विचित्र— विलक्षण यह सृष्टि

January 1989

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मनुष्य नियंता की बुद्धिमत्तापूर्वक विनिर्मित संरचना है। उसे सोचने-समझने के लिए मस्तिष्क दिया गया है। इस शक्तिशाली कम्प्यूटर के सहारे ही वह अपनी जिज्ञासा को जगाते हुए अविज्ञात को कुरेदता रहता, रहस्यों पर से परदा उठाता चला आया है। यही कारण है कि वैज्ञानिक आविष्कारों की इस सदी की समापन अवधि में जी रहे हम सब जो भी कुछ अपने चारों ओर देखते हैं, उसे विलक्षण, अद्भुत पाते हैं। आदिमानव ने अग्नि से जो आविष्कार शृंखला आरंभ की थी, वह पहिए बनाने, आच्छादन जुटाने से लेकर अंतरिक्ष में मानव भेजने की वर्त्तमान स्थिति तक आ पहुँची है। लगता है कि हम यांत्रिक सभ्यता के चरम शिखर पर पहुँचते-पहुँचते जो जीवन जिएंगे, वह आज से बिलकुल ही अलग, नया, अत्याधुनिक होगा। वैज्ञानिक यूटोपिया अब सत्य होते लगते हैं व प्रतीत होता है कि जो कुछ भी एच॰जी॰ वेल्स ने इस सदी के प्रारंभ में टाइम मशीन के बारे में लिखा था, सच होकर ही रहेगा।

इतना सब कुछ होते हुए भी, वैज्ञानिक प्रगति की चरमावस्था में पहुँचने पर भी लगता है कि अभी भी इतना कुछ है, जो अबूझ है, ज्ञात नहीं है, ज्ञात है तो उसका कारण — विज्ञानसम्मत स्पष्टीकरण नहीं है। पिंड व ब्रहमांड दोनों में ही अविज्ञात के गर्भ में इतने रहस्य छिपे हैं, जो परिलक्षित तो होते हैं, पर यह समझ नहीं आता कि विधाता की व्यवस्था में यह विचित्रता अपवाद रूप में कैसे विद्यमान है? प्रकृति नटखट तो है नहीं, जो स्वतः ऐसी विचित्रताएँ रच दे; पर जो दृष्टिगोचर होता है, उस पर अविश्वास भी तो नहीं किया जा सकता। लगने लगता है कि अभी हमें बहुत कुछ जानना शेष है। शोध की यात्रा का अंतिम पड़ाव अभी बहुत दूर है, यह यात्रा अंतहीन भी हो सकती है। इस अंतहीनता में ही छिपा है नियंता का अचिंत्य, अगम्य, अगोचर स्वरूप।

मानवी मस्तिष्क की हम चर्चा कर रहे थे। उसे ही लें। हम यही मानते रहे हैं कि मानवी मस्तिष्क का 87 प्रतिशत अविज्ञात-क्षेत्र प्रतिभा, अतींद्रिय क्षमता, विलक्षण सामर्थ्य का केंद्र है। यहीं कहीं 'डार्क एरिया' — 'सायलेंट एरिया ऑफ ब्रेन' है, जिसमें मानवी मस्तिष्क के विकास की अनंत संभावनाएँ छिपी पड़ी हैं, पर पिछले दिनों एक गणित के छात्र ने इस तथ्य को झुठला दिया। विश्वास नहीं होता, पर यह सत्य है कि मात्र पौने दो इंच की मोटाई की चपटी ग्रे मैटर की बाह्य परत वाली अल्प मात्रा के रूप में अपनी सामान्य से बड़ी खोपड़ी में मस्तिष्क को धारण करने वाले शेफील्ड यूनिवर्सिटी इंग्लैंड के इस छात्र को अत्यंत प्रतिभाशाली पाया गया। विश्वविद्यालय के चिकित्सक ने जुकाम की शिकायत लेकर आए इस किशोर के मस्तिष्क को देखते ही यह डायग्नोसिस कर ली कि इसकी खोपड़ी औसत से काफी अधिक बड़ी है एवं इसे हायड्रोसिफेलस नामक बीमारी है। विश्वविद्यालय ने प्रसिद्ध स्नायु विज्ञानी प्रो. फेसर जाॅन लोर्बर से संपर्ककर उनसे निवेदन किया कि 180 'इंटेलीजेन्सक्बोशेंट' वाले इस मेधावी छात्र की जाँच करें व बताएँ कि मस्तिष्क के स्थान पर पानी भरा होने के बावजूद यह औरों की तरह अल्पमंद क्यों नहीं है? यह एक सर्वविदित तथ्य है कि ऐसे रोगियों के मस्तिष्क के वेंट्रीकल्स में पानी भर जाने के कारण दबता-पतला होता चला जाता है, यहाँ तक कि मात्र पाँच प्रतिशत मात्रा उसकी होती है एवं ऐसे रोगी न केवल अल्पमंद-विकलांग होते हैं, चिकित्सा न की जाए तो शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।

