मानवी गरिमा से जुड़ी सभ्यता-सुसंस्कारिता

November 1988

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सृष्टा ने प्राणि में मनुष्य को अनेक विशेषताओं से युक्त बनाया है। उसका शरीर और मस्तिष्क विचित्र है। खड़े होकर चलना, वाणी की अभिव्यक्ति, संगीत से लेकर वैज्ञानिक अनुसंधानों और भावनात्मक सम्बन्धों तक अनेक विशेषताएँ एवं विभूतियाँ उसके साथ जुड़ी हुई है। परन्तु विभूतियाँ रहती है प्रसुप्त स्थिति में। उन्हें प्रयत्न पूर्वक जाग्रत करना और अभ्यास-स्वभाव में शामिल करना पड़ता है, अन्यथा वे कोयले की खदान में दबे हुए हीरे की तरह अनजान ही पड़ी रहती है।

मनुष्य का सबसे बड़ा सौभाग्य और कौशल यही है कि मानवी गरिमा के साथ जुड़ी हुई विशिष्टताओं को समझे अपनाये और उनके आधार पर समर्थ, समृद्ध और सुसंस्कारी बनने को श्रेय प्राप्त करे। ऐसे ढेरों उदाहरण मिल जाते हैं जहाँ परिस्थितियों का रोना रोते हुए प्रगति से वंचित रहा गया। इसके विपरीत ऐसों के भी असंख्य उदाहरण मिल जाते है, जिन्होंने परिस्थितियों की घोर प्रतिकूलता के रहते अपने सद्गुणों के आधार पर आगे बढ़ने, ऊँचे उठने के कीर्तिमान स्थापित किए।

प्रगति की आकाँक्षा सभी को है। सफलताएँ हर कोई चाहता है। महत्वाकाँक्षाएँ सभी के मनों में उठती हैं, परन्तु उनकी आँशिक पूर्ति ही अधिकाँश में हो पाती है। तमाम लोगों तो उससे वंचित ही रह जाते है। यों इस सम्बन्ध में साधनों के अभाव, सहयोग न जुट पाना, परिस्थितियों का प्रतिकूल रहना ही प्रधान कारण बतलाए जाते है। परन्तु वस्तु स्थिति ऐसी नहीं है। यदि ऐसा रहा होता तो साधन सम्पन्न लोग ही सराहनीय सफलताएँ पाया करते, निर्धनों में से किसी को भी महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ नहीं मिलती है। परन्तु देखा कुछ और ही गया है। संपन्नता और सुविधा वाले दुर्व्यसनों में फँसते, आलस्य प्रमाद का परिचय देते और कुसंगों-दुर्गुणों में ग्रस्त होते देखे जाते हैं। फलस्वरूप वे संचित को गँवा देते हैं, और अप्रत्याशित कठिनाइयों में फँसकर दुर्गति के शिकार होते है।

साधनों और परिस्थितियों की प्रत्यक्ष उपयोगिता तो किसी सीमा तक है भी, परन्तु गहरी दृष्टि डालने पर वस्तुस्थिति दूसरी ही दिखती है। मनुष्य के अपने गुण-कर्म-स्वभाव की श्रेष्ठता और निकृष्टता से ही प्रगति अवगति के आधार पर बनते हैं। वही अनुकूलता को अपव्यय के आधार पर दुर्गति का निमित्त कारण बना देते हैं और वही प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदल देते है। इसलिए विचारशील सदा इसी बात पर जोर देते रहते हैं कि मनुष्य का व्यक्तित्व प्रामाणिक, प्रखर और प्रतिभावान बनाने के लिए, एड़ी चोटी का जोर लगाया जाय। यह सब बन पड़ने पर व्यक्ति ऐसा जीवन चुम्बक बन जाता है जो प्रगतिशील के तत्वों को खींचकर घसीटकर उसे प्रचुर मात्रा में अपने भण्डार में भर सके।

