ध्यानयोग भौतिक एवं आध्यात्मिक सफलताओं में महत्त्वपूर्ण योगदान प्रस्तुत करता है। उसके आधार पर अपना भी हित-साधन हो सकता है और दूसरों का भी किया जा सकता है। मन-मस्तिष्क एवं अंतराल की बिखरी तथा प्रसुप्त शक्तियों को जाग्रत एवं केंद्रित करके मनचाही दिशा में प्रगति की जा सकती है। आरोग्य की उपलब्धि, मनोबल की प्रखरता, संकल्पशक्ति की परिपक्वता, भविष्य निर्माण से जुड़ने वाली महती भूमिका में सघन विचारधारा का उन्नयन जैसी सफलताओं का मूल आधार ध्यान-साधना में ही सन्निहित है। संसार के सफलतम व्यक्तियों, महानतम विभूतियों की यह एक अनिवार्य विशेषता रही है कि उनका अपने मस्तिष्क पर नियंत्रण बना रहा है। मस्तिष्कीय चेतना को उन्होंने बिखरने नहीं दिया, जो निश्चय किया, उसी पर अविचल भाव से चलते रहे। मानसिक शक्तियों, ऊर्जा-तरंगों के बिखराव को रोककर एक सुनिश्चित केंद्रबिंदु पर केंद्रित करने की कला जिन्हें ज्ञात है, वे उस मनःस्थिति में जो काम हाथ में लेंगे— सफल होकर रहेंगे।
एकाग्रता संपादन ध्यान का प्रत्यक्ष लाभ है। चित्तवृत्तियाँ प्रायः अनियंत्रित और उच्छृंखल बनी अव्यवस्थित रूप से अस्त-व्यस्त परिभ्रमण करती रहती है। इस बिखराव में बहुमूल्य मानसिक शक्तियों का अपव्यय ही होता है। बहुत करके तो चिंतन की इस विशृंखलता के साथ-साथ अवांछनीय तत्त्व ही लिपट पड़ते हैं। यदि विचारों को व्यवस्थित एवं उपयोगी कार्यों में लगाया जाएगा, तो उसके अभाव का लाभ आसुरी तत्त्व उठावेंगे और पतनोन्मुख पशु-प्रवृत्तियों का मनःक्षेत्र पर अधिकार सघन होता चला जाएगा। एकाग्रता से बिखराव सिमटता है, शक्ति उत्पन्न होती है। मस्तिष्कीय बिखराव का केंद्रीकरण मनुष्य में अद्भुत प्रतिभा एवं क्षमता का विकास करता है। उसमें अतींद्रिय सामर्थ्य विकसित हो जाती है एवं वह असंभव को भी संभव कर दिखा पाने की स्थिति में आ जाता है। ध्यान-प्रक्रिया में यही किया जाता है।
ध्यानयोग इन दिनों वैज्ञानिकों के लिए अनुसंधान का एक महत्त्वपूर्ण विषय बन गया है। मनःशास्त्रियों एवं अध्यात्मवेत्ताओं की भाँति वे भी अब इस बात को स्वीकारने लगे हैं कि प्रवीणता और प्रतिभा निखारने के लिए प्रगति का मार्ग प्रशस्त करने के लिए ध्यानजन्य एकाग्रता का संपादन आवश्यक है। शरीरगत संयम बरतने से मनुष्य स्वस्थ रहता है और दीर्घजीवी बनता है, उसी प्रकार मनोगत संयम— एकाग्र भाव संपादित करने से वह बुद्धिमान विचारकों, मनीषियों की श्रेणी में पहुँच सकता हैं।
