कौन है इस अनुशासित सृष्टि का नियंता?

January 1989

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यह समूचा विश्व-ब्रह्मांड, उसके सारे घटक इतने सुनियोजित ढंग से अपना कार्य कर रहे हैं, जिसे देखकर किसी-न-किसी नियामक सत्ता की कल्पना करनी ही पड़ती है। इसके बिना ब्रह्मांड की व्याख्या और उसकी निरंतरता की विवेचना पूर्णरूप से नहीं की जा सकती। इसे मात्र संयोग भी नहीं कहा जा सकता कि इस अनंत ब्रह्मांड के असंख्य सौरमंडल, उनके समस्त ग्रह-नक्षत्र अपना-अपना अलग अस्तित्व बनाए हुए, अपनी कक्षाओं पर भ्रमण करते हुए अपना निर्धारित क्रियाकलाप चला रहे हैं। इनका कोई उद्देश्य नहीं— परस्पर कोई संबंध नहीं, ऐसा मानना अविवेकपूर्ण होगा।

सूक्ष्म पर्यवेक्षण करने पर हर कोई यह समझने में समर्थ हो सकता है कि यह सारे ग्रह-नक्षत्र एक ही सत्तासूत्र में— धागों में मनकों की तरह पिरोए हुए हैं और ग्रह-नक्षत्र की यह माला एक ही दिशा में— एक ही नियंत्रण में गतिशील हो रही है। इतना ही नहीं, उनका परस्पर भी अति घनिष्ट संबंध है। एक ही परिवार के सदस्य जैसे मिल-जुलकर कुटुंब का एक ढाँचा बनाए रहे हैं, उसी प्रकार समस्त ग्रह-नक्षत्र— सृष्टि के समस्त घटक एकदूसरे के पूरक बने हुए हैं और परस्पर बहुत कुछ लेने-देने का क्रम चलाते हुए ब्रह्मांड की वर्त्तमान स्थिति बनाए हुए हैं। यह सब एक विश्वव्यापी प्रेरक और नियामक सत्ता द्वारा ही संभव है।

वस्तुतः इस संसार में 'अकेला' नाम का कोई पदार्थ नहीं। यहाँ सब कुछ सुगठित और सुसंबद्ध है। पदार्थ की सबसे छोटी इकाई परमाणु भी अपने गर्भ में कितने ही घटक संजोए हुए एक छोटे सौरमंडल परिवार की तरह प्रगतिशील रह रहा है। इलेक्ट्रॉन, प्रोट्रॉन आदि घटकों की परतें खुलती जा रही हैं और पता लग रहा है कि उनके गर्भ में भी और कितने ही समूह वर्ग विराजमान हैं। यह सभी निरंतर गतिशील रहते हुए किसी उद्देश्य की पूर्ति की दिशा में व्यवस्थित क्रम से क्रियारत हैं, इन्हीं सब बातों को देखते हुए सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक कार्ल सांगा ने अपनी कृति में लिखा है कि, "संसार का हर परमाणु एक निर्धारित नियम व्यवस्थानुसार कार्य करता है। यदि इसमें तनिक भी व्यतिक्रम और अनुशासनहीनता दृष्टिगोचर होती तो विराट ब्रह्मांड एक क्षण भी अपने वर्त्तमान अस्तित्व को नहीं रख पाता तथा क्षणमात्र में विस्फोट से इस प्रकृति में आग लग जाती और यह संसार अग्नि की लपटों में घिरा एक तप्त पिंड भर होता; परंतु देखने में ऐसा नहीं आता। अतः यह किसी चेतन समष्टि सत्ता का अस्तित्व में होना प्रमाणित करता है।

