गीता का दिव्य संदेश

January 1989

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वेदांत का भव्य भवन जिन तीन सशक्त आधारों पर टिका है, गीता उनमें से एक है। इसे भारतीय सांस्कृतिक, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक चिंतन का प्रतीक—  प्रतिनिधि माना जाता है। अन्य दो आधार ब्रह्मसूत्र व उपनिषद् प्रकारांतर से इसमें समाहित है। इसमें जहाँ दार्शनिक चिंतन के उदात्त भाव हैं, वहीं नीति, आचार-व्यवहार की विस्तीर्णता— विशालता भी है।

इस महाग्रंथ की वैचारिक उत्कृष्टता एवं व्यावहारिक उपादेयता का आकलनकर समय-समय पर अनेकानेक मनीषियों ने अपने विचारों के लिए इसी से समुचित आधार प्राप्त किए हैं। यही नहीं उसने अपनी बात की प्रामाणिकता इस प्रकार का अवलंबन स्वीकारकर ही की है। इस प्रकार का अवलंबन आज से नहीं, अपितु आचार्य शंकर के भी पूर्ववर्त्ती आचार्यों— बोधायन, एकायन तथा भृत प्रपंच आदि से लेकर परवर्त्ती आचार्यों— रामानुज, मध्वश्रीधर, मधुसूदन, आनंदगिरि आदि ने प्राप्त किया है। प्राचीनकाल की ही तरह विवेकानंद, अरविंद, गांधी, तिलक, विनोबा, राधाकृष्णन आदि ने भी अपने विचारों का संबल ज्ञान के इस महासमुद्र में ही पाया। पूर्व की ही भाँति सर एडविन एरनाल्ड, किस्टोफर ईशरउड, जान डेविड, थोरो, राल्फ वाल्डो इमर्सन, जान डेविस, शोपेनहावर, हर्टमान, पाल डायसन, ई॰ डब्लू हापकिन्स आदि पाश्चात्य विद्वानों ने भी इसका अध्ययन, मनन, चिंतनकर स्वयं को कृतकृत्य किया।

इन सभी मनीषी चिंतकों के देश-काल-मत की भिन्नता के बाद भी सबका एक स्वर से गीता की प्रशंसा करना इसकी समन्वयवादिता तथा सार्वभौमिकता को स्पष्ट कर देता है। सचमुच इसका दिव्य संदेश किसी जाति-देश विशेष के लिए उपादेय न होकर संपूर्ण मानव जाति के लिए है। ऐसा भी नहीं कि इसका लाभ मात्र उन्नत श्रेणी के ज्ञानी या विचारक ही ले सकते है। गांधी जी के शब्दों में यह तो सर्वसाधारण का मार्गदर्शक ग्रंथ है। इसका मातृसुलभ वात्सल्य प्रौढ़ ज्ञानियों की अपेक्षा अबोध— अज्ञानी शिशुओं को अधिक प्राप्त होता है।

यह केंद्रीय भाव, जिसे गीता का महावाक्य भी कहा जा सकता है, इसके अंतरतम का सारतत्त्व है। गीतोपदेश के समस्त जीवन और प्राण का श्वास-प्रश्वास केंद्र है। इसी से उस पवित्र भाव की निर्झरिणी प्रवाहित होती है, जिसके सहारे मनुष्य सीमित मन के रास्ते से असीम— अनंत की ओर चलता है। गीता का यह केंद्रस्थ विचार निर्झरिणी की त्रिविध धाराओं की त्रिवेणी का संगम-बिंदु है। इस पवित्र स्थल की सारी महत्ता एक ऐसी भावना की समन्वय साधकता है, जहाँ मानव की समूची प्रकृति को मान्यता मिलती है। यह महान दार्शनिक संप्रदायों के पीछे रहे हुए मूल औपनिषद् वेदांत के समीप जाती है, क्योंकि यहीं हमें आत्मा, मानव, जीव तथा समष्टि जगत का अत्यंत व्यापक, गंभीर, जीवंत एवं समन्वित दर्शन होता है, परंतु यहाँ जो कुछ अंतर्ज्ञान मंत्ररूप तथा सांकेतिक भाषा से समाहित होने के कारण बुद्धि के समक्ष खुलकर नहीं आ पाता, उसे गीता विचारणा तथा स्वानुभूति के प्रकाश से खोलकर सामने रखती है। इसको देखने के लिए हमें अंदर अज्ञान का आवरण भेदने की अदम्य लालसा जगानी पड़ेगी। बाकी हमारी सत्ता के स्वामी स्वयं देख लेंगे और पूरा करेंगे। यही गीताकार का कथन है।

