युग संधि-महापुरश्चरण प्रयोजन और प्रयास

November 1988

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पिछली दो शताब्दियों से विज्ञान के उदय अभिवर्धन और चमत्कार प्रस्तुत करने का अवसर कहा जाता है। प्रत्यक्षवाद द्वारा तत्वदर्शन को पीछे धकेले जाने का अवसर भी यही रहा। पचाने की क्षमता से अधिक साधन प्राप्त होने पर उत्पन्न उन्माद ऐसा ही कुछ करा डालता है, जो विवेकशीलता की दृष्टि से नहीं किया जाना चाहिए। इधर प्रकृति के दरबार में किसी के साथ लिहाज नहीं, करनी का फल भुगतान एक अनिवार्यता है, जो रहता होकर ही है। यही क्रम भी चल रहा है।

विज्ञान ने औद्योगिक की दिशा में कदम बढ़ाया। विशालकाय काल कारखाने लगे। उत्पादन की मात्रा इतनी बढ़ी कि उसे खपाने के लिए मंडियों की आवश्यकता पड़ी। इसका एक प्रभाव यह हुआ कि अविकसित देशों पर आधिपत्य जमाकर, उन्हें कच्चा माल देने और बना माल खरीदने के लिए विवश किया गया। भारत पर अंग्रेजी शासन का यही प्रधान कारण था। औद्योगिक से सम्पन्न अन्य देशों ने जहाँ बस चला वहाँ पंजे गड़ाये। दूसरे समर्थ राष्ट्रों से यह आशातीत लाभ देखा न गया और वे आपस में लड़ पड़े। इन दो सौ वर्षों में छुटपुट युद्ध तो हजारों हुए, पर दो विश्व युद्ध ऐसे हुए, जिन्हें अभूतपूर्व कहा जा सकता है। इनमें जन-धन की अपार क्षति हुई।

पिछले छोटे बड़े युद्धों के परिणाम देखकर भी तीसरे विश्व युद्ध की हविश शान्त नहीं हुई है। युद्धोन्माद अणु आयुधों के अम्बार लगाने पर उतारू है। यदि यह युद्ध हुआ तो धरती तल पर शायद एक भी जीवधारी न बचेगा। यदि वह न हुआ तो भी आणविक कचरे और विकिरण से ही जन समाज के अर्द्ध मृतक बनने जैसी स्थिति पैदा हो रही है। दृष्टि पसार कर देखने से लगता है कि यह कथित प्रगति वर्तमान समुदाय और भावी पीढ़ी के लिए ऐसे संकट खड़े कर रही है, जिससे निबटना अभी भी कठिन है, अगले दिनों तो पूरी तरह गतिरोध हो जायेगा।

प्रत्यक्षवाद ने तत्वदर्शन को झुठलाने में बड़ी हद तक सफलता पायी है। फलतः अनाचार, अपराध इस तेजी से बढ़े हैं कि जन साधारण अपने आपको असुरक्षित, आशंकित, आंतकित अनुभव करता है। शोषण और छल की तेजी से बढ़ती हुई प्रवृत्ति कहीं एक दूसरे को चीर कर खा जाने की स्थिति तक न पहुँचा दे? स्नेह, सौजन्य, सहकार घटने तथा लिप्सा-लालसाओं के अनियंत्रित होने पर इसके अतिरिक्त और हो ही क्या सकता है कि दैत्यों-दानवों का युग लौट आये?

समय गया, कामुकता को छुट मिली तो बहु प्रजनन स्वाभाविक है - चक्रवृद्धि क्रम से बढ़ रही जनसंख्या की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए साधन उस गति से बढ़ नहीं सकते। न तो पृथ्वी को रबड़ की तरह खींच कर बढ़ाया जा सकता हैं। न उत्पादन दिन दूना रात चौगुना हो सकता है। औद्योगीकरण के बढ़ते प्रदूषण से हरीतिमा पर और भी गहरी चोट की है। हरीतिमा घटने से भूमि क्षरण, रेगिस्तानों के विस्तार जैसी समस्याएँ विकराल हो रही है। पर्यावरण का असंतुलन ऋतु चक्र को ही अस्त−व्यस्त किए दे रहा है। जन संख्या की बाढ़ न रुकने से विकास के लिए किए गये प्रयास विफल होते जा रहे है। इन सब का परिणाम क्या होगा? इसका अनुमान लगाते ही हर विचारशील का मन घबराने लगता है।