सृष्टि-चक्र में सर्वत्र अन्योन्याश्रय का सिद्धांत काम कर रहा है। जड़-चेतन से विनिर्मित यह संपूर्ण विश्व-ब्रह्मांड एकता के सुदृढ़ बंधनों में बँधा हुआ है। एक से दूसरे का पोषण होता है और हर किसी को दूसरों का सहयोगी होकर रहना पड़ रहा है। यह पारस्परिक बंधन की सृष्टि के शोभा, सौंदर्य का, उसकी विभिन्न हलचलों का, उत्पादन-विकास एवं परिवर्तन का उद्गम केंद्र है। इनके मूल में अदृश्य, किंतु सर्वशक्तिमान सत्ता ही कार्यरत है। प्रख्यात विचारक मनीषी रुडाल्फ ओटो को सुदूर आकाश में जाज्वल्यमान ग्रह-नक्षत्रों, सुसज्जित तारों को देखकर यही अनुभूति हुई थी कि जिस क्रमबद्धता, सुगढ़ता और अनुशासन से ये सब ग्रह-नक्षत्र गतिमान हैं, निश्चय ही इसके पीछे किसी विशिष्ट प्रेरक शक्ति का हाथ है। उनके अनुसार विश्व-ब्रह्मांड के सभी घटकों में विद्यमान नियमितता, अनुशासनात्मक गतिशीलता और पारस्परिक आदान-प्रदान को देखकर यह सहज ही विश्वास होता है कि कोई दिव्य और महान चेतना अवश्य है, अन्यथा इतनी सुंदर सृष्टि की महान कल्पना भला कौन कर सकता?

रुडाल्फ का कहना है कि जब प्रकृति की अनुपम छटा का अवलोकन करते हैं तो सृजनकर्त्ता के इस कृत्य में निश्चित ही एक सृजनात्मक लक्ष्य परिलक्षित होता है। नियमितता, सहकारिता, विकासशीलता की— सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की ही झाँकी जड़-चेतन में सर्वत्र दिखाई पड़ती है। समस्त प्रकृति उस परम सत्ता का अभिव्यक्तिकरण है, जो सुंदरता और मनोहारी दृश्यों से ओत-प्रोत है। सौंदर्यबोध से उसकी अनुभूति होती है। मनुष्य को विलक्षण एवं अलौकिक शक्तियों से भरपूर मस्तिष्क इसीलिए प्रकृतिप्रदत्त अनुदान रूप में मिला है कि उसके माध्यम से वह उस कलाकार की सुंदर रचना की अनुभूति कर सके और उसका सदुपयोगकर सुखी-समुन्नत बन सके।

प्रख्यात वैज्ञानिक मनीषी फ्रांसिज मेसन ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि प्रकृति एक ईश्वरीय विधान है— एक व्यवस्था है। यह कोई अनगढ़ या बेतुकी उपज नहीं, वरन योजनाबद्ध ढंग से विनिर्मित एक कृति है, एक दिशा है, जिसके अंतराल में एक महान और उच्चस्तरीय बुद्धिमत्ता सन्निहित है। यह न तो दैवयोग की सृष्टि है और न ही यांत्रिकी संयोग है, वरन इस विश्व-ब्रह्मांड में एक ऐसी परम सत्ता काम कर रही है, जिसे स्पिरिट या विश्वात्मा कहा जा सकता है। उसकी महानता, दिव्यता, सर्वसमर्थता एवं सौंदर्य का बोध कराने के लिए ही ग्रह-नक्षत्रों सहित समस्त जड़-चेतन की उत्पत्ति हुई है। यह सब उसी महासत्ता के घटक हैं।