दार्शनिकों, धर्म धुरंधरों ने सद्गुणों की गणना अपने-अपने ढंग से की है और उनके प्रतिफल भी अपने-अपने ढंग से समझाये हैं। व्रत, अनुष्ठान, दान, तप, भक्ति, ध्यान जप आदि के महत्व की बढ़ी चढ़ी चर्चायें होती है। उनके प्रतिफल स्वर्ग मुक्ति स्तर के बताये जाते है। ईश्वर दर्शन, ब्रह्म निर्वाण ऋद्धि सिद्धियों के आकर्षण के पीछे यही उद्देश्य रहता है, किन्तु मनुष्य इन्हें ध्यान में रखते हुए सद्गुणी बने। सभी तत्वदर्शियों ने सद्गुणों की सम्पदा संचित करके ही आत्मिक प्रगति का शुभारंभ करने के लिए कहा है। योगाभ्यास में यम नियमों को प्राथमिकता दी गई है। वे और कुछ नहीं, शारीरिक एवं मानसिक, सदाशयता के प्रकार है। धर्म के दस लक्षण ‘मनु’ द्वारा प्रतिपादित किए गए है। इन सभी में सद्गुणों पर ही जोर दिया गया है।

इतना सब होते हुए भी एक प्रश्न बना ही रहता है कि उनका प्रारम्भ किस क्रम से किस प्रकार किया जाय? इसके बिना बात बनती नहीं, क्रम बद्धता का तारतम्य बैठता नहीं। शिक्षा के सर्वांगीण स्वरूप के अंतर्गत शिक्षार्थी को उच्च कक्षाओं में साहित्य, इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि अनेक विषय पढ़ने पड़ते है; किन्तु इन सबसे पहले वर्णमाला का, अक्षरों, मात्राओं का, गिनती पहाड़ों का ज्ञान तो चाहिए ही। ऐसा कोई “शार्टकट” नहीं है जिसके आधार पर इस प्राथमिक शिक्षा की उपेक्षा करके सीधे हाईस्कूल, कालेज आदि में दाखिला लिया जा सके। ऐसा प्रयास कोई अति उत्साही कर रहा हो तो समझ लेना चाहिए कि उसका समय परिश्रम और उत्साह सभी व्यर्थ जाने वाले है।

विकास क्रमशः ही संभव है। बीज अंकुर बनाता है। पौधे पेड़ बनता है और फल फूलों से लद जाता है। यह सब परिणति बीज बोने की ही है। आध्यात्मिक और भौतिक उभयपक्षीय प्रगतियों की बीज तत्व है-सभ्यता। यह बहिरंग है। समयानुसार जब यह अंतरंग क्षेत्र में प्रवेश करती है तो ‘सुसंस्कारिता कहलाती है। सिद्धान्त रूप से तो यह भी कहा जाता है कि संस्कारिता को हृदयंगम करने के उपरान्त सभ्यता की रीति-नीति भी व्यवहार में मिलने लगती है। परन्तु प्रत्यक्ष अनुभव यह बतलाया है कि जन सामान्य में, संस्कारिता के प्रति उमंग पैदा करने के लिए सभ्यता के बहिरंग सूत्रों को ही माध्यम बनाना पड़ता है। अध्यात्म का एक मात्र उद्देश्य, चेतना को उत्कृष्टता अपनाने के लिए प्रशिक्षित करना है।

अन्तरंग जीवन में दूरदर्शी विवेकशीलता उचित-अनुचित का निर्धारण आदर्शों की पक्षधर भाव संवेदनाएँ जाग्रत करती पड़ती है। देवत्व इन्हीं के सहारे उभरता है। दिव्य अनुदान के बरसने का सुयोग इसी आधार पर हस्तगत होता है। इसे सुसंस्कारिता या मानवी संस्कृति कहते है। मनुष्य में पाया जाने वाला देवत्व इस पृष्ठभूमि पर उगता और विकसित होता है। चेतनात्मक विकास परिकर का मूल्यांकन इन्हीं मानवों से आँका-नापा जाता है।

