इक्कीसवीं सदी की समझदारी को चुनौती

January 1989

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यों समझदारी का अस्तित्व कभी मिटता नहीं और प्रगति-पथ पर बढ़ता हुआ मानवी प्रयास कभी रुकता नहीं। फिर भी इन दिनों जो व्यापक विपन्नताएँ सब ओर छाई और घनीभूत हो रही हैं, उन्हें अनदेखा भी नहीं किया जा सकता। वे आज भले ही चिनगारी के रूप में हो, पर अगले दिनों उनके दावानल बनने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। समय रहते गंभीर समस्याओं पर विचार करना और उन्हें सुलझा लेना ही बुद्धिमानी है।

औद्योगीकरणजन्य प्रदूषण की बढ़ोत्तरी मानवी अस्तित्व के लिए चुनौती है। हवा में विषाक्तता इस सीमा तक घुलती जाती है कि अगले दिनों प्राणी-समुदाय के घुट मरने का खतरा है। उद्योगों से निस्सृत रसायन और नगरों की गंदगी जलस्रोतों को अपेय बनाती जा रही है। ऊर्जा के अत्यधिक प्रयोग से जहाँ एक ओर संसाधन खत्म होते चले जा रहे हैं, वहाँ विश्वभर में सामान्य तापमान भी बढ़ता चला जा रहा है। ध्रुवों के पिघलने और समुद्रों में उफान आने की संभावना है। इस उथल-पुथल में जल-प्रलय आ सकती है और मौसम परिवर्तन का चक्र हिम-प्रलय की स्थिति भी उत्पन्न कर सकता है। इससे अंतरिक्ष बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। ओजोन की परत के फटने का सिलसिला कुछ दिन इसी प्रकार और चला तो ब्रह्मांडीय किरणें धरातल की सुषमा को चना-चबैना की तरह भूनकर रख सकती है।

औद्योगीकरण की आतुरता— खपत के लिए मंडियाँ हथियाने की होड़ में तीसरे विश्वयुद्ध की तैयारियों में जुटी है। अणु-आयुधों ने विश्वविनाश की विभीषिका को फुलझड़ी जलाने जैसा सरल बना दिया है। सुरक्षा के नाम पर बढ़ती सैन्यशक्ति में देशों की जनशक्ति और धनशक्ति बुरी तरह खप रही हैं। साधन दूसरी दिशा में मुड़ जाने के कारण विकासक्रम बुरी तरह अवरुद्ध हो रहा है। अणुशक्ति के उद्भव ने उसके विकिरण के विषाक्त कचरे को ठिकाने लगाने का प्रश्न एक अनबूझ पहेली बना दिया है।

धातुओं और खनिज, तेलों-कोयले की खपत इस तेजी से बढ़ रही है कि आदिकाल से संचित उस बहुमूल्य संपदा का समापन एक शताब्दी के भीतर हो सकता है। ऐसी दशा में कारखाने और वाहन किस आधार पर चल सकेंगे, उन्हें बंद होना पड़ेगा तो जो स्थिति बनेगी, उससे निबटना कैसे संभव होगा?

जनसंख्या की अनियंत्रित वृद्धि अपने समय की असाधारण समस्या है। धरती के साधन उसकी तुलना में कम पड़ते जा रहे हैं। धरातल को रबड़ की तरह खींचा और फैलाया न जा सकेगा। ऐसी दशा में आहार, निवास, शिक्षा, आजीविका आदि के साधन कहाँ से मिलेंगे? सरकारी विकास-प्रयास कितने ही क्यों न तेजी से चलें, बढ़ती हुई माँग उससे सदा आगे रहेगी और पिछड़ापन हटाने का स्वप्न साकार किस प्रकार हो सकेगा? ईंधन और आवास की आवश्यकता पेड़ों के कटने के रूप में निकलेगी तो वर्षा घटेगी, रेगिस्तान बढ़ेंगे, भू-क्षरण होगा और अशुद्ध वायु की बढ़ोत्तरी जैसे अनेक संकट खड़े होंगे।