प्रो. लोर्बर ने कैट (कम्प्यूटराइज्ड एम्जियल टोमोग्राफी) स्कैनिंग तथा पैट (पाॅजीट्रान इमीशन टोमोग्राफी) स्कैनिंग जैसे अत्याधुनिक परीक्षण किए व यह निष्कर्ष पाकर दंग रह गए कि इस छात्र में मस्तिष्क नाममात्र को भी नहीं है, सब कुछ पानी-ही-पानी है। यह पानी और कुछ नहीं, सेरिब्रोस्पाइनल फ्ल्यूड (सी॰एस॰एफ॰) होता है, जो मस्तिष्क व सुषुम्ना की पोली नलियों व गह्वरों में विद्यमान होता है। सतत बनता व शिराओं द्वारा अवशोषित होता रहता है। हाइड्रोसिफेलस नामक व्याधि में यह अवशोषण प्रक्रिया बंद हो जाती है एवं द्रव्य खोखली खोपड़ी में भरता व लिबलिबे मस्तिष्कीय ग्रे मैटर को हटाता चला जाता है, जब तक कि दबाव से वह नगण्य के बराबर न रह जाए। ऐसी खोपड़ी का व्यास भी सामान्य से सवा या डेढ़ गुना अधिक होता है। इस द्रव्य को एक नली द्वारा शंट करके पेट की पेरिटोनियम नामक झिल्ली तक लाकर छोड़कर अवशोषित किए जाने की प्रक्रिया एक ऑपरेशन द्वारा पूरी की जाती है। यह समय पर कर ली जाए तो मस्तिष्कीय ग्रे मैटर को अपरिवर्तनीय हानि से बचाया जा सकता है, पर बहुसंख्या में ऐसा हो नहीं पाता।

डाॅ. लोर्बर ने इस अपवादी रोगी को पाने के बाद जिंदा रहे बड़ी खोपड़ी वाले हाइड्रोसिफेलस के सौ से भी अधिक रोगी ढूंढ निकाले हैं व सभी को सामान्य से अधिक मेधावान, प्रतिभाशाली पाया है। वे कहते हैं कि समझ में नहीं आता कि सामान्यतया प्रतिभा वाला कार्य जो मस्तिष्क के दो हेमीस्फियर (गोलार्ध) पूरा करते हैं, वह कहीं और स्वल्प मात्रा में बचे ग्रे मैटर या किसी अविज्ञात केंद्र द्वारा कैसे संपन्न होने लगता है? इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि मस्तिष्क नहीं, कोई और ही सत्ता शरीर में है, जो प्रतिभा-मेधा-बौद्धिक विकास के लिए उत्तरदायी है। अतः स्थूल मस्तिष्क में कुरेदबीन एक व्यर्थ का ही शगल है, जिसे स्नायुविज्ञानी नहीं करें तो अच्छा। डा॰ लोर्बर के निष्कर्ष पुस्तक 'स्ट्रेंज स्टोरीज अमेजिंग फैक्ट्स' 2 आर.डी.आय. पब्लिकेशन 1988 में छपे हैं व सारे वैज्ञानिकों को चुनौती देते हैं कि बताओ — शरीर में प्रतिभा का केंद्र कहाँ है। वस्तुतः ऐसे अविज्ञात रहस्यों का कोई जवाब नहीं।

