प्रत्येक ज्ञान का स्रोत अनुभव है। विश्व में धर्म ही एक ऐसा है, जिसमें एक मत नहीं है, क्योंकि इसका शिक्षण अधिकांशतया अनुभव के आधार पर नहीं होता है; इसीलिए सुविख्यात भौतिकशास्त्री एवं चिंतक श्री अलबर्ट आइंस्टीन अपने एक निबंध में कहते हैं कि, “यदि मुझसे कोई जिज्ञासा करे कि विज्ञान क्या है? तो में पूरे साहस के साथ कह सकूंगा कि शताब्दियों के कठिन प्रयत्नों से हुए प्रयोग-परीक्षणों से प्राप्त तथ्यों का सुसंबंध ज्ञान है, किंतु यदि मुझसे कोई जानना चाहे कि धर्म क्या है? तो मुझे इसका उत्तर देना अत्यधिक कठिन होगा।
वह स्पष्ट करते हुए कहते है कि, “धर्म के बारे में मेरे मानस में यह कल्पना उठती है कि जिस व्यक्ति ने धर्म को आत्मसात किया है, वह कैसा होगा? धर्म के दिव्य प्रकाश से अभिपूरित व्यक्ति अवश्य ही योग्यता-प्रतिभा में सर्वोत्तम विशाल हृदय वाला, स्वार्थपूर्ण इच्छाओं तथा पूर्वाग्रहों से मुक्त होगा। इस सबके अतिरिक्त उसमें एक ऐसी शक्ति होगी, जो उसे परमसत्ता से एक करती है। अन्यथा बुद्ध और स्पिनोजा जैसे व्यक्तियों को भी धार्मिक कहना असंभव होता।”
धर्म का शिक्षण भी अनुभव के आधार पर ही होना चाहिए। यद्यपि ऐसे अनुभव प्राप्त व्यक्ति कम ही होते हैं, किंतु इनका सर्वथा अभाव किसी काल में नहीं होता है। पश्चिमी जगत में इन्हें रहस्यवादी कहते हैं। यह व्यक्ति किसी भी धर्म के हों, एक समान सत्य का शिक्षण करते हैं।
चर्च या किसी अन्य धार्मिक स्थल पर तथा कथित धार्मिक लोग पहले धर्म का शिक्षण करते तदुपरांत अभ्यास करते हैं। उनका शिक्षण अनुभव के आधार पर नहीं, अपितु विश्वास के आधार पर होता है। जबकि रहस्यवादी पहले स्वयं इस परम सत्य को अपनी आत्मा के अनुभव करते हैं, तत्पश्चात् इसका शिक्षण देते हैं।
भारतीय विचारकों ने इस सबका समाधान शताब्दियों-सहस्राब्दियों पूर्व ही कर दिया था। वस्तुतः धर्म तत्त्वज्ञान के शाश्वत सत्य को उसी प्रकार समझाता है, जैसे कोई रसायनज्ञ अथवा प्रकृतिशास्त्र का पंडित भौतिक जगत के तथ्यों को निरंतर प्रयोग-परीक्षणों के आधार पर समझाते हैं। हमारा मन और हृदय विज्ञान जिस विद्यालय में सीखा जाता है— वह है प्रकृति। अध्यात्मवादी विज्ञान के सत्यों से अनभिज्ञ रहने के कारण ही दुविधा में पड़ते हैं; क्योंकि उन्होंने मात्र अंतर्जगत का ही अध्ययन किया है। इसी प्रकार वैज्ञानिक धर्म के बारे में कुछ नहीं जानता, क्योंकि वह बहिर्जगत में ही उलझा रहता है।
विज्ञान के विविध विषयों के शिक्षा की विविध विधियाँ हैं। इसी प्रकार अध्यात्म विज्ञान की शिक्षण विधियाँ भी भिन्न हैं। वाह्यजगत की तरह मानवमात्र का स्तर भी समान नहीं होता। प्रकृति की विभिन्नता के कारण शिक्षण विधियों की भिन्नता स्वाभाविक ही है। फिर भी यह शाश्वत सत्य स्वीकार किया जाना चाहिए कि लक्ष्य इन सबका एक ही परमसत्य की खोज है।
यह एक जाना-माना, सुनिश्चित तथ्य है कि प्रत्येक धर्म का अंत और उद्देश्य परम सत्ता को जानना और उससे एक हो जाना ही है। सबसे बड़ा शिक्षण यही है कि हम ब्राह्मजगत के कर्म तथा अंतर्जगत का चिंतन निस्वार्थ भाव से— ईश्वर के प्रति समर्पित भाव से करें। प्रत्येक व्यक्ति अपने आदर्शों का चुनावकर निष्ठा के साथ उन्हें आत्मसात करने के लिए प्रयास -पुरुषार्थ करे। श्री रामकृष्ण ने इन सबको एक ही सूत्र में स्पष्ट किया है। 'जतो मत-ततो पथ।'