विचित्र विलक्षण यह सृष्टि

November 1988

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मायापति भगवान की यह सृष्टि सचमुच बड़ी विचित्र है। ऐसी विराट सुनियोजित सुन्दरतम कृति कोई बुद्धिमत्तापूर्ण सत्ता ही रच सकती है यही बार बार कहने को मन करता है इतनी विशाल यह सृष्टि है कि एक एक घटक पर विचार करें तो लगता है कि उसने अपने घटक पर विचार करें तो लगता है कि उसने अपने विनिर्मित हर कृति पर पूरा ध्यान नहीं नहीं दिया है सुव्यवस्था को भी दृष्टि में रखा है।

खगोल शास्त्रियों का ऐसा मत है कि अनगिनत सौर मण्डल हमारी सृष्टि में है जिनमें एक हमारा भी है इतने विराट ब्रह्मांड की तुलना में वह इतना छोटा है कि रीडर्स डायजेस्ट ग्रेट एटलस का चित्रकार अपने विशाल नक्शे में मात्र यही लिख पाया कि हमारा सौर मण्डल कहाँ कही है कहाँ है यह भी सुनिश्चित नहीं यही कहीं है यह उसे विवश होकर लिखना पड़ा इतना नगण्य-सा होने पर भी हम जानते हैं कि वह कितना विराट हमारी दृष्टि में है। सूर्य की पृथ्वी से दूरी लगभग पंद्रह करोड़ किलोमीटर है एवं वहाँ से चले प्रकाश को हम तक पहुँचने में ही काफी समय लग जाता है। अकेले हमारे सूर्य के चारों ओर दस करोड़ धूमकेतु चक्कर लगाते हैं ऐसा एक धूमकेतु हमारी पृथ्वी के समीप भी आ जाता है तो हम घबरा जाते हैं व उससे संभावित प्रभावों का विश्लेषण करने लगते है।

सूर्य की सतह पर पड़ने वाले धब्बों या सौर कलंकों पर बड़ा विशद अध्ययन होता रहा है क्योंकि वे सीधे पृथ्वी पर जीवधारियों पर वातावरण पर प्रभाव डालते हैं। सूर्य के अन्दर का तापमान तो कल्पनातीत है फिर भी वैज्ञानिक इसे नापने में सफल हुई है। यह लगभग एक करोड़ चौवन लाख य़ ईकाई के लगभग होता है। सतह पर तापमान 5525 डिग्री सेण्टीग्रेट मापा गया है। सौर धब्बों का आकार यदि उन्हें पृथ्वी से देखा जाना है तो लगभग 1300 मिलियन वर्ग किलोमीटर का घेरा उनका होना चाहिए। ये प्रति 11 वर्ष पर उभरते व घटते रहते है। 8 अप्रैल 1947 का सबसे बड़ा सौर धब्बा देखा गया जो कि अठारह हजार मिलियन वर्ग किलोमीटर परिधि का था। इन्हें धब्बा या कलंक संभवत इसलिए कहा जाता है। कि इनका तापमान सविता देवता के स्वयं के तापमान से पंद्रह सौ डिग्री सेंटीग्रेट कम होता है, दूसरे ये सूर्य के प्रकाश के अनुकूल प्रभाव के विपरीत हमारे पर्यावरण में व्यापक उथल-पुथल पैदा कर देते हैं। इनका उभरना ही अनिष्ट का प्रतीक माना जाता है। एक ऐसा ही बड़े आकार का सौर कलंक इन दिनों सूर्य की सतह पर उभरा है जिसकी चरमावस्था दिसम्बर 1989 में होगी व क्रमशः 1995 तक अपना प्रभाव बनाये रख सन् 2000 में अपना प्रभाव सामर्थ्य कुछ कम करेगा। अभी तो इन कलंकों के बारे में बहुत कुछ जानना शेष है परन्तु इतनी दूरी पर होते हुए भी वे कैसे मानवी मस्तिष्क के न्यूरान्स से लेकर वृक्षों के तनों में बनने वाले वर्तुलों तथा भू-चुम्बकीय धारा को प्रभावित कर देते है। यह अभी तक जाना नहीं जा सका। हो सकता है अगले दिनों हम इस क्षेत्र में अपनी जानकारी बढ़ा सकेंगे।

