प्राणशक्ति के संवर्द्धन हेतु प्रयोग-उपचार!

January 1989

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साँस को जीवन कहते हैं। मनुष्य को कितना जीना है, यह अनुमान उसकी श्वास-प्रश्वास की क्रिया को देखकर सहज ही लगाया जा सकता है। मृत्यु का मोटा ज्ञान साँस चलना बंद हो जाने से किया जाता है। नाड़ी की धड़कन बंद होना श्वास बंद होने का ही लक्षण है। श्वास का सामान्य आवागमन ही फेफड़ों में तथा अन्य अंग-अवयवों में सिकुड़ने-फैलने की हलचल उत्पन्न करता है। उसी से दिल धड़कता है— रक्तसंचार होता है और माँसपेशियों का आकुंचन-प्रकुंचन क्रम चलता है। जिस प्रकार पेंडुलम का हिलना घड़ी की गतिविधियों को स्वसंचालित रखने का आधार होता है, उसी प्रकार श्वास-प्रश्वास क्रिया को एक प्रकार से समस्त हलचलों का उद्गम केंद्र कहा जा सकता है।

फेफड़ों का आकुंचन-प्रकुंचन— उसकी क्रियाशीलता जीवन का प्रथम चिह्न है। गर्भस्थ शिशु के फेफड़े तो होते हैं और दिल भी लप-डप करता रहता है, पर यह भी एक तथ्य है कि उसके फेफड़े तब बंद रहते हैं। रक्त की सफाई— प्राणवायु की आपूर्ति माँ के श्वसनतंत्र द्वारा ही संपन्न होती रहती है। प्रसवोपरांत जैसे ही नवजात शिशु प्रथम बार रुदन करता है, उसके फुफ्फुसीय कोश खुल जाते हैं और स्वतंत्र रूप से अपना कार्य करने लगते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि फेफड़ों को क्रियाशील होने की आरंभिक प्रक्रिया में यदि तीन मिनट की देर हो जाए तो बच्चे की मृत्यु हो जाती है। इससे कम समय में ऑक्सीजन का मानसिक स्तर गिर जाता है, चिकित्सा विज्ञान भाषा में जिसे— 'ऐनोक्साया ऑफ दी ब्रेन' कहते हैं। इससे अल्पमंदता, मिर्गी जैसे कई मनोविकार पैदा हो जाते हैं। फेफड़े और हृदय शरीर के स्थूल अवयव मात्र दिखते हैं, पर इनमें रक्तसंचार और वायु के आवागमन के अतिरिक्त जीवनदायी सूक्ष्मप्राण का भी सतत प्रवाह होता रहता है। यदि इसके नियंत्रण-नियमन का विज्ञान जाना-समझा जा सके तो शारीरिक अवयवों की क्रियाशीलता को अक्षुण्ण रखा और बीमारियों से छुटकारा पाया जा सकता है। तब निरोग एवं दीर्घ जीवन का सुयोग सहज ही उपलब्ध हो जाता है।

