सतयुगी गरिमा को प्रतिभाएं जीवन्त करेंगी!

November 1988

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्रस्तुत समय जिससे हम गुजर रहे है। संधि काल है। यह युग संधि का समय न चूकने जैसा है। आपत्तिकाल में लोग निजी व्यवसाय छोड़कर दुर्घटना से निपटने के लिए दौड़ पड़ते है। अग्निकाण्ड भूकम्प दुर्भिक्ष महामारी दुर्घटना जैसे अवसरों पर उदार सेवा भावना की परीक्षा होती है। भावनाशील इस अवसर पर चूकते नहीं। उपेक्षा करने वाले तिरष्कृत जैसे होते और सेवा साधना में जुट पड़ने वाले सदा सर्वदा के लिए लोगों के मन पर अपनी प्रामाणिक महानता की गहरी छाप छोड़ती है। जो कालान्तर में उन्हें अनेक माध्यमों से महत्वपूर्ण वरिष्ठता प्रदान कराती है।

इतिहास साक्षी है कि आपत्ति काल में राजपूत घरानों से एक एक सदस्य सेना में भर्ती होता था। सिख धर्म जिन दिनों चला था तब भी उस विपन्न वेला में उस प्रभाव क्षेत्र में आए हर परिवार ने अपने परिवार में से एक को सिख सेना का सदस्य बनने के लिए प्रोत्साहित किया था। आज की वेला तब की अपेक्षा कम विपन्न नहीं है। नव सृजन में संलग्न होने के लिए हर घर से एक प्रतिभा को आगे आना चाहिए और भारत भूमि की सतयुगी गरिमा को जीवन्त रखने का श्रेय लेना चाहिए। इक्कीसवीं सदी में सतयुग की वापसी वाली संभावनाएं सुस्पष्ट हैं कुछेक चिह्न पहले से ही निर्वाह में कटौती करके अपनी भाव संवेदनाएं आकांक्षाएं एवं गतिविधियों को सृजन प्रयोजनों में समर्पित कर सकें जिससे उनका समर्पण अन्धकार में जुलते मशाल की भूमिका निभाते हुए सबकी आँखों में चमक पैदा कर सकें।

स्वर्ग मुक्ति दिव्य दर्शन आदि के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है और निराशा भी रहना पड़ सकता है। पर सत्य प्रयोजनों के लिए प्रस्तुत किया गया आदर्श साहस व्यक्तित्व को ऐसा प्रामाणिक प्रखर एवं प्रतिभावान बनाता है जिसके उपार्जन को दैवी सम्पदा के रूप में आँका जा सके जिस पर आज की भौतिक सम्पदाओं सुविधाओं को निछावर किया जा सके धनाढ्य और विद्वान कुछ लोगों पर ही अपनी धाक जमा पाते है। पर महामानव स्तर की प्रतिभाएं इतिहास को समस्त मानव जाति को कृतकृत्य करती है।

प्रतिभाओं का प्रयोग जहाँ कहीं भी जब कभी भी औचित्य की दिशा में हुआ है वहाँ उन्हें हर प्रकार से सम्मानित पुरस्कृत जीतते और छात्र वृत्ति के अधिकारी बनते है। सैनिकों में विशिष्टता प्रदर्शिता करने वाले वीरता पदक पाते ही अधिकारियों की पदोन्नति होती है। लोकनायकों के अभिनंदनों किए जाते है। संसार उन्हें महामानव का सम्मान देता है। तथा भगवान उन्हें हनुमान अर्जुन जैसा अपना सघन आत्मीय वरण करते है।

युग सृजन बड़ा काम है। उसका संबंध किसी व्यक्ति क्षेत्र देश से नहीं वरन् विश्व व्यापी समस्त मानव जाति के चिन्तन चरित्र और व्यवहार में आमूल-चूल परिवर्तन करने से है। पतनोन्मुख प्रवृत्तियां तो आँधी तूफान की तरह गति पकड़ लेती है पर उन्हें रोकना और तदुपरान्त उत्कृष्टता की दिशा में उछाल देना असाधारण दुस्साहस भरा प्रयत्न है। कैंसर के मरीज को रोग मुक्त करना और नीरोग होने पर उसे पहलवान स्तर का समर्थ बनाना एक प्रकार से चमत्कारी काया कल्प है। ऐसे उदाहरण सम्राट अशोक स्तर के अपवाद स्वरूप ही दीख पड़ते है। पर जब यही प्रक्रिया सार्वभौम बनानी हो तो कितनी दुरूह होगी इसका अनुमान वे ही लगा सकते हैं जिन्हें असंभव को संभव कर दिखाने का प्रण पूरा करना हो। जिन्हें करना कुछ न हो उनकी समीक्षा तो बाल विनोद ही हो सकती है।