सभी ग्रहगोलक अपनी-अपनी कक्षा में निर्बाध रूप से गतिमान हैं। एक पर्यवेक्षक की तरह यदि पूरे ब्रह्मांड के ग्रहपिंडों की अपनी गतियों, उनके सतह की परिस्थितियों और उनके पारस्परिक संबंधों का सूक्ष्मता से अध्ययन करें, तो हमें ज्ञात होगा कि इनकी व्यक्तिगत विशिष्टताएँ सोद्देश्य हैं। उदाहरण के लिए सूर्य को ही लें, तो यह हमारी धरती से 13 लाख 90 हजार किलोमीटर दूर स्थित है। इसका व्यास 8 लाख 80 हजार मील तथा भार पृथ्वी से 3 लाख 33 हजार गुना अधिक है। जितने भी ग्रह सौरमंडल में विद्यमान हैं, सूर्य का भार उनसे ठीक एक हजार गुना अधिक है। सूर्य आग का जलता हुआ एक गोला है, जिसका बाह्य तापमान करीब 6000 डिग्री सेंटीग्रेट तथा भीतरी लगभग 15 करोड़ डिग्री सेंटीग्रेट है, इसके एक वर्ग इंच क्षेत्र में 60 अश्वशक्ति के बराबर ऊर्जा है। यदि उसके संपूर्ण क्षेत्र की प्रचंड ऊर्जा एक साथ पृथ्वी पर फेंक दी जाती तो यह धरती भी एक धधकता सूर्यपिंड बन जाती, पर ऐसा नहीं होता। सूर्य की ताप-ऊर्जा का जो अनुदान पृथ्वी को मिलता है, उसकी वितरण प्रणाली में भी एक प्रकार का बुद्धिमत्तापूर्ण नियंत्रण दिखाई देता है। एक सुनिश्चित दूरी पर अवस्थित सूर्य की सतह पर जो तापमान है, उसका 220 करोड़वाँ भाग मात्र ही पृथ्वी को मिल पाता है। इस संतुलित प्रकाश-ऊर्जा को पृथ्वी तक पहुँचने में केवल आठ मिनट लगते हैं। इसी से मनुष्य सहित समस्त प्राणि-समुदाय एवं विशाल वनस्पति जगत की संपूर्ण आवश्यकताएँ तथा ऋतु-संचालन की सारी क्रियाएँ संपन्न होती रहती हैं। यदि सूर्य की इस दूरी में तनिक भी न्यूनाधिकता होती तो यहाँ जीवन धारण योग्य वातावरण नहीं रह पाता। निकटता में गरमी बढ़ती और दूरी से शीतलता आती। दोनों ही स्थितियों में जीवन असंभव होता।

इस बात को अब वैज्ञानिक भी स्वीकारने लगे हैं कि यदि सूर्य का प्रकाश दो प्रतिशत भी न्यून हो जाए तो पृथ्वी पर जाड़े की ऋतु के स्थान पर सदा के लिए शीतयुग हो जाएगा। यदि उसकी गरमी केवल 13 प्रतिशत घट जाए तो संपूर्ण धरती एक मील मोटी बरफ की चादर से ढँक जाएगी। इसी तरह यदि सूर्य का तापमान 30 प्रतिशत अधिक हो जाए तो उत्पन्न गरमी के तपन से यहाँ एक भी प्राणी का नामोनिशान देखने को नहीं मिलेगा। सभी विनष्ट हो जाएँगे, पर पृथ्वी इस संदर्भ में अन्य ग्रह-नक्षत्रों से कहीं अधिक सौभाग्यशाली है। वैज्ञानिकों का कहना है कि सूर्य से इसकी दूरी तथा कक्षा में स्थिति इतनी सुनियोजित एवं व्यवस्थित ढंग की हुई है कि उससे प्राणियों का जन्म, ऋतु अनुकूलता एवं शोभा-सुषमा का सृजन संभव हो सका। यह स्थिति अन्य ग्रहों की नहीं है। उनका तापमान या तो इतना अधिक या इतना कम है कि उनमें जीवन-विकास हो ही नहीं सकता। संभवतः यही कारण है कि अन्यान्य ग्रहों पर अभी तक जीवन को खोजा नहीं जा सका है।