सतत एवं नियमित रूप से ध्यान-साधना करने वाले योगसाधकों पर किए गए विभिन्न प्रयोग-परीक्षणों के आधार पर विशेषज्ञों ने जो निष्कर्ष निकाले हैं, उनके अनुसार ध्यान-प्रक्रिया के अभ्यास से उद्विग्नता मिटती, तनाव घटता और मस्तिष्क शांत होता है। चंचलता मिटती और मन में स्थिरता आती है। नाड़ी की गति कम होती और श्वसन दर घटती है, तथा शरीर का तापमान नीचे उतर जाता है। इससे शारीरिक-मानसिक शक्ति की यथेष्ट बचत होती है तथा अतिरिक्त प्राण-ऊर्जा का भंडारण होता है। परीक्षणों में पाया गया है कि ध्यान की गहराई में उतरने पर साधक की श्वसन की सामान्य गति 18 से घटकर 5 या 6 श्वास प्रति मिनट एवं हृदय दर 72-80 से घटकर 50-60 प्रति मिनट तक जा पहुँचती है। इस मध्य ऑक्सीजन की खपत में भी 20 प्रतिशत की कमी आँकी गई है। रक्त में उपस्थित लैक्टिक एसिड की मात्रा भी 50 प्रतिशत तक कम हो जाती है। रक्त में इस तत्त्व की उपस्थिति से मस्तिष्क भय, चिंता, उदासी, तनाव जैसे विकारों से भरा रहता है। शरीर के अवयव अव्यवस्थित एवं थकानग्रस्त बने रहते हैं। ध्यान-साधना से इसके रक्तस्तर में कमी आती है और व्यक्ति के अंदर उत्साह, उमंग और स्फूर्ति की नवीन चेतना की लहरें हिलोरें मारने लगती हैं। शरीर की प्रतिरोधी क्षमता— 'इम्यून सिस्टम' में भी आमूल-चूल अभिवृद्धि हो जाती है। त्वचा की प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ जाने पर उसके संपर्क में आने वाले रोगकारक जीवाणुओं का प्रभाव समाप्त हो जाता हैं। मानसिक क्षमता के केंद्रीकरण प्रयोग से कोई भी मंदबुद्धि, दुर्बलकाय मनुष्य अपना कायाकल्प कर सकता हैं।
ध्यानयोग का प्रमुख उद्देश्य मस्तिष्कीय बिखराव को रोककर एक चिंतन-बिंदु पर केंद्रित कर सकने की प्रवीणता प्राप्त करना है। इस प्रयोग से जिसे जितनी सफलता मिलती जाती है, उसकी अंतःचेतना में उसी अनुपात से वेधक-प्रचंडता उत्पन्न होती जाती है। शब्दवेधी बाण की तरह लक्ष्यवेध कर सकना उसके लिए सरल हो जाता है। यदि अध्यात्म उसका लक्ष्य होगा तो उस क्षेत्र में आशाजनक प्रगति होगी और विभूतियों से— दिव्य रिद्धि-सिद्धियों से उसका व्यक्तित्व भरा-पूरा दिखाई पड़ेगा। यदि लक्ष्य भौतिक उन्नति है तो भी इस एकाग्रता का समुचित लाभ मिलेगा और अभीष्ट प्रयोजनों में आशाजनक सफलता मिलती जाएगी। शक्ति का जब जिस भी दिशा में प्रयोग किया जाएगा, उसी में सत्परिणाम प्रस्तुत होते जाएँगे।
पैरासाइकोलॉजी पर शोध कर रहें मूर्धन्य शास्त्रियों का मत है कि ध्यान-प्रक्रिया द्वारा मस्तिष्क के भीतर अनेकों प्रकार के रासायनिक परिवर्तन किए जा सकते हैं तथा मस्तिष्कीय क्रियाकलापों पर नियंत्रण करके एनकेफेलीन, इण्डाॅर्फिन्स जैसे एंडोजीनस दरदनिवारक तत्त्वों की मात्रा घटाई-बढ़ाई जा सकती है। यह तत्त्व मस्तिष्कीय तंतुओं में पाए जाते है। ध्यान ऐसी निरापद आध्यात्मिक प्रक्रिया है, जिसके अगणित लाभ हैं। विशेषज्ञों के अनुसार दरद को दबाने वाली तीव्र शामक औषधियों के प्रयोग के स्थान पर ध्यान की प्रक्रिया अपनाने पर संज्ञाशून्यता उत्पन्न की जा सकती है और एनेस्थेशिया का प्रयोग किए बिना शल्यक्रिया संपन्न की जा सकती है।