हमारी अपनी पृथ्वी जो इस सौर मण्डल का एक घटक है कम विचित्र नहीं है सभी जानते है। कि यह पूर्णतः गोल नहीं है अपने दोनों ध्रुवों पर चपटी है ध्रुव से ध्रुव तक का व्यास पूर्वी व पश्चिम छोर को जोड़ने वाले इक्वेटोरियल व्यास से बयालीस हजार सात सौ सत्तर किलोमीटर कम है इसी कारण यह नाशपाती के आकार की दृष्टिगोचर होती है। इसका क्षेत्रफल ही उन्नीस करोड़ सत्तर लाख वर्ग मील है। डॉ. नेबिल मस्केलिन ने 1780 ्नष्ठ में सबसे पहले पृथ्वी का भार जानने का प्रयास किया था। किन्तु अब आधुनिक उपकरणों में से जो जानकारी मिली है वह बताती है कि यह 5967 ग 10 टन है एवं आकाश से गिरी धूल उल्काखण्डों जले ईंधन के अवशेषों तथा समुद्र से सतत् होती बौछार से बने बने नमक के कारण प्रतिवर्ष और स्थूल हो जाती है। हर वर्ष बढ़ने वाला यह भार लगभग एक लाख पौण्ड है क्रमशः पृथ्वी भारी होती ही चली जा रही है। अंतिम नियति क्या होगी अभी हमें कुछ जानकारी इसकी नहीं है।

पृथ्वी की कुल सत्तर का 70.12 प्रतिशत भाग समुद्री जल से घिरा हुआ है। एक गणना के अनुसार सभी समुद्र मिलकर छत्तीस करोड़ सत्रह लाख चालीस हजार वर्ग किमी. क्षेत्रफल धरती का घेरे पड़े है। प्रशान्त महासागर सबसे बड़ा है पूरे समुद्री क्षेत्र का यह पैंतालीस प्रतिशत है एवं सबसे गहरा भी है। मल्टीबीम सोनर्स की मदद से छत्ती हजार फीट गहराई सर्वाधिक इसी में है। यह इतनी है कि पृथ्वी का सबसे ऊंचा पर्वत हिमालय जिसका शिखर माउण्ट एवरेस्ट है, इसमें समा सकता है। यदि सतह से एक पौण्ड भारी लोहे का गोला इसमें डाला जाये तो समुद्री तक पहुँचने में इसे लगभग 64 मिनट लगेंगे।

एक विलक्षण तथ्य वैज्ञानिकों और निकला है। कि अगर ऐसा पाइप बनाया जाये जिसका व्यास लगभग 121 किमी हो तथा पृथ्वी से सत्तर हजार मील ऊंचाई तक फैलाया जाये तो उसमें विश्व के सभी सागरों को जल समा सकता है। भगवान करे ऐसा न हो पर कभी सारी दुनिया के समुद्र सूख भी जाये तो जो नमक बचेगा उससे विषुवत् रेखा के चारों ओर एक मील मोटी तथा 180 मील ऊंची दीवार बनायी जा सकती है। इससे अंदाज लगाया जा सकता है समुद्र में कितना खारापन है।

यदाकदा कहीं बिजली गिरती है तड़ित विद्युत का पृथ्वी पर संघात होता है तो हम चौंक जाते हैं। पर एक तथ्य जानने पर प्रतीत होगा कि यह तो कुछ भी नहीं है। पृथ्वी पर प्रतिक्षण अठारह सौ जगहों पर बिजली और आँधी के साथ पानी बरसता ही रहता है। प्रति सेकेंड कही न कही पूरी पृथ्वी पर सौ बार बिजली कड़क कर गिरती ही रहती है। यह क्रम कभी भी बन्द नहीं होता।

