्थ्य का कितना बड़ा अंश अर्जित किया गया।