सामान्यतया हम में से अधिकांश व्यक्ति साँस की— प्राण की महत्ता को नहीं जानते और साधारण रूप से चलने वाली उथली तथा अव्यवस्थित श्वसन क्रिया पर ही निर्भर रहते हैं। इसमें फेफड़ों के 1/6 वें भाग का ही श्वसन क्रिया में उपयोग हो पाता है, शेष निष्क्रिय पड़ा रहता है। इस प्रकार आधे-अधूरे, अस्त-व्यस्त तरीके से चलने वाली साँस से न केवल फेफड़ों की कार्यक्षमता घटती है, वरन अनेकानेक शारीरिक-मानसिक आधि−व्याधियों का शिकार बनना पड़ता है। यदि श्वास-प्रश्वास क्रिया का विस्तार किया जा सके, प्राण के आयाम को बढ़ाया जा सके, तो शारीरिक-मानसिक आरोग्य के साथ ही शक्ति उपार्जन का लाभ भी सहज ही उपलब्ध हो सकता है। श्वास-प्रश्वास की क्रिया को क्रमबद्ध-लयबद्ध-तालबद्ध करने— उसकी साधारण अनवरत प्रक्रिया की अव्यवस्था को दूरकर व्यवस्था के बंधनों में बाँधने की प्रक्रिया का नाम 'प्राणायाम' है। अध्यात्म साधनाओं में आंतरिक परिशोधन, पवित्रता संवर्द्धन, प्राण-ऊर्जा के उन्नयन का महत्त्वपूर्ण कार्य इसी के माध्यम से संपन्न होता है। शारीरिक आरोग्य का लाभ तो इससे सर्वविदित ही है। फेफड़े सुदृढ़ होने, अधिक मात्रा में प्राणवायु के शरीर में प्रवेश करने से जीवन तत्त्व भी अधिक मिलते हैं और परिशोधन की गति भी तीव्र होती है। स्थूल और सूक्ष्मशरीरों पर स्वास्थ्य-संवर्द्धन और मानसिक परिष्कार में प्राणायाम का प्रत्यक्ष प्रभाव होता है। कारणशरीर के भाव-संस्थान पर भी इस साधन की उपयुक्त प्रतिक्रिया होती है। कुसंस्कारों, दोष-दुर्गुणों का निराकरण होता है, अंतरंग की पवित्रता बढ़ती है। अंतःकरण में श्रेष्ठ संस्कारों का उभार होने लगता है। ऐसी स्थिति बनती चले तो आत्मिक प्रगति में किसी प्रकार का संदेह न रह जाएगा। मनुस्मृति एवं अमृतनादोपनिषद् में कहा भी है— "जिस प्रकार अग्नि में डालने-तपाने से सोने आदि धातुओं के मल जल जाते है, उसी प्रकार प्राणायाम करने से इंद्रियों के विकार दूर हो जाते हैं। अतः मनुष्य को सर्वदा प्राणायामपरायण होना चाहिए।"

पाश्चात्य जगत के वैज्ञानिक भी अब प्राणायाम की महत्ता को समझने और उस पर गहन अनुसंधान करने में निरंतर लगे हुए हैं। यद्यपि उनकी पहुँच अभी ‘डीप ब्रीदिंग’ और उसकी फलश्रुति स्वास्थ्य-संवर्द्धन तक ही सीमित हैं। इन विशेषज्ञों के अनुसार मनुष्य को भोजन से मिलने वाली शक्ति मात्र 30 प्रतिशत ही होती है। शेष 70 प्रतिशत शक्ति तो श्वसन द्वारा स्नायुतंत्र को प्रदान की गई क्षमता से प्राप्त होती है। प्राणायाम से स्नायुतंत्र को पर्याप्त मात्रा में शक्ति मिलती है और वह बलिष्ठ बनता है। खाद्य पदार्थों की अपेक्षा प्राणवायु में पोषक तत्त्व अधिक मात्रा में होते हैं। अनुसंधानकर्त्ता वैज्ञानिकों ने परीक्षणोपरांत पाया है कि जीवनदायी वायु से पोषक तत्त्व श्वसन द्वारा सीधे रक्त-प्रवाह में घुल जाते है। एक सामान्य स्वस्थ व्यक्ति प्रतिदिन 24 घंटे में 13000 लीटर वायु का सेवन करता है, जबकि भोजन मात्र एक किलो और पानी दो लीटर उदरस्थ करता है।

मूर्धन्य वैज्ञानिक डाॅ. थ्रिसे ब्रूजे ने फेफड़ों और हृदय के क्रियाकलापों पर प्राणायाम के प्रभावों का गहन अध्ययन किया है। उनका कथन है कि प्राणयोग का साधक अपनी इच्छाशक्ति में अभिवृद्धि करके हृदय की गति को नियंत्रित कर लेता है, साथ ही उसकी क्रियाशक्ति भी अप्रत्याशित रूप से बढ़ जाती है, जिसे वैज्ञानिक उपकरणों द्वारा मापा जा सकता है। उनके अनुसार सामान्य व्यक्ति की तुलना में प्राणायाम का साधक इस प्रक्रिया के फलस्वरूप अपनी काया में 10 प्रतिशत प्राणवायु की अतिरिक्त मात्रा धारण करने में सक्षम हो सकता है।

