सफलताएँ टिकी हैं प्रचंड मनोबल पर

January 1989

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भिक्षु संघ के साथ विहार करते हुए भगवान बुद्ध शाल्यवन में एक वटवृक्ष के नीचे बैठ गए। धर्मचर्चा के प्रसंग में एक शिष्य ने उनसे पूछा— "भगवन्! कई लोग दुर्बल और साधनहीन होते हुए भी बड़े-बड़े कार्य कर दिखाते हैं, जबकि अच्छी स्थिति वाले साधनसंपन्न लोग भी उन कार्यों को करने में असफल रहते हैं। इसका क्या कारण हैं? क्या पूर्वजन्मों के पाप अवरोध बनकर खड़े हो जाते हैं?"

‘नहीं’— तथागत ने कहा और एक कथा सुनाने लगे —“विराट नगर के राजा सुकीर्ति के पास लौहशृंग नामक एक हाथी था। राजा ने कई युद्धों में इस पर आरूढ़ होकर विजय प्राप्त की थी। शैशव से ही लौहशृंग को इस तरह प्रशिक्षित किया था कि वह युद्धकला में बड़ा प्रवीण हो गया था। सेना के आगे चलते हुए पर्वताकार लौहशृंग जब अपनी क्रुद्धावस्था में प्रचंड हुँकार भरता हुआ शत्रुसेनाओं में घुसता था, तो देखते-ही-देखते विपक्षियों के पाँव उखड़ जाते थे।

लेकिन जन्म के बाद जिस प्रकार सभी प्राणियों को युवा और जरावस्था से गुजरना पड़ता है, उसी क्रम से लौहशृंग भी वृद्ध होने लगा, उसकी चमड़ी झूल गई और युवावस्था वाला पराक्रम जाता रहा। अब वह हाथीशाला की शोभामात्र बनकर रह गया। उपयोगिता और महत्त्व कम हो जाने के कारण उसकी ओर पहले जैसा ध्यान भी नहीं था। उसे मिलने वाले भोजन में कमी कर दी गई। एक बूढ़ा सेवक उसके भोजन-पानी की व्यवस्था करता, वह भी कई बार चूक कर जाता और हाथी को भूखा-प्यासा ही रहना पड़ता।

बहुत प्यासा होने और कई दिनों से पानी न मिलने के कारण एक बार लौहशृंग हाथीशाला से निकलकर पुराने तालाब की ओर चल पड़ा, जहाँ उसे पहले कभी प्रायः ले जाया करता था। उसने भरपेट पानी पीकर प्यास बुझाई और गहरे जल में स्नान के लिए चल पड़ा। उस तालाब में कीचड़ बहुत था, दुर्भाग्य से वृद्ध हाथी उसमें फँस गया। जितना भी वह निकलने का प्रयास करता, उतना ही फँसता जाता और आखिर गरदन तक कीचड़ में फँस गया।

यह समाचार राजा सुकीर्ति तक पहुँचा, तो वे बड़े दुखी हुए। हाथी को निकलवाने के कई-कई प्रयास किए गए, पर सभी निष्फल। उसे इस दयनीय दुर्दशा के साथ मृत्युमुख में जाते देखकर सभी खिन्न थे। जब सारे प्रयास असफल हो गए, तब एक चतुर सैनिक ने युक्ति सुझाई। इसके अनुसार हाथी को निकलवाने वाले सभी प्रयत्न करने वालों को वापस बुला लिया गया और उन्हें युद्ध सैनिकों की वेशभूषा पहनाई गई। वे वाद्ययंत्र मँगाए गए जो युद्ध अवसर पर उपयोग में लाए जाते थे।

हाथी के सामने युद्ध-नगाड़े बजने लगे और सैनिक इस प्रकार कूच करने लगे, जैसे वे शत्रुपक्ष की ओर से लौहशृंग की ओर बढ़ रहे हैं। यह दृश्य देखकर लौहशृंग में न जाने कैसे यौवनकाल का जोश आ गया। उसने जोर से चिंघाड़ लगाई तथा शत्रु-सैनिकों पर आक्रमण करने के लिए पूरी शक्ति से कंठ तक फँसे हुए कीचड़ को रौंदता हुआ तालाब के तट पर जा पहुँचा और शत्रु-सैनिकों पर टूट पड़ने के लिए दौड़ने लगा। बड़ी मुश्किल से उसे नियंत्रित किया गया।

यह कथा सुनाकर तथागत ने कहा— “भिक्षुओ! संसार में मनोबल ही प्रथम है। वह जाग उठे तो असहाय और अवश प्राणी भी असंभव होने वाले काम कर दिखाते हैं तथा मनुष्य अप्रत्याशित सफलताएँ प्राप्त करते हैं।"


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