प्रकृति का माता की तरह दूध तो पिया जा सकता है, पर जब महत्त्वाकांक्षी लालसाएँ उसके साथ अतिवादी आक्रमण रुख अपनाएगी तो प्रतिक्रिया भयावह रूप में ही सामने आ सकती है। आए दिन बाढ़, सूखा, दुर्भिक्ष, भूकंप, तूफान जैसे संकटों का बढ़ता अनुपात उस खतरे की निशानी है, जिसमें प्रकृति का अतिक्रमण इतना महँगा पड़ सकता है, जिसका समय निकल जाने पर कोई भी प्रायश्चित संभव न हो सके। जलाशयों का बढ़ता प्रदूषण जलचरों का प्राणहरण करने पर उतारू है। वे न रहेंगे तो समुद्र, सरोवरों, नदियों की सफाई कैसे होगी? आकाश में उपग्रहों का कचरा जमा होता जाता है। स्टार वाॅर, लेसर वाॅर, केमीकल वाॅर जैसी तैयारियाँ जनसाधारण व भावी पीढ़ी के लिए क्या संकट खड़े करेगी, इसका अनुमान लगाने से वह कहानी याद आती है, जिसमें एक व्यक्ति अपनी एक सोने का अंडा रोज देने वाली मुर्गी का पेट चीरकर सारे अंडे एक ही दिन में जमा करने के लालच में आतुर होकर उस मुर्गी से ही हाथ धो बैठा था।

यह विश्वव्यापी प्रत्यक्ष समस्याओं में से कुछ है, पर इतने भर से ही विभीषिकाओं का अंत नहीं मान लेना चाहिए। लोक-मानस पर संकीर्ण स्वार्थपरता, भावी परिणामों को नजर अंदाज करने वाली अदूरदर्शिता, आतुर भोगलिप्सा, दूसरों के हितों की उपेक्षा जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ मानव स्वभाव का अंग बनती जा रही है। परिणाम इस रूप में सामने आ रहे हैं कि मानवी गरिमा के साथ जुड़ी हुई मर्यादाओं का परिपालन और वर्जनाओं पर नियंत्रण एक प्रकार से उपहासास्पद ही बनता चला जा रहा है। स्वेच्छाचार से लेकर अनाचार तक पर उतारू रहना फैशन बन गया है। बढ़ता हुआ अहंकार प्रदर्शन और अपव्यय के रूप में पनप रहा है, विलगाव और टकराव तो उसका सहज स्वभाव है ही। इन दुष्प्रवृत्तियों के अभिवर्द्धन ने संयुक्त परिवार जैसी पुण्यपरंपरा को तहस-नहस करके रख दिया है। समाजनिष्ठा का बुरी तरह ह्रास हुआ है। अनुशासन और अंकुश अपनाने के लिए कम ही लोग तैयार दीखते है। तात्कालिक लाभ के लिए भविष्य को दाँव पर लगाने वाली अदूरदर्शिता ने अब लोक-प्रचलन का रूप ले लिया है। बहुमत इसी ढाँचे में ढल रहा है। सज्जनों का बिखराव विशृंखलित और उदारवादी कायरता ओढ़ लेने के बाद ऐसा नहीं रह गया है कि वह अवांछनियताओं से लोहा लेने का कोई कारगर प्रयत्न कर सके। ऐसी दशा में अनौचित्य का दिन-दूनी रात-चौगुनी गति से बढ़ते जाना स्वाभाविक है। यही है— असंख्य समस्याओं में से कुछ, जिन पर विचार करने से विचारशीलों को भविष्य अंधकारमय दीखता है।