प्राणायाम की आरंभिक क्रिया नियमित, नियंत्रित एवं लयबद्ध तरीके से पूरी गहरी साँस लेने से आरंभ होती है। आमतौर से व्यक्ति असावधानीपूर्वक अस्त-व्यस्त तरीके से उथली साँस लेता है। इससे जीवनीशक्ति घटती और विभिन्न प्रकार की व्यथाएँ प्रकट होती हैं। साँस द्वारा खींची गई वायु यदि फेफड़ों को पूर्णता से नहीं भर पाती तो इससे उसका जो हिस्सा रिक्त बना रहता है, वह धीरे-धीरे निष्क्रिय हो जाता है और विषाणुओं का आश्रयस्थल बन जाता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रायः व्यक्ति अपने फेफड़ों की कुल क्षमता का छठवाँ भाग ही उपयोग कर पाता है, यदि इसकी पूरी क्षमता का सदुपयोग किया जा सके तो टी.बी. जैसी प्राणघातक बीमारियों से सहज ही छुटकारा पाया जा सकता है। गहरी श्वास-प्रश्वास-प्रक्रिया से जीवनदायी प्राणवायु की अधिकतम मात्रा का धारण करना संभव है। हर सामान्य श्वास के साथ जहाँ आम मनुष्य 21 प्रतिशत ऑक्सीजन की मात्रा को ग्रहण करता और 12 प्रतिशत विषाक्त, 'कार्बन डाइ ऑक्साइड' को निष्कासित करता है, प्राणायाम के अभ्यास द्वारा इस अनुपात को कई गुना बढ़ाया जा सकता है।

पूरी और गहरी साँस लेने का यदि अभ्यास डाला जा सके तो इससे फेफड़े भी मजबूत होते हैं, साथ ही शुद्ध रक्तसंचार से हृदय की दुर्बलता दूर होने लगती है। धमनियों में प्रवाहित रक्तकणों की प्रचुरता, लालिमा और चमक जीवनीशक्ति को बढ़ाती है। इसकी अभिवृद्धि प्राणवायु की अधिकता से ही संभव हो पाती है। शिराओं में बहने वाले रक्त में रक्तकण न्यून, धीमी गति वाले और नीले रंग के होते हैं। यह रक्त की अशुद्धता का परिचायक है, जो ऑक्सीजन की कमी के कारण उत्पन्न होती है। इससे व्यक्ति में निराशा और निष्क्रियता आती है। फेफड़ों का प्रमुख कार्य वायुकोशों की सहायता से शरीर के सभी अंग-अवयवों तक चौबीस घंटे की अवधि में 35 हजार पिंट रक्त की मात्रा पहुँचाकर उन्हें प्राणवान एवं क्रियाशील बनाए रखना है। रक्त और ऑक्सीजन का सम्मिश्रित स्वरूप ही ऑक्सीहीमोग्लोबिन है। व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध तरीके से ली गई गहरी श्वास-प्रश्वास का अर्थ है शरीर में ऑक्सीहीमोग्लोबिन नामक जीवनदायी तत्त्व की प्रचुरता, उत्साहवर्द्धक स्फुरणा की सक्रियता की जाग्रति इसी की परिणति है। जीर्ण-शीर्ण कोशिकाओं, विषैले पदार्थों को भी निकाल बाहर करने में इससे सहायता मिलती है। प्राणायाम, गहरी साँस लेने का अभ्यास बना लेना स्वास्थ्य के लिए अति लाभदायक सिद्ध होगा।

साधारणतया एक स्वस्थ व्यक्ति 18 से 20 श्वास प्रति मिनट लेता है। श्वसन की गति प्राणी जगत की विभिन्न जातियों में अलग-अलग, किंतु लगभग स्थिर हैं, जो प्राणी प्रति मिनट कम-से-कम साँस लेता है, उसी अनुपात में उसका जीवनकाल निर्धारित होता है। श्वसन दर का आयु से घनिष्ट संबंध है। हृदय की धड़कन, जिस पर सामान्य स्थिति में कोई ऐच्छिक नियंत्रण नहीं रहता, श्वास की गति से चौगुनी गति के साथ स्पंदित होती रहती है। यदि साँस की गति 18 प्रति मिनट हैं, तो हृदय की गति 82 स्पंदन प्रति मिनट होगी। इसी तरह माँसपेशियों में सन्निहित मायोग्लोबिन नामक प्रोटीन के प्रवाह की गति हृदय गति से ठीक चार गुनी अधिक होगी।