बिहार व नेपाल को अपनी विभीषिका से दहला देने वाला एक भूकम्प पिछले दिनों आया किन्तु पाठकों का यह जानकर आश्चर्य होगा कि पृथ्वी का भूगर्भीय केन्द्र कभी भी शान्त नहीं बैठता। प्रतिवर्ष 5,00,000 ऐसे छोटे बड़े भूकम्प पूरे विश्व में आते रहते हैं जिनमें भूगर्भ की हलचल को सीस्मोग्राफ पर रिकार्ड किया जा सकें। इनसे 1,00,000 ऐसे हैं जिनकी अनुभूति होती है एवं 1,000 ऐसे होते है। जो हानि पहुँचा सकते है। सबसे गहरा केन्द्र जिस भूकम्प का रिकार्ड किया गया वह 447 मील गहरा था व 1933, 1934, 1943 में तीन बार इंडोनेशिया में आया। चिली में 22 मई 1960 को जो भूकम्प आया वह अब तक का सबसे भयावह व सामर्थ्यवान माना जाता है। इसकी शक्ति 10 घात 26 अग्स मापी गई है। जहाँ तक जन धन की हानि का प्रश्न है सबसे भीषण त्रासदी पहुँचाने वाला भूकम्प भूमध्य सागरीय क्षेत्र में पूर्वी भाग में जुलाई 1201 में आया था उस समय के लोगों ने जो अब तक के प्रमाण मिले हैं इतिहास में लिखा है कि इसमें 11 लाख आदमी मारें गए। पूर्वी चीन के ताँगाशान में प्रातः में 27 जुलाई 1976 को आए भूकम्प में साढ़े सात लाख व्यक्ति अकाल मृत्यु के शिकार हुए। यह आंकड़ा प्रामाणिक माना जाता रहा है। जहाँ तक धन व सम्पदा की क्षति का प्रश्न है सर्वाधिक भूकंप क्वाण्टों जापान में एक सितम्बर 1923 को आया था, जिससे एक पूरा द्वीप समुद्र में समा गया एक लाख बयालीस हजार व्यक्ति समुद्र के गर्म में विलुप्त हो गए एवं दस अरब पौण्ड से भी अधिक की सम्पत्ति की क्षति हुईं।

प्रकृति के चित्र विचित्र घटनाक्रमों में भूकम्प इत्यादि की ही तरह ज्वालामुखी भी आते है। कुछ सक्रिय ज्वालामुखी पूरी धरती पर 950 हैं, इनमें से कई जल सतह के नीचे है। इन सबका न जाने क्यों अत्यधिक स्नेह इंडोनेशिया से ही है जहाँ ज्ञात इतिहास में अब तक 167 विद्यमान ज्वालामुखी में से 77 आग उगल चुके है। अंग्रेजी नाम वाँल्केनो भी वल्केनो द्वीप से पड़ा है। जो भूमध्य सागर में विस्फोट के बाद विलुप्त हो गया। वल्केनस को ग्रीक मायथाँलाजी में अग्नि का देवता माना गया है। संभवतः इसी पर आधारित हो। सबसे विराट् परिमाण वाला ज्वालामुखी विस्फोट 27 अगस्त 1883 के दिन क्राकाटोआ द्वीप में हुआ जो इंडोनेशिया में जावा व समात्रा के बीच स्थित है। इससे निकले लावा से 163 गाँव राख हो गए, 36,000 व्यक्ति मृत्यु की गोद में पहुँचे गए एवं आसमान में 55 किमी की ऊंचाई तक चट्टानों एवं पत्थरों को लावा की राख को इसने राख 10 दिन बाद तक 5330 किमी दूर तक पायी गयी। पूरे विश्व के 1/13 भाग में इसके गर्जन की आवाज सुनाई दी। इस विस्फोटों की क्षमता हाइड्रोजन बम की सामर्थ्य से 26 गुणा अधिक थी।