दूसरा पक्ष है सभ्यता। यह प्रत्यक्ष एवं दृश्यमान है। शारीरिक गतिविधियाँ एवं पारस्परिक व्यवहार के आधार पर इसकी जानकारी मिलती है। यह आरम्भिक हैं। क्रिया से चेतना विकसित होती है। इसी से संयम जैसे अध्यात्म निर्धारण में व्रत-उपवास जैसे क्रिया कलापों को अभ्यास में उतारा जाता है। सभ्यता का अनुसरण करते-करते संस्कृति के भावनात्मक उच्च स्तर तक पहुँचा जाता है।

चिन्तन और चरित्र अन्तःकरण की सुसंस्कारिता के आधार पर विकसित होता है। नीति-धर्म, पुण्य परमार्थ उसी गहन अन्तराल पर निर्भर है। किन्तु तीसरी धारा व्यवहार है। उसे संपर्क में रहने वालों से शिक्षण अनुकरण द्वारा सीखा जाता है। उसमें आदर्शों का गहन पुट तो रहता है, परन्तु सीखते समय अल्प विकसित लोग अथवा बालक उसे तत्व ज्ञान को उतनी अच्छी तरह से समझ नहीं पाते। केवल अनुकरण अभ्यास से ही उसे सीखते रहते है। सोने उठने, खाने पीने आदि का अभ्यास भी इसी प्रकार होता है। साँचे में खिलौने ढलते है और वातावरण के प्रभाव से उस क्षेत्र में रहने वाले अपना स्वभाव उस तरह का बना लेते है। यह धीरे-धीरे विकसित होता चलता है। यह अभ्यास क्रम, मानवी गरिमा के अनुरूप होने पर शिष्टाचार और प्रतिकूल अनगढ़ होने पर अनाचार कहा जाता है।

शिष्टाचार से कुछ ऊँची स्थिति है सदाचार। उसमें नीति मर्यादा एवं मानवी गरिमा के अनुरूप चिन्तन चरित्र और व्यवहार का ऐसा पुट रहता है जिसके लिए बार-बार सीखने समझने और सुधारने की आवश्यकता नहीं पड़ती। वह स्वभाव का अंग बन जाता है और क्रिया कलापों में अनायास ही सम्मिलित रहता है। शालीनता इसी को कहा जाता है। सज्जनता यही है। व्यक्ति इसी आधार पर भीतर से सन्तुष्ट प्रफुल्लता रहता है और बाहर से उसे श्रेय, सम्मान, सहयोग मिलते रहने का उपक्रम सहज ही बनता रहता है।

मनुष्य के साथ जुड़ी विशिष्टता परक रीति नीति शिष्टाचार है। इसे अन्य प्राणी नहीं जानते, परन्तु मनुष्य को इस आरंभिक में ही सीख लेना पड़ता है। जब तक शिशु शारीरिक दृष्टि से अविकसित विवश है, तभी तक उसे छुट रहती है कि मल मूत्र का विसर्जन चाहे जहाँ करे। जैसे ही उन्हें थोड़ा-थोड़ा बोध होता है, शरीर सक्षम होता है, वैसे ही वे यथासम्भव शिष्टाचार अपनाने लगते है। पहले बड़े लोग उन्हें सिखाते समझाते हैं, फिर उसे अनुशासन का पालन वे स्वेच्छा पूर्वक करने लगते है। भूल होने पर जो नाराजगी सहनी पड़ती है। उसके कारण भूलों का सुधार होता रहता है। छोटों के साथ, बड़ों के साथ, अपनों और परायों के साथ उन्हें कैसा व्यवहार करना चाहिए, यह अपने अनुभव, अपनी सूझ-बूझ से भी सीखना पड़ता है, और अभिभावक भी सिखाते रहते है।

