आत्मज्ञान से देवत्व की प्राप्ति

November 1988

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सृष्टि संरचना का कार्य पूर्ण हो गया। प्रजापति ने अपनी संतानों की ओर देखा तो उनकी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। सर्वांग सुन्दर और सर्वोपयोगी शरीर जैसा मनुष्य के पल्ले पड़ा वैसा किसी जीवधारी को भी अब तक उपलब्ध न हो पाया था, जैसी बौद्धिक क्षमतायें मनुष्य में थीं किसी अन्य प्राणी में नहीं, प्रजापति ने सन्तोष की साँस ली और आत्म जनों को विदाई दी।

“मनुष्य को चाहिए कि क्रोध को प्रेम से, बुराई को भलाई से, लोभ को उदारता से और मिथ्या को सत्य से जीते।”

फिर न जाने क्या सोचकर पितामह ने प्रजाजन को रुक जाने को कहा--परिजन, उनकी ओर उन्मुख हुए। प्रजापति ने कहना प्रारम्भ किया--तात! तुम्हें सर्वांगपूर्ण शरीर दिया गया है। तुम शरीर नहीं हों, तुम्हें बुद्धि नहीं हों, तुम जो हो--उस आत्म तत्व के ज्ञान के बिना तुम सुखी नहीं रह सकोगे। अतएव विपुल साधनों के स्वामी होकर भी आत्म-विमुख नहीं होना, क्योंकि समस्त समस्याओं का एक मात्र हल यह आत्म-ज्ञान ही है।

प्रजाजन के दो वर्ग थे एक सुर दूसरे असुर। यों भी कहा जा सकता है। दो विभिन्न क्षेत्रों में विभक्त दो दलों का यह नामकरण मात्र था। दोनों ने निश्चय किया कि प्रजापति जिनने हमें जन्म दिया, हमारे कल्याण के सभी साधन संग्रहित किये इनकी उक्ति मिथ्या नहीं होनी चाहिए, अतएव दोनों वर्गों से प्रतिनिधि स्वरूप दो व्यक्ति नियत किये गये, जो प्रजापति से आत्म का ज्ञान प्राप्त करें और अपने-अपने वर्ग को उसका प्रशिक्षण करें। देव वर्ग ने इन्द्र को ओर असुरों ने विरोचन को अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा।

प्रजापति ने अन्तर्मुखी दृष्टि के विकास के लिये इन शिष्यों को दर्पण साधना बताई उन्हें कहा--दर्पण में अपनी छवि देखना। छवि देखने वाले दृगों की देखना, दृगों की पुतलियों के भीतर प्रविष्ट होकर यह पहचान करना कि यह भीतर कौन देखता है? कैसे देखता है?

दोनों शिष्य अपनी साधना करने लगें। विरोचन ने तरह तरह से दर्पण देखा, वेश-भूषा बदलकर केश विन्यास में परिवर्तन कर सौंदर्य प्रसाधनों में कई बार अन्तर कर उसने जितनी बार दर्पण में देखा उसको अपनी सुडौल देह व्यष्टि सुन्दर मुखमण्डल ही स्मरण में आया तो उसने यही माना कि यह शरीर ही आत्मा है उसे ही तरह तरह से सजाने से उसी की तृप्ति में लगे रहना ही सुख का साधन है, विरोचन को ओर अधिक रुकने में उकताहट हुई सो उसने अपनी इसी मान्यता को पूर्ण मान लिया और घर लौट आया।

इन्द्र ने बहुत देरी दृष्टि जमाई पर नेत्रों की पुतलियों से उन्हें कुछ नहीं दीखा। उन्होंने प्रजापति से आगे की कक्षा का पाठ पढ़ाने की याचना की। प्रजापति ने उन्हें और अधिक समय तप करने का आदेश दिया।

प्रजापति ने कहा अब तुम यह ज्ञात करो कि स्वप्नावस्था में यह जो तुम्हारी तरह क्रियायें करता है वह कौन है? इन्द्र ने तुलनात्मक अध्ययन के बाद पाया कि चेतन और स्वप्न दोनों का ही कर्ता एक है पर कई बार प्रगाढ़ निद्रा में स्वप्न का चेतन अबोध हो जाता है तब फिर उसे आत्मा कैसे माना जाये?

प्रजापति ने उन्हें फिर तप करने की आज्ञा दी। इस बार इन्द्र को बोध हुआ। दर्पण के आगे से मुँह फेर लेने से शीशा रहने पर भी जिस तरह प्रतिबिम्ब नहीं रहता उसी तरह मृत्यु के बाद शरीर रहने पर भी आत्मा आकाशभूत हो जाती है। शरीर तो उस आत्मा की अभिव्यक्ति का दर्पण मात्र है। आत्मा उसका चेतन भाग हैं सो इन्द्र उस चेतना के विकास में ही लग गये और देवताओं को उसी का उपदेश दिया जिससे देवगण अमर, पवित्र, पूज्य और उच्च पदस्थ हुए जबकि शरीर को ही आत्मा मानकर उसी को सजाने संवारने में इन्द्रिय सुखों की लिप्सा में पड़े असुरगण सर्वत्र विग्रह उत्पन्न करते और निकृष्ट जीवन जीते हुए प्रजापति की कृति को कलंकित करते रहते है।


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