एक वेश्या ने सुन रखा था कि पितृ-पक्ष में ब्राह्मण भोजन कराने के से पितर प्रसन्न होते हैं और कराने वाले को बहुत-सा उपहार वरदान देते हैं।
वेश्या इतना खर्च करने को तैयार हो गई और किसी ब्राह्मण को निमंत्रण स्वीकार करने पर तैयार करने के लिए निकल पड़ी। बहुतों के पास गई पर वेश्या के यहाँ भोजन करने जाने के लिए कोई तैयार न हुआ। वह निराश होकर बैठ गई और भाग्य को कोसने लगी।
एक भाँड़ को यह समाचार मिला उसके मुँह में पानी भर आया। पंडित का वेश बनाकर वेश्या के घर पर जा पहुँचा और बोला तुम्हारी धर्म भावना को सार्थक बनाने के लिए मैं स्वयं ही दौड़ा आया। तुम चाही तो पितृ-पक्ष के पन्द्रह दिन मुझे भोजन कराती रह सकती हो। वेश्या रजामंद हो गई ब्राह्मण बनकर भाँड़ नित्य आता और इच्छा भोजन करके तृप्त हो जाता।
पितृ-पक्ष पूरा हो जाने पर वेश्या ने कहा जिस प्रकार दूसरे पंडित मंत्र पढ़कर आशीर्वाद देते है। उस प्रकार आप भी तो दीजिए।
भाँड़ को संस्कृत आती न थी उसने चतुरता से तुरंत एक दोहा गढ़ा और सुनाया-
पन्द्रह दिन पूरन भये, खाय खीर और खाँड। जैसा धन तैसे गया, तुम वेश्या हम भाँड।
असलियत का पता चलने पर वेश्या ने समझा कि मूर्खों को धूर्त इसी प्रकार ठगते रहते हैं।