यह शिक्षण यदि उपयुक्त स्तर का हुआ तो बालक में सभ्यता के लक्षण उभरते हैं और श्रेय सम्मान, स्नेह सहयोग दिलाकर उत्साहित करते रहते हैं। यह प्रयास यदि सही दिशा में चलता रहे तो वयस्क होने पर वह सज्जनों की पंक्ति में गिना जाने लगता है। उसे समुचित आदर मिलने लगता है और उसकी सामर्थ्य के अनुरूप उत्तरादयित्व बेहिचक सौंपे जाते है। स्वयं को भी यह आत्मविश्वास होने लगता है। उत्साह और साहस इसी आधार पर परिपक्व होते है। व्यक्ति अपनी गरिमा का प्रामाणिक परिचय देते हुए मूर्धन्य स्तर का पहुँचने योग्य बन जाता है। यदि इस प्रक्रिया में गड़बड़ी हुई तो व्यक्ति ढीठ, उद्दण्ड, कटुभाषी, अशिष्ट स्तर का परिचय देने लगता है। अवाँछनीय, प्रमाद और असभ्यों जैसे हेय आदतों का पिटारा बन उसे साथियों की उपेक्षा और भर्त्सना ही नहीं, प्रताड़ना भी सहनी पड़ती है। अपना अनाचार उलटकर अपने ही ऊपर आक्रमण करता है और उस दुर्गति से अपना मन खिन्न और उद्विग्न रहने लगता है। मन को बहलाने के लिए इस विसंगति का दोषारोपण दूसरों पर करने का .... किया जाता है। यह अनगढ़ स्थिति ऐसी है। जो किसी को भी गहरा सम्मान, सहयोग और विश्वास प्राप्त नहीं करने देती।

व्यवहार को देखकर किसी के चरित्र का अनुमान लगाया जाता है। चरित्र का पर्यवेक्षण करने पर उसी आस्थाओं, विचारणाओं, भावनाओं और आकाँक्षाओं का परिचय मिलता है। यों उच्चस्तरीय विश्लेषण में चिन्तन को प्रधान, चरित्रों का उसका परिपाक और व्यवहार को उसकी अभिव्यक्ति माना जाता है। यह अपने ढंग का विश्लेषण है। परन्तु यह निश्चित है कि व्यवहार ही किसी की आरंभिक पहचान कराता है। चरित्र और चिन्तन की जानकारी प्राप्त करने में तो बहुत देर लगती है और गहरी खोज बीन की आवश्यकता पड़ती है। व्यवहार पहली दृष्टि में ही सामने आ जाता है। दुकान में क्या समान रखा है, इसकी जाँच पड़ताल समय साध्य है। परन्तु साइनबोर्ड देखकर रास्ता चलता व्यक्ति भी समझ जाता है कि यहाँ क्या रखा और बेचा जाता है? जिसके पास संपर्क साधने का पर्याप्त समय नहीं है, ऐसे अधिकाँश लोग किसी व्यक्ति के बारे में लगे हुए अनुमान, उसके व्यवहार की थोड़ी भी गतिविधियों को देखकर लगाते है। इस प्रथम मूल्यांकन के आधार पर अगले मूल्यांकन होते है। सम्मान तिरस्कार, विश्वास अविश्वास का मन इसी आधार पर बनता है।

कहना न होगा स्वाभाविक, सामान्य अभ्यास में शामिल व्यवहार किसी को बहुत त्रुटिपूर्ण नहीं लगते। अभ्यास में आ जाने के बाद उनकी समीक्षा करने की जरूरत भी समझ में नहीं आती। ऐसे में सुधार तो बन ही कैसे पड़े? इसी कमजोरी के कारण अधिकाँश मनुष्य शिष्टाचार के अनभ्यस्त, अनगढ़ गये गुजारे और असभ्य स्तर के बने रहते हैं। उसमें किसी को तात्कालिक लाभ भले ही दिखे पर यह निश्चित है कि अशिष्ट व्यक्ति दूसरों की उपेक्षा अपना अहित स्वयं ही अधिक कर लेता है। इसी कारण शिष्टाचार की महत्ता सर्वाधिक बतायी गयी है एवं कहा गया है कि ‘मानव की अनगढ़ता के मिटने एवं सुगढ़ता के विकसित होने दिशा में यह पहला एवं महत्वपूर्ण कदम है।


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