सहयोग-सहकार पर निर्भर जीवन-व्यापार

January 1989

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

इस विश्व में कोई भी पूर्णतया एकाकी अपने बलबूते समर्थ, सक्षम नहीं है। पारस्परिक सहयोग पर ही प्रगतिक्रम निर्भर है। विज्ञान की अनेकानेक विधाएँ भी एकदूसरे से अविछिन्न रूप से जुड़ी हुई हैं। यदि इन्हें अलग-अलग कर दिया जाए तो सर्वांगपूर्ण प्रगति पूर्णतया असंभव है। सृजेता का यह शाश्वत विधान है एवं अस्तित्व हेतु एक अनिवार्य शर्त है कि सभी में पारस्परिक सहयोग एवं तालमेल हो।

प्रकृति, जंतु एवं वनस्पति परस्पर एकदूसरे से घनिष्ठतापूर्वक संबंधित हैं। पृथ्वी-जल-वायु तथा गणित जीवनोपयोगी पदार्थ प्रकृति के घटक हैं। प्राणियों तथा वनस्पतियों के रूप में गतिशील जीवन का इन सबके आपसी सहयोग एवं संतुलन के आधार पर ही अपना अस्तित्व है। प्रतीत भर होता है कि सभी घटक अलग-अलग हैं, पर सच्चाई यह है कि एक अभिन्न चक्र से सभी जुड़े हैं। एक ही माला के दाने हैं। एक की गति, स्थिति से समूचा चक्र प्रभावित होता है और तदनुरूप प्रतिक्रिया दर्शाता है। इकॉलाजी के विशेषज्ञों का मत है कि प्रकृति-चक्र की अपनी स्वसंचालित प्रक्रिया है। यदि उसमें छेड़खानी न की जाए तो वह सतत गतिमान रहते हुए भी अनेकानेक अनुदानों से जीव-जगत की सेवा करता रह सकता है।

प्रकृति जगत के उदाहरणों की ही शृंखला में वातावरण में घुली गैसों को देखें। गैस रूप में विद्यमान ये रासायनिक तत्त्व जीवधारियों के द्वारा अवशोषित होकर पोषक तत्त्वों में बदल जाते हैं। कार्बन डाई ऑक्साइड— कार्बोहाइड्रेट में तथा नाइट्रोजन— प्रोटीन में बदल जाती है। आहारचक्र के अंतर्गत अन्यान्य अंग-अवयवों से गुजरते हुए वे अपने मूल स्वरूप में उत्सर्जन-श्वसन के माध्यम से वापस कर दिए जाते हैं। भूमिगत रासायनिक तत्त्वों का चक्र भी इसी प्रकार संचालित होता रहता है। वहाँ विद्यमान बैक्टीरिया की भूमिका भी उसी प्रकार की है।

पत्थरों के अपक्षयन से खनिज उत्पन्न होते हैं, जो लवणों के रूप में मिट्टी अथवा समुद्र, झरना, नदी आदि में मिल जाते हैं और जलचक्र के अभिन्न अंग बन जाते हैं। पौधे, प्राणी इन खनिज लवणों को ग्रहण करते हैं और फिर आहारचक्र की शुरुआत हो जाती है। अवशिष्ट पदार्थों के नियोजन तथा अंगों के अपक्षरण से खनिज तत्त्व पुनः लवण एवं जल के रूप में वातावरण को हस्तांतरित कर दिए जाते हैं। इस प्रकार यह चक्र सतत चलता रहता है। कभी भी इसमें कोई व्यतिक्रम नहीं आता।

इस 'बायो जियो केमिकल साइकिल्स' द्वारा जीव-जगत से उत्पन्न अवशेषों का प्रयोग दूसरे समुदाय द्वारा कर लिया जाता है, यह और भी महत्त्वपूर्ण है। एक का अवशिष्ट पदार्थ, दूसरे का ऊर्जास्रोत अथवा आहार बन जाता है। प्राणियों के अवशिष्ट पदार्थों में मिली नाइट्रोजन जीवाणुओं का आहार बन जाती है। जीवाणु भूमि को उपजाऊ बनाते हैं। मिट्टी से पौधे पोषण प्राप्त करते हैं। पौधों से पशुओं को आहार मिलता है। जीवों द्वारा उत्सर्जित विष के समान कार्बन डाई ऑक्साइड पौधों का जीवनाधार है। यह इस प्रकार एक अविराम गतिचक्र चलता रहता है।

इसी प्रकार प्रजनन, पोषण, अभिवर्द्धन, परिशोधन एवं संतुलन का स्वसंचालित गतिचक्र प्रकृति में चलता रहता है, जो प्रकृति के विभिन्न घटकों के पारस्परिक सहयोग पर आधारित है। जन्म एवं विकास की तरह मृत्यु एवं विनाश भी उस जीवन चक्र के गति एवं संतुलन के लिए आवश्यक है। पदार्थों के गतिचक्र में दृष्टिगोचर सहयोग-सहकार तथा उनसे उत्सर्जित होने वाले ऊर्जा-प्रवाह पर ही जीवों का जीवन अवलंबित है। जड़ समझे जाने वालों में भी यह सहयोग चक्र गतिशील है। जल के वाष्पीकरण, जमाव तथा पत्थरों के उद्भव एवं कटाव के रूप में भी इसी सहजीवी चक्र की क्रियाशीलता नजर आती है।