दुस्साहस पर प्रतिभाएं उतरती है। विशेषतया जब वे सृजनात्मक हों कटे हुए अंगों के घाव भरना उनमें दूसरे प्रत्यारोपण जोड़ कर पूर्व स्थिति में लाना मुश्किल सर्जरी का ही काम है। युग की समस्याओं को सुलझाने के लिए अनौचित्य को निरस्त करने और सृजन का अभिनव उद्यान खड़ा करने के लिए ऐसे व्यक्तित्व चाहिए जो परावलम्बन की हीनता से स्वार्थ परता की संकीर्णता से ऊंचे उठकर अपने को परिष्कृत करने के साथ साथ वातावरण को समुन्नत बना सकने की उत्कंठा से अन्त करण को भाव संवेदनाओं से ओत−प्रोत कर सकें।

आत्मबल बढ़ाने के लिए उपासना को सब कुछ माना जाता है और उसी के सहारे मनोकामनाओं की पूर्ति से लेकर स्वर्ग मुक्ति तक देवताओं और भगवानों से अपनी मान्यताओं के अनुरूप छवि बनाकर दर्शन देने की अपेक्षा की जाती है। ऋद्धि सिद्धियों की आशा की कितने ही लोग लगाए रहते है। और सफलता की कसौटी यह मानते है कि उन्हें चित्र विचित्र कौतुक कौतूहल दृष्टिगोचर होते है। चमत्कार देखने और चमत्कार दिखाने तक ही उनकी सफलता सीमित रहती है। पर बात वस्तुतः ऐसी है नहीं। यदि आत्म शक्ति जागी तो उसका दर्शन आदर्शवादी प्रतिभा में ही अनुभव होगा। उसी में ध्वंस से निपटने और सृजन को चरितार्थ कर दिखाने की सामर्थ्य होती है। यही दैवी वरदान है इसी को सिद्ध पुरुषों का अनुदान भी कह सकते है। यथार्थ खोजों अन्वेषणों में भी यही उभर कर आते है।

भगवान शंकर ने परशुराम को कालकुठार थमाया था कि पृथ्वी को इक्कीस बार अनाचारियों से मुक्त कराए सहस्रबाहु की अदम्य समझी जाने वाली शक्ति का दमन उसी के द्वारा संभव हुआ था। प्रजापति ने दधीचि की अस्थियाँ मान कर इन्द्र को वज्रोपम प्रतिभा प्रदान की थी जिससे वृत्रासुर जैसे अपराजेय दानव से निपटा जा सका। अर्जुन को गाण्डीव देवताओं से मिला था छत्रपति शिवाजी की भवानी तलवार देवी द्वारा प्रदान की गई बताई जाती है। वस्तुतः यह किन्हीं अस्त्र शस्त्रों का उल्लेख नहीं है वरन् उस समर्थता का उल्लेख है जो लाठियों या ढेलों से भी अनीति को परास्त कर सकती है। गाँधी के सत्याग्रह में उसी स्तर के अनुयायियों की आवश्यकता पड़ी थी।

ऋद्धियों सिद्धियों द्वारा किसी को न तो बाजीगर बनाया जाता है। और न कौतुक दिखाकर मनोरंजन किया जाता है। विश्वामित्र राम लक्ष्मण को यज्ञ के बहाने अपने आश्रम में ले गए थे। वहाँ उन्हें बला अतिबला विद्या प्रदान की थी। उनके सहारे वे शिव-धनुष तोड़ने सीता स्वयंवर जीतने लंका की असुरता मिटाने और रामराज्य के रूप में सतयुग की वापसी सम्भव कर दिखाने में समर्थ हुए थे। विश्वामित्र ने ही अपने एक दूसरे शिष्य हरिश्चंद्र को ऐसा कीर्तिमान स्थापित करने का साहस प्रदान किया था, जिसके आधार पर वे तत्कालीन युग सृजन योजना को सफल बनाने में समर्थ हुए थे। साथ ही साथ हरिश्चन्द्र के यश को भी उस स्तर तक पहुँचा सके थे जिसकी सुगंध पर मोहित होकर देवता भी आरती उतारने धरती आए।

चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को कोई गड़ा खजाना खोद कर नहीं थमाया था वरन् ऐसा संकल्प बल उपलब्ध कराया था जिसके सहारे आक्रमणकारियों का मुँह तोड़कर चक्रवर्ती के हौसले इतने बुलन्द किए थे कि अजेय समझे जाने वाले शासन को नाकों चने चबाते रहे। छत्रसाल ने सिद्ध पुरुष प्राणनाथ से ही वह छत्रसाल ने सिद्ध पुरुष प्राणनाथ से ही वह प्राणदीक्षा प्राप्त की थी जिसके सहारे वे हर दृष्टि से राजर्षि कहला सके।

देवताओं ने सिद्धार्थ को राजकुमार न रहकर धर्मचक्र प्रवर्तन में संलग्न होने का परामर्श दिया था। सिद्ध पुरुष माने जाने वाले गोरखनाथ, मत्स्येन्द्र नाथ के तप वैभव के अधिकारी बने थे। रामानन्द ने कबीर को स्वर्ण खान कही नहीं सौंपी थी। वरन् वह प्रतिभा प्रदान की थीं जिसके कारण कुलीनता और विद्वत्ता के अभाव में भी अपने समय के प्रचण्ड प्रवर्तक के रूप में प्रख्यात हुए। भगवान के भक्तों में सर्वोपयोगी नारद माने जाते है। उन्हें वह ललक मिली थी कि जन जन में भाव संवेदना का बीजारोपण करते हुए अनवरत रूप से संलग्न रह सकें। पवन ने अपने पुत्र हनुमान को वह वर्चस प्रदान किया था कि रामचरित्र में मेरुदण्ड जैसी भूमिका का निर्वाह कर सके।