फ्रांसिज मेशन के अनुसार अपने सौरमंडल में जो अगणित ग्रहपिंड सम्मिलित हैं, उनका संचालन और व्यवस्थापन निश्चित ही किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हो रहा है। जिस प्रकार बैठने के एक कक्ष में सजावट, सुव्यवस्था, सुंदरता के दर्शन होते हैं, सभी वस्तुएँ उचित स्थान पर रखी जाती है, उसी प्रकार इस ब्रह्मांड में सृष्टिकर्त्ता ने अनेकानेक ग्रह-नक्षत्रों, नदी-पहाड़ों, झरनों, वृक्ष-वनस्पतियों, प्राणियों को एक व्यवस्थित क्रम से संजोकर रखा है। इस सुव्यवस्था और सुंदरता के पीछे अवश्य ही कोई महान लक्ष्य सन्निहित है। मनुष्य अपनी अल्पज्ञता के कारण स्रष्टा के उस सर्वोच्च उद्देश्य को नहीं समझ पाता और उसकी सृष्टि-व्यवस्था को बेतुका मानता और व्यतिरेक उत्पन्न करता रहता है। जिस आश्रयस्थल पर निवास करता है, उस पृथ्वी के बारे में ही उसे बहुत कम जानकारी है। जबकि इसका वातावरण और परिस्थितियाँ इतने विवेकपूर्ण ढंग से विनिर्मित हैं कि यदि उनसे छेड़खानी न की जाए तो इसके चारों ओर गैसों के जो अनेक सुरक्षाकवच बने हुए हैं और अनावश्यक हानिकारक ब्रह्मांडीय विकिरणों से हमारी रक्षा करते हैं, वे अनंतकाल तक वैसे ही बने रह सकते हैं। पृथ्वी की दैनिक और वार्षिक गतियाँ भी इसी तरह निर्धारित हैं कि जीवन-धारण के लिए वे तनिक भी अन्यथा नहीं पड़तीं। ऐसे ही अन्य सभी ग्रह-नक्षत्र भी हैं, जो अपनी-अपनी कक्षा में निर्बाध रूप से गतिमान हैं। उनसे अब तक किसी तरह का व्यतिरेक नहीं आया।

इस प्रकार इन सभी तथ्यों पर गंभीरतापूर्वक विचार करें तो इन्हें सहज संयोग कहकर नहीं टाला जा सकता। इनके पीछे सुव्यवस्था, सुसंतुलन, सुनियोजन, सुनियंत्रण का जो अद्भुत सामंजस्य दिखाई पड़ता है, वह निश्चय ही किसी अदृश्य नियंता के बिना शक्य नहीं। संभव है ब्रह्मांड की इन्हीं सब विशिष्टताओं को देखते हुए प्रसिद्ध वैज्ञानिक मनीषी सर जेम्स जीन्स के यह उद्गार निकल पड़े हों कि, “यह विश्व-ब्रह्मांड किसी तीर-तुक्के की परिणति नहीं, वरन सुनियोजित ढंग से विनिर्मित किसी बुद्धिमत्तापूर्ण सत्ता की सुंदरतम अभिव्यक्ति है।” दार्शनिक स्पिनोज भी अपना मत प्रकट करते हुए यही कहते हैं कि, “यह ब्रह्मांड ईश्वर के ही विचारों का मूर्तरूप है।” महान वैज्ञानिक पास्कल का कहना था कि “दृश्य पदार्थों में अदृश्य रूप से काम करने वाली एक ही सत्ता है, वही इस विराट विश्व का संचालन करती है।” प्रख्यात भौतिकविद् फ्रांसिस थामसन ने सृष्टि संरचना पर अपने उद्गार व्यक्त करते हुए लिखा है कि “संसार की समस्त वस्तुएँ एक अखंड सत्ता से जुड़ी हैं। चाहे वे बड़ी हों या छोटी, उनका परस्पर संबंध इतना प्रगाढ़ व सुनियोजित है कि सभी को आश्चर्य होता है। उसी अचिंत्य-अगम्य सत्ता के इशारे पर सृष्टि के सारे क्रियाकलाप संचालित होते हैं।”

सर फ्रांसिस का यह कथन वस्तुतः उस आप्तवचन की ही याद दिलाता है, जिसमें कहा गया है कि ईश्वर की सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है। उसी ने समस्त जगत को आच्छादित कर रखा है। अतः यह न तो कुछ अनगढ़ है और न बेतुका, वरन सब कुछ योजनाबद्ध ढंग से एक अनुशासित सत्ता द्वारा संचालित हो रहा है। उसी के अनुशासन को जीवन में उतारकर व्यक्ति सही अर्थों में आस्तिक बन सकता है। भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को, श्रीराम ने कौशल्या व काकभुशुंडी को जो विराट रूप दिखाया था, वह यही परब्रह्म का, नियामक सत्ता का रूप है। इसकी उपस्थिति सृष्टि के कण-कण, अपने रोम-रोम में मानते हुए जो अपनी क्रियापद्धति का, जीवनचर्या का सुनियोजन करता है, वही सही अर्थों में ईश्वर का श्रेष्ठ पुत्र— 'युवराज मानव' कहलाने का अधिकारी है।


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