प्रत्येक जीवनदायी पदार्थ में जलीय अंश होता है। जीवधारी जब उन्हें ग्रहण करते हैं तो उसका जल कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, फास्फोरस एवं सल्फर को कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा तथा अन्य पोषक तत्त्वों में बदल देता है। पौधे मिट्टी से पोषक तत्त्वों के रूप में नाइट्रेट, अमोनिया  एवं सल्फेट आदि प्राप्त करते हैं। वे प्रकाश-संश्लेषण की प्रक्रिया से ऑक्सीजन को वायुमंडल में छोड़ते रहते हैं। वातावरण में प्रचुर मात्रा में पाई जाने वाली नाइट्रोजन एक निष्क्रिय गैस है, जो जीवधारियों द्वारा सीधे प्रयोग नहीं की जा सकती, जबकि यह जीवन की प्रमुख इकाई है; पर पारस्परिक सहयोग की महत्ता एवं प्रकृति की व्यवस्था विलक्षण है। एक अन्य प्रक्रिया से इस गैस को प्रयोग योग्य बना देती है। जीवाणुओं की कुछ जातियाँ तथा एल्मी की कुछ जातियाँ इस गैस को उपयोग में लाती हैं तथा वायुमंडल से खींचकर मिट्टी में छोड़ देती हैं। मिट्टी के जीवाणु नाइट्रोजन को अमोनिया में बदल देते हैं।

इस तरह प्रकृति में विभिन्न प्रकार के सहयोग चक्र सतत चलते रहते हैं। अपनी अलग-अलग भूमिका संपन्न करते हुए भी वे परस्पर एकदूसरे से अन्योन्याश्रित रूप से जुड़े हुए हैं। जल का भी एक सहयोग चक्र है, जो पृथ्वी, सूर्य और समुद्र के सहयोग से गतिशील है। पृथ्वी एवं समुद्र का जल सूर्य के प्रकाश से वाष्पीभूत होकर वायुमंडल में पहुँचता, घनीभूत होकर बादलों में बदलता तथा पुनः वर्षा के रूप में पृथ्वी एवं नदियों को लौटा दिया जाता है, जो पुनः समुद्र में जा पहुँचता है। जल के विश्वव्यापी वितरण का लेखा-जोखा लिया जाए तो ज्ञात होगा कि जलवृष्टि से पृथ्वी को प्राप्त जल की मात्रा, वाष्पीकृत जल के ही समतुल्य होती है। आस्ट्रेलिया एवं अफ्रीका में सूखे की स्थिति बनी रहने का कारण यह है कि वहाँ वर्षा के जल का तीन-चौथाई भाग वाष्पीभूत हो जाता है।

जल एवं गैसों के अतिरिक्त ऊर्जा का भी सहयोग चक्र सर्वत्र सक्रिय है। गति अथवा विकास के लिए चेतन, प्रेरणा एवं शक्ति पादप एवं जंतु उसी से प्राप्त करते हैं। इस चक्र के अध्ययन की तकनीक भी रेडियो, आइसोटोप, माइक्रो कैलोरी मेट्री स्पेक्ट्रोफोटोमैट्री कम्प्यूटर साइंस एवं एप्लायड गणित के सम्मिलित सहयोग से ही विकसित हुई है। ऊर्जा का प्रमुख स्रोत सौर विकिरण है। इसका कुछ अंश आटोट्राय प्रक्रिया द्वारा जैविक पदार्थ में बदल दिया जाता है, जिससे समस्त भूमंडल की आवश्यकता की पूर्ति होती है, आहारचक्र में जीवधारियों के एक समुदाय की आहार-ऊर्जा परिवर्तित रूप में दूसरे समुदाय को हस्तांतरित कर दी जाती है।

प्रकृति के इन विभिन्न चक्रों के युग्म एवं पारस्परिक सहयोग से सृष्टि में जीवन विविध रूपों में अठखेलियाँ कर रहा है। एक की गति-स्थिति में परिवर्तन का सीधा प्रभाव समूचे इकोलाजिकल चक्र पर पड़ता है। पादपों, जंतुओं, सूक्ष्म जीवाणुओं, मनुष्यों तथा संबंधित पर्यावरण के सह अस्तित्व एवं सम्मिलित जटिलतम प्रणाली को इकोसिस्टम कहा जाता है। इस संतुलन के कारण ही प्रकृति के सभी व्यापार ठीक ढंग से चलते हैं। प्रत्येक इकोलाजिकल सिस्टम हजारों-हजार जैविक समुदायों के सहयोग से मिलकर बना है, जो ऊर्जा रासायनिक द्रव्यों का हस्तांतरण सुनियोजित ढंग से एक से दूसरे में करता रहता है।

प्रकृति ही नहीं, समस्त मानव जाति भी परस्पर सहकार के जीवन चक्र में बँधी हुई है। एक की स्थिति दूसरे को प्रभावित करती है। सब की सुख-शांति, प्रगति-उन्नति इसी बात पर आधारित है कि हर व्यक्ति अपने को विराट परिवार का अभिन्न अंग माने, उसके विकास, अभिवर्द्धन में सहयोग दे। व्यक्तिगत स्वार्थ की भी स्थाई रूप से आपूर्ति तभी संभव है, जब समाज सर्वतोमुखी विकास की ओर चले। संकीर्णता जहाँ कहीं भी अंकुरित होगी, विलगाव का विषवृक्ष ही पुष्पित-पल्लवित होगा। हिल-मिलकर रहने, सहयोग-सहकार की रीति-नीति अपनाने तथा उपलब्धियों के आदान-प्रदान की उदारता बरतने का संदेश मानवमात्र को प्रकृति सतत देती रहती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118