लोकमान्य तिलक के जीवन का संस्मरण प्रसिद्ध है कि उनके अंगूठे का ऑपरेशन होना था। चिकित्सकों ने दवा सुँघाकर बेहोश करने का प्रस्ताव रखा तो उनने कहा—'मैं गीता के प्रगाढ़ अध्ययन में लगता हूँ, आप बेखटके ऑपरेशन कर लीजिए।, डाॅक्टर को तब बहुत आश्चर्य हुआ, जब उन्होंने बिना हिले-डुले शांतिपूर्वक ऑपरेशन करा लिया। पूछने पर तिलक ने इतना ही कहा— "तन्मयता इतनी प्रगाढ़ थी, जिसमें शल्यक्रिया की ओर ध्यान ही नहीं गया और दरद भी अनुभव नहीं हुआ।”
वस्तुतः यह ध्यान-प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न की गई 'अल्फा स्टेट' होती है, जिसमें मस्तिष्क से लगातार अल्फा-तरंगें ही प्रस्फुटित होती रहती हैं। 'पाली' में इस अवस्था को ज्ञान कहते है। चीनी साधकों का 'चान' और जापानी योगसाधकों की 'जेन' भी यही प्रक्रिया है। प्रख्यात ग्रीक दार्शनिक प्लेटों ने अपने निबंध-संग्रह में बताया है कि एक बार सुकरात ध्यान की गहन अवस्था में पहुँच गए और 24 घंटे लगातार बिना हिले-डुले एक स्थान पर खड़े रह गए। इसी तरह महान संत थाॅमस एक्विनास के बारे में कहा जाता है कि एक बार वे ईश्वर के ध्यान में इतने अधिक निमग्न हो गए कि पास रखी आग पर उनकी अंगुलियांँ झुलसती रहीं और कोई कष्ट तक अनुभव नहीं हुआ। मस्तिष्क विज्ञानियों का कहना है कि इस प्रकार ध्यान में प्रगाढ़ता आने पर व्यक्ति की अल्फा-तरंगों की धारा में अकल्पित वृद्धि हो जाती है और वह उसके अंदर अदम्य धैर्य, स्थिरता एवं गहन शांति उत्पन्न कर देती है। ऐसी स्थिति में चेतना उच्च आयामों पर आरोहण कर जाती है। अवैध का आभास तक नहीं होता।
'द साइकल्स आफ हेवन' नामक अपनी पुस्तक में वैज्ञानिक द्वय जी. प्लेफेयर तथा स्कॉट हिल ने बताया है कि मानवी मस्तिष्क में निरंतर प्रचंड विद्युत-प्रवाह उत्पन्न होता रहता है और उसके शक्तिशाली कंपन ऐसे ही दुर्बल विचार-तरंगों से लिपटे अनंत आकाश में उड़ते, बिखरते और नष्ट होते रहते हैं। यदि इस प्रवाह को ध्यान-प्रक्रिया द्वारा केंद्रित करके किसी विशेष लक्ष्य पर नियोजित किया जा सके, तो उसके आश्चर्यजनक परिणाम हो सकते हैं। एकाग्रता से मस्तिष्क में उत्पन्न होते रहने वाली विचार-तरंगों के निरर्थक बिखराव को निग्रहित करने में असाधारण रूप से सहायता मिलती है। केंद्रीकरण से उसकी आज की क्षमता अगले दिनों अनेक गुनी हो सकती है और प्रभाव-क्षेत्र विश्वव्यापी बन सकता है।