गाँधी ने अपने प्रिय पात्र विनोबा को महान प्रयोजनों के लिए मर मिटने की भावसंवेदना प्रदान की थी उनके संपर्क में आने वाली अन्य लोगों ने भी जुझारू प्रतिभा पाई और अपने चरित्र तथा कर्त्तव्य से जनमानस पर गहरी छाप छोड़ने में सफलता पायी थी।

सन्त माधवेन्द्र पुरी ने अपने शिष्य चैतन्य को जनजागरण के कर्मक्षेत्र में उतारा था। विरजानन्द ने दयानन्द को ऐसा ही पुरुषार्थ प्रकट करने के लिए उद्यत किया था। रामकृष्ण परमहंस द्वारा विवेकानन्द को जिस मार्ग पर चलाया गया वह लोकमंगल के लिए समर्पित होकर स्वयं संकल्पवान नर रत्न की तरह चमकने और मूर्छित संस्कृति में प्राण चेतना फूँकने वाला राजमार्ग ही था।

महर्षि अगस्त्य ने भगीरथ को राजपाट छोड़कर गंगावतरण के महाप्रयास में संलग्न होने के लिए नियोजित किया था। लक्ष्य इतना उच्चस्तरीय था कि उनकी सफलता में योगदान देने के लिए स्वयं शंकरजी को कैलाश छोड़कर आना पड़ा था। योगी भर्तृहरि ने अपने भाई विक्रमादित्य को आदर्श शासक और भाँजे गोपीचन्द को तत्वदर्शन के अवगाहन में संलग्न किया था। इससे अधिक और कुछ कोई अपने स्वजन संबंधियों को दे ही क्या सकता है?

सम्राट अशोक ने जो प्रेरणा पाई थी उसी को अपनाने के लिए अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को परिव्राजक के रूप में धर्म प्रचार के लिए समर्पित कर दिया था। स्वयं बुद्ध भी तो अपने पुत्र राहुल को इसी स्तर की दीक्षा दे चुके थे बुद्ध परम्परा में आम्रपाली से लेकर कुमार जीव तक ऐसे अनेकों प्रतिभाशाली हुए जो भौतिक सुख भोगों से कोसों दूर रहकर धर्म प्रयोजनों में ही लगे रहते थे। मध्यपूर्व को भारतीय संस्कृति की छत्र छाया में लाने का श्रेय महाभाग कौडिन्य को जाता है। जिनने उच्च लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जीवन भर प्रयास जारी रखा।

उन पुराण पंथियों की गली कूचों में भरमार है जिनने वैभव बढ़ाने सुविधा भोगने दर्प दिखाने और औलाद के लिए भरे खजाने छोड़ कर मरने जैसी सफलताएं अर्जित की श्रम संभवत उन्हें भी महापुरुषों से कम न करना पड़ना होगा। पर संकीर्ण स्वार्थपरता की परिधि से ऊंचे न उठने के कारण सुरदुर्लभ जीवन सम्पदा के व्यर्थ नियोजन पर पश्चात्ताप करते ही मरे होंगे। इसके विपरीत महर्षि कर्वे, हीरालाल शास्त्री, बाबासाहब आमटे, महामना मालवीयजी, भामाशाह, स्वामी श्रद्धानन्द, अहिल्या बाई, सुभाषचन्द्र बोस जैसी विभूतियों को प्रात स्मरणीय समझा जाता है। जिनने स्वयं तो रोटी कपड़े पर निर्वाह किया पर अपने समूचे वर्चस को परमार्थ प्रयोजनों के लिए निचोड़ दिया।

विदेशी प्रतिभाओं में जापान के गाँधी कागावा स्काउट आन्दोलन के जन्मदाता वेडेन पावेल रूस के लेनिन मार्क्स आदि संसार के इतिहास में जगमगाते हीरकों की तरह आँके जा सकते है। जहाँ सच्चरित्रता और सेवा भावना भगवत् कृपा प्रत्यक्ष होकर बरस पड़ी ऐसे लोग यशस्वी तेजस्वी ओजस्वी और मनस्वी कहलाते है। उनकी उदार चेतना और मनस्वी कहलाते है। उनकी उदार चेतना और युगसृजन जैसी सेवा साधना बन पड़ना परिवर्तन का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं वास्तविक भगवत् कृपा इसी प्रकटीकरण में देखी जा सकती है। इसे ऐसी सिद्धि कह सकते हैं जिसके ऊपर अंधविश्वास एवं भ्रम जंजाल होने जैसा कोई लाँछन लगता ही नहीं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118