सबसे बड़ा सक्रिय वर्तमान ज्वालामुखी हवाई द्वीप में है। इसका नाम है माँनालोआ इसका गुम्बद 75 मील लम्बा, 64 मील चौड़ा है। तथा लावा का प्रवाह पूरे द्वीप के 2000 वर्ग मील को घेरे हुए है। इस के क्रेटर की गहराई 180 मीटर मापी गई है। जब भी इसमें विस्फोट होता है, लावा की ज्वालाएं 4168 मीटर ऊपर जाती है। इसकी एक विचित्र विशेषता यह है कि प्रति साढ़े तीन वर्ष में एक बार यह अवश्य फूट पड़ता है। एवं यह क्रम सन् 1832 से बराबर चला आ रहा है। पिछला विस्फोट अप्रैल 1985 में हुआ था।

पृथ्वी अपने गर्भ से लावा ही नहीं निकालती मात्र कम्पन पैदाकर अव्यवस्था ही नहीं फैलाती हमारे हित के लिए गरम पानी के कुण्ड भी अपने अंदर समाये हुए है। तथा फव्वारे भी स्थान स्थान से छोड़ती है, जिन्हें गीजर्स कहते है। सबसे ऊंचा फव्वारा न्यूजीलैण्ड के वायमाँगू क्षेत्र का है जिसे ब्लैक वाटर गीजर कहते हैं। सन् 1904 में यह 1500 फीट ऊंचाई तक भूगर्भ से छूटता रहा किन्तु एक अप्रैल 1917 के बाद से अब तक शाँति हैं, जब इसके अकस्मात फूट पड़ने से 4 व्यक्ति तुरन्त मर गए। वर्तमान में सबसे ऊंचा सक्रिय गीजर अमेरिका के येलोस्टीन नेशनल पार्क म वायमिंग में है। जहाँ 1962 से 1969 तक 5 दिन से 10 माह के अंतर पर यह सतत् 250 से 360 फीट की ऊंचाई तक पहुँचता रहा। इसी पार्क में एक जायण्ट गीजर है जिससे 8,25,000 गैलन पानी फव्वारे द्वारा भूगर्भ से बाहर आया, जो अब तक की सर्वाधिक मात्रा है। सन् 1955 से यह निष्क्रिय है।

यह पृथ्वी यह ब्रह्माण्ड सृष्टि का हर घटक वैभिन्नय एवं विचित्रता लिये हुए है। मनुष्य यदि शोध करना चाहे तो अनन्त विस्तृत क्षेत्र उसे ज्ञानार्जन के लिए खुला पड़ा है। यह मानवी जिज्ञासा ही तो है जो व्यक्ति को सतत् अन्वेषण हेतु प्रेरित करती रहती है। इसी से निकल कर आते हैं

ऐसे विचित्र, विलक्षण निष्कर्ष जो प्रमाणित करते हैं कि यहाँ जो कुछ भी है, अद्भुत है अनुपम है साथ ही इतना विराट् भी कि अचिन्त्य व अगम्य है। जितना कुछ जाना जा सकता है। उसे से भी कई गुणा वह है जो नहीं जाना जा सका ज्ञान की उस परिसीमा को मनुष्य पार कर सकेगा या नहीं, किन्तु ज्ञानार्जन की शोध-अनुसंधान की यह यात्रा सतत् चलती रहेगी, कभी बन्द नहीं होगी। जितने नये आयाम खुलते जायेंगे उतनी ही नयी अविज्ञात विलक्षणताएं और उभर कर आयेंगी। परन्तु मानवी जिज्ञासा कभी विराम नहीं लेगी। यह विश्वास विज्ञानविदों को तो है ही, सृजेता को भी है। तभी तो वह तरह-तरह की लीलाएं रचना, उठापटक मचाता रहता है। एवं मानवी बुद्धि को अविज्ञात की गहराई तक जाने की चुनौती देता रहता है। विचित्र विलक्षण के इस क्रम में कुछ और घटनाक्रमों का विवरण अगले अंक में पढ़ें। (क्रमशः)


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