परम जीवन के इस व्यापक दर्शन के उद्घाटन में ही गीता का एकीभूत अर्थ— गांभीर्य और अनुपम श्री संवर्द्धन है। यहाँ सारे आवरणों को उठा वह स्पष्ट करती है कि वे परमेश्वर सर्वव्याप्त हैं, अतएव मनुष्यों को सबके साथ आत्मैक्य ढूंढ निकालना तथा समस्त पदार्थों व प्राणियों को 'आत्मौक्येन सर्वत्र' अनुभवकर तदनुसार कर्म करना होता है। इसी संगमस्थल में अवगाहन से भागवत सत्ता के अंतर्दर्शन होते हैं तथा सारा अंतर्जगत विश्वमय हो जाता है। यह मिलन उन्हीं परम प्रिय से है, जो माता-पिता-सखा सर्वभूतों के अंतरात्मा के आश्रय हैं। गीतोक्त उपदेश का यही परम और पूर्ण अर्थ है। यही वह ज्ञान है, जिसे प्रकट करने के लिए भगवान वचनबद्ध हुए थे। इस ज्ञान की प्राप्ति के विविध साधनरूप ज्ञान, कर्म और भक्ति को निरूपणकर— इन सबको समन्वयकर वे उस परम वचन को कहते हैं, जिसे अभी रख छोड़ा था। यह छोड़ना मात्र इसलिए था, क्योंकि अभी तक अर्जुन की बुद्धि तर्क-प्रवण थी; पर उसने तर्क की जगह ग्रहणशीलता तथा विनम्रता अर्जित कर ली है। उस परम वचन कहने के पूर्व 'बौद्धिकता का अहं गया कि नहीं', इसका पुनः परीक्षण अथ 'चे त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि' कहकर करते हैं। ग्रहणशीलता, तर्क-प्रवणता की जगह भाव-प्रवणता के बारे में आश्वस्त हो पुनः निष्कर्ष रूप वचनों का गांभीर्य प्रकट करने के लिए 'परमं वच' शब्द का प्रयोग करते है।

पूर्व कथन को— 'इति ते ज्ञान भारव्यातं गुहृयाद् गुह्यतरं मया' अर्थात गुह्य और गुह्यतर बताते हुए महावाक्य की श्रेष्ठता एक बार पुनः इंगित करते हुए उसे सर्वगुह्यतमं बताकर वे भूयः श्रुणु मे परमं वचः' कहते है। इस प्रकार बार-बार निरीक्षण-परीक्षण करने, स्वतः इसको सर्वगुहृतम् तथा परम वचन स्वीकारने से इस महावाक्य की दिव्यता-श्रेष्ठता स्वतः प्रमाणित हो जाती है। इस उपदेश को सुनने का अधिकारी अर्जुन सहज ही हो गया हो, ऐसा भी नहीं है। उसने मन और बुद्धि को परम पुरुष के चरणों में समर्पितकर वह पात्रता अर्जित की थी, जिसके कारण उन्होंने स्वयं कहा— 'ते प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्' आज भी कोई अंतःकरण व हृदय से इस भाव को ग्रहण करे तो वह अर्जुन की तरह अंततः स्वयं भगवत्सत्ता से इस अंतिम आदेश को सुनने का अधिकारी हो सकता है।

इस महावाक्य के महान संगीत का परम स्वर गीता अपने अंतिम श्लोकों में घोषित करती है। "मन्मना भव मद्भक्तो, मद्याजी मां नमस्कुरु। मामैवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥” “सर्व धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज। अहं त्वां सर्वपायेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच॥”

यह महावाक्य ज्ञान-कर्म-भक्ति तीनों की समन्वय साधना का साध्यस्थल है। यहाँ सब कुछ एकत्व में परिणत हो जाता है। अद्वैत, एकमेवाद्वितीयं के उत्कर्ष का स्थल यही है, पर इसका यह चरम लाभ मात्र इसको तोते की तरह रटते रहने मात्र से प्राप्त नहीं होता। इसके लिए तो अर्जुन की तरह 'करिष्ये वचनं तव' की कठोर प्रतिज्ञा में आबद्ध होना पड़ता है। निज की क्षुद्र आकांक्षाओं— अभिलाषाओं को भागवत इच्छा में समाहितकर उसी को सहज स्वीकार करना पड़ता है। ऐसा करने पर ही भागवत प्रतिज्ञा साकार रूप में परिणत होगी।

यह ऐसा संगमस्थल है, जहाँ सारे मत अपना वैचित्र्य त्यागकर एकरूप हो जाते हैं। विलक्षण बुद्धि वाला हो या बुद्धिहीन, सभी यहाँ शांति प्राप्त करते हैं, क्योंकि सारा मर्म आचरण में निहित है। आचरण ही इस महावाक्य की व्याख्या है। इस महावाक्य का चालीस वर्षों तक निरंतर मननकर आचरण में उतारने वाले गांधी जी ने गीता माता में अपने सार-निष्कर्ष को स्पष्ट करते हुए लिखा है— “गीता के अनुसार आचरण करने में प्रतिदिन निष्फलता प्राप्त होती है, इस निष्फलता में हम सफलता की उगी हुई किरणों की झाँकी देखते है।"

उनके ये शब्द यथार्थ हैं। प्रारंभ में हमारा अनगढ़ मन संभव है निष्फल हो, पर परिपूर्ण निष्ठा से 'करिष्ये वचनं तव' की प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए जुट पड़ने से हमारा जीवन वर्त्तमान जटिलताओं से उबरकर ज्योतिर्मय शिखरों तक सुनिश्चित रूप में जा पहुँचेगा।


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