धर्मनिष्ठा और तप-साधना के प्रतिदान— प्रतिफल के रूप में महाराज युधिष्ठिर को अक्षयपात्र मिल गया। अक्षयपात्र की विशेषता यह थी कि उससे जब भी माँगा जाता, वह स्वादिष्ट और मधुर व्यंजन प्रदान करता। परीक्षा हेतु उसी दिन हस्तिनापुर की समग्र जनता को मनपसंद व्यंजन और पकवान ग्रहण करने का सार्वजनिक निमंत्रण दिया। हर किसी को इस अक्षयपात्र से लाभ उठाने की छूट थी।
अक्षयपात्र अपने ढंग से प्रयुक्त होता रहा और तो सब ठीक ढंग से चलता रहा, लेकिन युधिष्ठिर को दंभ होने लगा कि मुझ जैसा कोई दानी नहीं है। इस दंभ को पुष्ट करता रहा— आश्रित ब्राह्मणों का जयगान। एकाध व्यक्ति ही किसी की प्रशंसा करने लगे तो मनुष्य का भाल गर्वोन्नत होने लगता है, फिर वहाँ तो समाज के सोलह हजार प्रबुद्ध व्यक्ति युधिष्ठिर का यशोगान करते थे। यह ठीक है कि युधिष्ठिर ने अपने जीवन का एक बड़ा भाग कठोर तप-साधनाओं में गुजारा था, परंतु कुछ कमजोरियाँ अभी भी शेष थीं, जिन्हें विजित करना था और उनमें एक था— यह सात्त्विक अभिमान।
भगवान कृष्ण ने जब यह देखा कि धर्मराज युधिष्ठिर अभिमान के मद में चूर होते जा रहे हैं, तो उनसे यह सहन न हुआ। भगवान प्रणत जनों की सब ओर से रक्षा करने वाले हैं। उन्हें यह सहन भी कैसे होता कि एक साधारण-सी बात उनके शिष्य के पतन का कारण बने। उनकी दृष्टि में अक्षयपात्र और सोलह हजार ब्राह्मणों को प्रतिदिन भोजन कराना तो साधारण बात है। कई बार भगवान ने उन्हें परोक्ष रूप से समझाया भी सही, परंतु युधिष्ठिर समझने में असमर्थ ही रहे। एक बार अवसर देखकर श्री कृष्ण ने प्रत्यक्षतः भी कहा कि, "धर्मराज मैं मानता हूँ कि ब्राह्मणों के लिए तुम भोजन की व्यवस्थाकर पुण्यकार्य में संलग्न हो, परंतु उसके लिए अभिमान नहीं करना चाहिए।"
“परंतु प्रभु! मैंने तो ऐसी कोई बात नहीं की, जिससे अभिमान टपकता हो”— युधिष्ठिर ने कहा।
“अभिमान बातों से नहीं, क्रियाओं से व्यक्त होता है। भगवान ने कहा और युधिष्ठिर को लेकर महाराज बलि के पास पहुँचे। बलि को युधिष्ठिर का परिचय देते हुए उन्होंने कहा— "दैत्यराज! ये हैं पाण्डवों में अग्रज महादानी युधिष्ठिर। इनके दान से मृत्युलोक के प्राणी इस तरह उपकृत हो रहे हैं कि वे तुम्हारा स्मरण भी नहीं करते।
“परंतु मैंने स्मरण किए जाने जैसा कार्य भी क्या किया था”— बलि ने कहा— “मैंने वामन को केवल तीन पग जमीन देने का वचन दिया था और वही पूरा किया भी। अब यह बात अलग है कि वह वामन विराट बन गया।”
“महाबली! तुमने सब कुछ खोकर भी अपना वचन पूरा किया, इसलिए तुम्हारी ख्याति अमर हुई। धर्मराज की कीर्ति भी तुम्हारे यश की होड़ कर रही है। तुम दोनों पुण्यात्माओं का मिलन निश्चय ही सौभाग्य है।”
बलि ने युधिष्ठिर की कोई पुण्यगाथा सुनाने के लिए भगवान से कहा। भगवान कृष्ण ने उनके पूर्व जीवन का संपूर्ण विवरण क्रमवार सुनाया और अक्षयपात्र, सोलह हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने की नियम-परंपरा का भी उल्लेख किया। युधिष्ठिर के चेहरे की दर्पभरी मुस्कान तब विलुप्त हो गई, जब दानवेंदु ने कहा— “आप इसे दान कहते है, लेकिन यह तो महापाप है। स्पष्ट करते हुए महाबलि ने कहा— धर्मराज! केवल अपने दान के दंभ को पूरा करने के लिए ब्राह्मणों को आलसी बनाना पाप ही है। मेरे राज्य में तो किसी याचक को नित्य भोजन की सुविधा दी जाए तो भी स्वीकार नहीं करेगा।”
युधिष्ठिर का मद चूर हो गया एवं वे चूँकि धर्मावतार थे, उसी रूप में पुनः पुण्य-पुरुषार्थ में विनम्रतापूर्वक जुट गए।