खब्बू व्यक्तियों की चर्चा प्रायः होती रहती है कि वे प्रतिभाशाली होते हैं। खब्बू अर्थात बायें हाथ से काम करने वाले लोग, जिनका दायाँ मस्तिष्क, बायें से अधिक सक्रिय है, विश्व की पूरी जनसंख्या में यह अनुपात 10 से 15 प्रतिशत का है। सामान्यतया दायें हाथ से काम करने वाले ही अधिक पाए जाते हैं एवं यह निर्धारण आनुवांशिकी के आधार पर दो वर्ष के प्रारंभ तक हो जाता है कि कौन बायें हाथ से काम करने वाला होगा, कौन दायें हाथ से? विजुअल स्किल्स (देखकर कुशलता हासिल करना) कल्पनाशीलता एवं कलाकारिता जैसी कुछ विशेषताएँ दायें मस्तिष्क के निर्धारण हैं। पाया गया है कि कलाकारों में चालीस प्रतिशत से अधिक बायें हाथ से काम करने वाले होते हैं। इनमें चित्रकार भी हैं, गायक भी, लेखक भी तथा शिल्पी भी; किंतु इन सब के मूल में एक तथ्य और रह जाता है, जो हमें अविज्ञात की ओर ले जाता है। वैज्ञानिक कहते हैं कि आनुवांशिकी के अलावा एक और कारण है, जो किसी को खब्बू बनाता है। थोड़ी-सी, पकड़ में न आने वाली मस्तिष्कीय चोट, जो गर्भगुहा से बाहर आते समय मस्तिष्क को हो जाती है, चालीस प्रतिशत बायें हाथ से काम करने वालों में मूल कारण होती है। इसके अतिरिक्त तीस प्रतिशत में कोई बड़ी चोट होती है, जो गर्भकाल में या बाहर आते समय बच्चे के मस्तिष्क को प्रभावित करती है, किंतु यह चोट काम करती है। खब्बू लोगों के दोनों मस्तिष्क गोलार्धों को जोड़ने वाला 'कार्प-कैलोजम' नामक तंतु समूह, दायें हाथ से काम करने वालों की तुलना में अधिक सशक्त होता है। संभवतः यही कारण है कि ऐसे लोग हर विधा में प्रवीण होते हैं। कौन-सा कारण किसी को खब्बू बना देता है, यह अभी भी अविज्ञात ही है?

आँसू तो सब एक जैसे ही होते हैं, यह मोटी दृष्टि से कोई भी कह सकता है। पर वैज्ञानिक शोधों ने विश्लेषण द्वारा यह पाया गया है कि किसी बाह्य कारण से जैसे प्याज के कारण निकले आँसू व करुणा भरे रुदन से निकले आँसू रासायनिक दृष्टि से भिन्न होते हैं। लेक्राइमल ग्लैंड नामक एक ही ग्रंथि, जो आँख के बायीं ओर ऊपरी पलक में स्थित होती है, वैसे दो भिन्न प्रकार के आँसू बनाती है, यह अभी तक समझा नहीं जा सका है। मिनीसोटा के सेंटपाल — रैम से मेडीकल सेंटर के बायो केमिस्ट डाॅ. विलियम एच. फ्रे ने दो स्वयंसेवक दल बनाए। एक को एक घंटे तक अंदर तक दुखी कर देने वाली करुण फिल्म दिखाई गई, दूसरे दल की आँखों के सामने ताजे कटे प्याज रखकर आँसू एकत्र किए गए। मात्रा दोनों में समान थी। आँसुओं को एकत्रकर विश्लेषण करने पर पाया गया कि भाव-संवेदनाओं से उत्पन्न आँसुओं में उत्तेजना से उत्पन्न आँसुओं की तुलना में प्रोलेक्टीन, ए॰सी॰टी॰एच॰ एवं ल्यूसीन एनसेफेलीन जैसे प्रोटीन बाउंड हारमोन्स अच्छी खासी मात्रा में पाए गए। प्रोलेक्टीन का आँसुओं में पाया जाना एक और तथ्य बताता है कि महिलाएँ पुरुषों की तुलना में संवेदनशील क्यों अधिक होती हैं? क्यों अधिक रोती हैं? डाॅ. फ्रे का कहना है कि, "प्रोलेक्टीन महिलाओं में स्तन में दुग्ध निर्माण व उत्सर्जन प्रक्रिया के लिए उत्तरदायी है। इसी कारण इसका अनुपात महिलाओं में अधिक पाया जाता है" वस्तुतः कौन दुखी है, कौन भावुक है? संवेदनशील है? यह रक्तविश्लेषण, मनोविश्लेषण से नहीं, आँसुओं के विश्लेषण से भली−भाँति पता लगाया जा सकता है: पर यह सब क्रिया कहाँ से होती है? कौन संरचना में तुरंत अंतर लाकर गिने-चुने प्रोटीन्स, हारमोन्स बढ़ा देता है? यह अभी तक समझा नहीं जा सका है।