ध्यान-साधना द्वारा मस्तिष्क को विश्राम देकर उसके मेधा-प्रज्ञा क्षेत्रों को विकसित, परिष्कृत किया और समाधिपरक परमानंद का लाभ उठाया जा सकता है। वैज्ञानिकों के अनुसार मानवी मस्तिष्क से उसकी भावना, विचारणा एवं मनःस्थिति के अनुरूप विभिन्न प्रकार की ऊर्जा-तरंगें प्रस्फुटित होती रहती है। यह मस्तिष्कीय धाराएँ अल्फा, बीटा, थीटा, डेल्टा इन चार भागों में बँटी होती हैं, जिन्हें ई.ई.जी. मशीन द्वारा अलग-अलग अंकित किया जाता है। परीक्षणकर्त्ता विशेषज्ञों ने पाया है कि जिस समय मस्तिष्क से अल्फा-तरंगें निस्सृत हो रही है, उस समय व्यक्ति गहन शांति की स्थिति में होता है। अल्फा-तरंगों की आवृत्ति 8 से 23 साइकल्स प्रति सेकेंड होती है। इन तरंगों को ई.ई.जी. माॅनीटर अथवा अल्फा ई.ई.जी. बायो फीडबैक या अल्फाफोन मशीन के माध्यम से फिल्टर किया जा सकता है और अभ्यास द्वारा इनका वर्चस्व बढ़ाकर मस्तिष्कीय चेतना का विकास किया जा सकता है। अल्फा स्थिति में साधक पृथ्वी के चारों और चक्कर लगा रही भू-चुंबकीय धाराओं 'शूमेंसरेजोनेन्स' से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। यह एक ज्ञात तथ्य है कि ये तरंगें भी 8 से 23 आवृत्ति प्रति सेकेंड की गति से पृथ्वी की परिक्रमा करती हैं। इस तरह व्यष्टि मन समष्टि मन से संबंध स्थापित कर लेता है।
अध्यात्म साधनाओं में अल्फा-स्थिति उत्पन्न करने के लिए साधक को यम-नियम से लेकर धारणा-ध्यान के विविध योगिक उपक्रमों का आश्रय लेना पड़ता है। सतत अभ्यास से जैसे-जैसे कषाय-कल्मषों का परिशोधन होता जाता है, स्वभाव संचित आदतों, व्यवहार एवं विचारणा में उत्कृष्टता की मात्रा बढ़ती जाती है। धीरे-धीरे समूचे व्यक्तित्व का ही कायाकल्प हो जाता है। साधक की मस्तिष्कीय चेतना जितनी अधिक समय तक प्रचुर परिमाण में अल्फा-तरंगों से आच्छादित रहेगी, उसी अनुपात से उसकी अंतःक्षमताओं का विकास होगा। शांत मस्तिष्क से ही एकाग्रता सधती है और तदनुरूप सत्परिणाम भी सामने आते हैं। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डब्ल्यू. पेनफील्ड तथा एच. एच. जैस्पर का कहना है कि विश्वविख्यात वैज्ञानिक आइंस्टीन की उपलब्धियाँ अल्फा-स्टेट की ही देन है। उनके ई.ई.जी. का विश्लेषण करने पर पाया गया कि उनके मस्तिष्क से सदैव लयबद्ध अल्फा-तरंगें ही प्रधान रूप से निकलती रहती थीं। कठिन-से-कठिन गणितीय सूत्रों के समाधान ढूंढते समय भी वह अपने आपको इसी अवस्था में बनाए रखते थे। एकाग्रता-तन्मयता-तत्परता उनके जीवन के रग-रग में बस गई थी।
चैतन्य सत्ता की गहनता तक पहुँचने तथा उसमें सन्निहित विभूतियों-संपदाओं को हस्तगत करने के लिए नादयोग, त्राटक, भावातीत ध्यान आदि अनेकानेक विधि-विधानों का प्रचलन है। विभिन्न तरह की योग-साधनाएँ की जाती हैं, जिसमें मस्तिष्कीय तरंगों का एकत्रीकरण किया और ब्रह्मांडीय तरंगों से— परम चेतना से उनका सामंजस्य बिठाया जाता है। मंत्रोच्चार के साथ इसकी विशिष्टता बढ़ती मानी गई है। यह साधना यदि भावना और श्रद्धापूर्वक की जाए तो उससे उत्पन्न होने वाली तरंगें निश्चित ही साधक को श्रेयपथ पर अग्रसर करती हैं।