इन परिस्थितियों में सबसे बड़ा मार्मिक तथ्य यह है कि लोग निराश होते जा रहे हैं। ऐसी किरणें उदय होती देख नहीं पा रहे हैं, जिनसे उपरोक्त सभी संकटों के निराकरण का विश्वास बँध सके, आशा जग सके और उसके आलोक में उज्ज्वल भविष्य की संभावना पर विश्वास जम सके। इसके बिना इतने प्रबल प्रयत्न बन नहीं पड़ेंगे, जो प्रस्तुत घटाटोप के हर पक्ष से निबटने के लिए सृजन प्रयोजनों में जुट सकें। इस तथ्य को समझ ही लिया जाना चाहिए कि बिना सच्चे जनसमर्थन और सहयोग के ऊपर से थोथी कोई योजना पूरी तरह सफल नहीं हो सकती। सरकारें भी अपने बलबूते कुछ सीमित ही कर पाती हैं। इतना सीमित जिसे सराहा भर जा सकता है और सब कुछ समय रहते ठीक हो जाने पर सहज विश्वास नहीं किया जा सकता।

आखिर किया क्या जाए? गतिरोध से निबटा कैसे जाए? सघन तमिस्रा के बीच प्रकाश का कोई कारगर आधार खड़ा कैसे किया जाए? इसके उत्तर में कईयों को कई बातें सूझ सकती हैं, पर इन पंक्तियों में यह अभिव्यक्ति प्रकट की जा रही है कि किसी प्रकार जनमानस की निराशा हटाकर उसके स्थान पर उज्ज्वल भविष्य की संभावना का ऐसा विश्वास उत्पन्न किया जाए, जिसके आधार पर लोकशक्ति में अभिनव स्फुरणा उत्पन्न हो और उसका स्तर इस सीमा तक उठे कि हर व्यक्ति योग्यता, क्षमता एवं परिस्थिति के अनुरूप सृजन-प्रयोजनों में जुट पड़े। सृजन-अभिवर्द्धन का दूसरा पक्ष अवांछनियताओं का उन्मूलन भी माने। इस हेतु कारगर सक्रियता अपनाए।

लोक-मानस जब विधेयात्मक चिंतन करता है तो लोकशक्ति के रूप में प्रकट होता है और वह उज्ज्वल भविष्य की संरचना जैसे लक्ष्य के साथ यदि नियोजित किया जा सके तो उसका परिणाम चमत्कारी हो सकता है— होता रहा है, इसका इतिहास साक्षी है।

बुद्ध ने लोक-मानस को झकझोरा और उसे तात्कालीन अवांछनियताओं से लड़ पड़ने के लिए जुटाया, तो लाखों भिक्षु-भिक्षुणियों का समुदाय धर्मचक्र-प्रवर्त्तन की उमंगों से भरपूर होकर संसार भर के कोने-कोने में पहुँचा। सघन अंधकार में प्रकाश उत्पन्न करने में समर्थ हुआ।

गांधी की आँधी अभी कुछ दिन पूर्व ही आई थी। उनने सत्याग्रहियों की— क्रांतिकारियों की विशाल सेना मैदान में लाकर खड़ी कर दी। टकराने वाले ब्रिटिश साम्राज्य को उलटे पैरों लौटना पड़ा।

जर्मनी के साथ जूझने में इंग्लैंड की एक समय प्रायः कमर टूट गई थी। तात्कालीन प्रधानमंत्री विस्टन चर्चिल ने एक छोटा-सा नारा दिया था— उंगलियों को 'वी' की मुद्रा में बनाकर 'वी फार विक्ट्री।' उस नारे को हर वस्तु पर अंकित कर दिया गया। निराशा उत्साह में बदली। टूटा मनोबल जुड़ा और अंततः ब्रिटेन व साथी राष्ट्र जीतकर ही रहे। हिटलर की 'मीनकेंफ' और 'माओ की लाल किताब' ने यूटोपिया की तरह जनजीवन में उनके उज्ज्वल भविष्य के सपने ही संजोएँ। नेपोलियन, जोन ऑफ आर्क, लिंकन आदि में यही विशेषता थी कि अपने मनोबल के सहारे साथियों को तनकर खड़ा होने के स्तर तक उछाल देते थे।