मानवी काया की साधारण संरचना में निहित विलक्षणता का वर्णन किसी पुस्तक तक सीमित नहीं किया जा सकता। जितना भी विज्ञानवेत्ताओं द्वारा संभव है, इन गुत्थियों को सुलझाने, ज्ञानसंपदा बढ़ाने का प्रयास करते रहते हैं, पर कई व्यक्ति ऐसे अपवाद रूप में जन्म लेते हैं, जिनकी एक अद्भुतता हमें अचंभित कर देती है। कहीं कोई वैज्ञानिक समाधान हमें इनमें विद्यमान उस सामर्थ्य के मूल में छिपे कारण मिल नहीं पाता। 'चलते फिरते मानव चुंबक' इसी श्रेणी में आते हैं। जाॅपलिन-मिसूरी (यू॰एस॰ए॰) के फ्रेंक मैंकिंस्ट्री को घर से बहार जाते समय यह ध्यान रखना होता था कि कहीं भी वे रुकें नहीं। रुकते ही उनके पैर सड़क से चिपक जाते थे, मानो चुंबक लोहे से चिपक जाता है। वे प्रतीक्षा में रहते थे कि कोई व्यक्ति आए, उन्हें खींचकर सड़क से अलग करे व आगे बढ़ाए।

नारमंडी फ्रांस की 14 वर्षीय एंजेलीक काॅटिन नाम की लड़की वर्षों तक वैज्ञानिकों के लिए एक गुत्थी बनी रही। उसमें कारखाने में बैठे-बैठे दस्ताने बुनते-बुनते एक क्षमता उभर आई। वह जिन लकड़ी के करघों पर काम करती, उसका हाथ स्पर्श होते ही वे मुड़ जाते, बिस्तर पर लेटती, तो वह खड़ा हो जाता, कुर्सी पर बैठती तो वह पीछे खिसक जाती। उसकी उँगली के स्पर्श मात्र से कमरे का फर्नीचर लट्टू की तरह गोल घूमने लगता था। पेरिस की साइंस अकादमी के वैज्ञानिकों ने उसे जाँचा-परखा व विद्युत चुंबकीय क्षमता का चमत्कार मानकर आगे कुछ कह न सकें। क्रमशः दस सप्ताह बाद यह क्षमता उसकी घटते-घटते समाप्त हो गई व वह सामान्य लड़की की तरह जीवन जीने लगी।

जो हम नहीं जानते, जानने का प्रयास करते हैं, पर समझ नहीं पाते, वह क्या है? प्रकृति की इस विराट व्यवस्था में बहुत कुछ ऐसा है, जिसका कोई बुद्धिसम्मत उत्तर नहीं, कोई ऐसा समाधान नहीं, जो उस घटना या स्थिति का कारण बता सके। विचित्र-विलक्षण-अविज्ञात की यह शृंखला बहुत बड़ी है। जितना मनुष्य गुत्थियाँ हल करता है, उस विराट को, नियंता को, जिसने यह सृष्टि बनाई, मानवमात्र को बनाया — 'अणोरणीयान् महतो महीयान्' कहकर मनीषी चुप हो जाते हैं। उस विराट-अगोचर-अद्भुत सत्ता का एक अंश भी हमारे अंदर समा सके तो हम कृतकृत्य हो सकते हैं।


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