इसे मनुष्य की मूर्खता ही कहना चाहिए कि प्रकृति में भरपूर परिमाण में जीवनदायी प्राणवायु विद्यमान है, पर श्वास लेने और प्राण-ऊर्जा के आकर्षण की सही विधि ज्ञात न होने के कारण वह स्मृति-प्रदत्त अनुदानों का लाभ नहीं उठा पाता। शारीरिक रुग्णता, मानसिक उद्विग्नता, विकार ग्रस्तता से घिरे जीवन की इतिश्री करता रहता है। हम में से कितने ही लोग मुँह से साँस लेते हैं, जबकि अधिसंख्य व्यक्ति 'कालर बोन ब्रीदिंग' और 'रिब ब्रीदिंग' के अभ्यस्त होते हैं। यह तीनों ही श्वसन-पद्धतियाँ स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार मुँह से साँस लेने वालों को प्रायः नजला, जुकाम, खाँसी आदि गले की बीमारियों का शिकार होते देखा गया है। नाक द्वारा साँस लेने से अंदर प्रविष्ट होती वायु में जो धूलकण, गंदगी, रोगकारक जीवाणु आदि मिले होते हैं, वे नासिका मार्ग में ही रोक लिए जाते हैं, फेफड़ों तक उनकी पहुँच नहीं हो पाती है। 'कालर बोन ब्रीदिंग' में फेफड़ों को पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं हो पाती, क्योंकि इसमें कंधे ऊपर उठाकर श्वास खींची जाती है। स्वास्थ्य के लिए इस प्रकार की श्वसन-प्रक्रिया को उत्तम नहीं माना जा सकता। इसी तरह 'रिब ब्रीदिंग' के अंतर्गत पेट को नीचा करने के कारण कुछ ऑक्सीजन की मात्रा फेफड़ों तक पहुँचती अवश्य है, पर वह भी पर्याप्त नहीं होती। प्राणायाम उक्त तीनों ही श्वसन-पद्धतियों से भिन्न गहरी एवं लयबद्ध प्रक्रिया हैं, यह प्राणतत्त्व के नियंत्रण की जीवनीशक्ति के संवर्द्धन की प्रक्रिया हैं।

अध्ययनरत चिकित्सा विज्ञानियों ने अब प्राणायाम को उपचार हेतु प्रयोग करने की विधि-व्यवस्था अपनाई है। उनका कथन है कि त्वचा के छिद्रों तथा श्वास के साथ जो हानिकारक जीवाणु और रोगकारक विषाणु शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं। उन्हें निकाल बाहर करने में प्राणायाम-प्रक्रिया पूर्ण सक्षम है। जीवनीशक्ति के संवर्द्धन में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। सामान्य श्वास-प्रश्वास से मात्र जीवनचर्या चलती है, पर अधिक सशक्तता प्राप्त करने के लिए हमें अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता होगी। महत्त्वपूर्ण शारीरिक, मानसिक या आध्यात्मिक कार्य संपन्न करने के लिए जिस प्राण-ऊर्जा की आवश्यकता होती है। उसका उत्पादन-अभिवर्द्धन प्राणयोग की साधना द्वारा ही हस्तगत होता है। श्वास-प्रश्वास पर नियंत्रण साधने से ही मन की एकाग्रता सधती, चित्त दृढ़ और स्थिर बनता है। मानसिक विकास इसी से होता हैं।

प्राणायाम द्वारा प्राणतत्त्व को वशवर्त्ती करने, उसके द्वारा स्वास्थ्य को अक्षुण्ण रखने एवं रोगों को मार भगाने का काम तो होता ही है, दीर्घ जीवन प्राप्त करने और स्वभाव में प्रसन्नता एवं साहसिकता भरने का काम भी प्राणयोग की साधना से संभव है। इस आधार पर शरीर तक सीमित आत्मा ब्रह्मांडव्यापी परमात्मा के साथ अपना सघन संपर्क बनाने और जीवन का लक्ष्य पाने में भी सफल हो सकती है।


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