हनुमान ने रीछ-वानरों को उल्लसितकर उनमें वह उत्साह जगाया कि अति महत्त्वपूर्ण रामकाज कर सकना उस क्षुद्र मंडली के लिए संभव हो सका। कृष्ण द्वारा अर्जुन को ऐसा ही उद्बोधन दिया गया था। निराश व्यक्तित्व उत्साहित हुआ तो वह न केवल बड़ी सेना खड़ी कर सका, वरन विशाल कौरव दल को परास्त करके विजयश्री का वरण भी कर सका। संसार भर में अनेक क्षेत्रों में एक से बढ़कर एक महत्त्वपूर्ण चमत्कारी कार्य उल्लसित जनमानस के सहारे ही संभव हो सके हैं। राजतंत्र के स्थान पर प्रजातंत्र और साम्यवाद जैसी स्थापनाएँ इसी आधार पर संभव हुई। दासप्रथा को लोकमत ने ही उखाड़ फेंका। अगणित कुरीतियों का उन्मूलन भी इसी आधार पर संभव हुआ।

समय की महती आवश्यकता यह है कि निराशा के— परस्पर दोषारोपण के माहौल को बदला और उसके स्थान पर आशा भरा, उत्साह-सत्साहस भरा प्रकाश जनमानस में प्रतिष्ठित किया जाए। इस उभार को उन सृजनात्मक कार्यों में लगाया जाए जो समय की महती आवश्यकता को पूरा करे। कार्यों का चुनाव हर व्यक्ति अपनी योग्यता, क्षमता एवं परिस्थिति के अनुरूप कर सकता है। अभ्युदय के निर्मित हर क्षेत्र में ऐसे कार्य करने पड़े हैं, जिनमें हर किसी को किसी-न-किसी प्रकार सहयोगी बनने का अवसर मिल सकता है।

आज का नारा होना चाहिए— 'इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य' (ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी एडवेंट ऑफ ब्राइट फ्यूचर)। अभी बारह वर्ष इस बीसवीं सदी के पूरा होने में शेष हैं। इस अवधि में हमें खेत जोतने, गुड़ाई करने, मेड़ बाँधने, खाद डालने, बीज बोने जैसी वे आवश्यकताएँ पूरी कर लेनी चाहिए, जो हर किसान को फसल लहलहाती देखने से पहले करने होते हैं। युग बदलने के लिए लंबा समय अपेक्षित है, बिगाड़ की दिशा में पिछली दो शताब्दियों में द्रुतगति से बढ़ा गया है। बिगड़ने की अपेक्षा बनाने में स्वभावतः अधिक समय लगता है। बहुत तेजी की जाए तो भी एक सदी लग जाना स्वाभाविक है; इसलिए इक्कीसवीं सदी को नवसृजन की शताब्दी के नाम से जाना जाए तो यह उचित ही होगा। बीसवीं सदी के अंतिम बाहर वर्ष तो उसी दिशा में सोचने— योजना बनाने में लगने चाहिए।

बीसवीं सदी के अंतिम दिन कष्टकर होने और इक्कीसवीं सदी से 'सतयुग की वापसी' का माहौल दीख पड़ने की बात अनेक भविष्यवक्ता दिव्यदर्शी, विश्व समीक्षक, दार्शनिक आदि अपने ढंग से कहते रहते हैं। अब इस दिशा में किया यह जाना चाहिए कि हर स्तर के लोग तर्क, तथ्य, प्रमाण और आधार प्रस्तुत करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचने और पहुँचाने का प्रयत्न करें कि हम विनाश से विरत होकर विकास की दिशा में बढ़ने के लिए कटिबद्ध हो सकें। बीसवीं सदी के अंत वाले प्रस्तुत बारह वर्षों में हम इतना कुछ कर चुके होंगे कि इक्कीसवीं सदी में वर्षा ऋतु जैसी हरियाली का मखमली फर्श चारों ओर बिछा दीख पड़ेगा। इस दिशा में विश्वास तो हर किसी के मन में जगाना चाहिए। यह आगे की बात है कि मूर्धन्य अथवा साधारण लोग इसके लिए क्या और किस प्रकार कुछ करें?


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