किसी भी शक्ति अथवा साधन का दुरुपयोग बुरा होता है। मर्यादाएँ टूटी और वर्जनाओं का उल्लंघन द्रुतगति से हुआ तो उसके परिणाम भयावह ही हो सकते हैं। यही हो भी रहा है। समस्याओं विभीषिकाओं विपत्तियों के घटाटोप बढ़ा रहें हैं। पतन और पराभव का क्रम जिस तेजी से गति पकड़ रहा हैं, उसे देखते हुए अगले दिनों की भयंकरता में कोई संदेह नहीं रह जाता हैं।

प्रत्यक्ष ही नहीं, परोक्ष भी प्रदूषित

मनुष्य का चिन्तन, चरित्र और व्यवहार व्यक्ति और समाज को तो प्रभावित करता ही है, सूक्ष्म जगत भी उससे अछूता नहीं रह पाता है। विकृत चिन्तन और भ्रष्टचरित्र, सूक्ष्म जगत के अदृश्य वातावरण को प्रदूषण से भर देते हैं। प्रकृति की सरल स्वाभाविकता बदल जाती है और वह रुष्ट होकर दैवी आपत्तियाँ बरसाने लगती है। इन दिनों अतिवृष्टि, अनावृष्टि, बाढ़ दुष्काल, भूकम्प जैसी विपत्तियां बढ़े क्षेत्रों को प्रभावित कर रही है। शारीरिक ही नहीं, मानसिक रोगों में भी भारी बढ़ोतरी हो रही है। मानवी सद्भावना में, व्यक्तित्व के स्तरों में बुरी तरह गिरावट आ रही है। इन सब के कारण वर्तमान जटिल और भविष्य धूमिल बनता जा रहा है। अनेक विसंगतियाँ जड़ें जमा रही है। जो लोग इन परिस्थितियों में सुधार करने की स्थिति में हैं, उनमें भी इन कर्त्तव्यों के प्रति आवश्यक उत्साह नहीं हैं। सदुपयोग से वही शक्तियाँ सुख सुविधा सम्पन्न स्वर्गीय वातावरण बना सकती हैं। दुरुपयोग तो नरक के अलावा और कुछ बना ही नहीं सकता।

प्रवाह यदि उल्टा न गया तो स्थिति ऐसी भी आ सकती है जिसे प्रलय कि समतुल्य कहा जा सकता है। अंतरिक्ष का बढ़ता हुआ तापमान ध्रुव प्रदेशों की बर्फ गलाकर जल प्रलय जैसी स्थिति बना सकता है। असंतुलन के दूसरे पक्ष के कारण हिम प्रलय की संभावनाएँ विज्ञजनों द्वारा व्यक्त की जा रही है। धरती कि अंतरिक्ष कवच -ओजोन की पर्त क्षीण होकर फट गयी तो ब्रह्मांडीय किरणें धरती के जीवन को भूतकाल का विषय बना सकती है। यह सब और कुछ नहीं, मनुष्य की उन करतूतों की प्रक्रिया है, जो पिछली दो शताब्दियों में उन्मादी उपक्रम अपनाकर महाविनाश को आमन्त्रण दे रही है।

परन्तु सृष्टा ऐसा होने नहीं देगा। उसने इस बरती को, उसकी प्रकृति सम्पदा को, मानवी सत्ता को अलग मनोयोग पूर्वक सँजोया है। सृष्टि के आदि से लेकर अब तक अनेक बार, अनेकों की विकट परिस्थितियाँ आयी है। उन्हें टालने वाले ने समय रहते टाला है और उलटी दिशा में बहते प्रवाह को उलट कर सीधा किया है। “यदा यदा हि धर्मस्य” वाला वचन समय समय पर पूरा होता रहा है। अब भी वह पूरा होकर रहेगा। वही होने की आवश्यकता में सन्देह नहीं, पर बरतते हुए भी निराश होने कर आवश्यकता नहीं है। विनाश की विभीषिकाओं में सन्देह नहीं है वर यह भी निश्चित है कि समय चक्र पूर्व स्थिति की ओर घूम गया है। पुरातन सतयुगी वातावरण का पुनर्निर्माण होकर रहेगा। इसके लिए उपयुक्त समय यही है।

रात्रि जब समाप्त है, तो एक बार सघन अंधियारा छाता हैं। बुझते दीपक की लौ तेज हो जाती है। संव्याप्त असुरता भी यदि अपने विनाश की वेला आश्चर्य नहीं। प्राचीन काल में असुरों को जब अपनी दुष्टता का समापन होता दिखा तो उन्होंने देवत्व पर सारी शक्ति झोंक कर आक्रमण किया। हारा जुआरी एक बार साहस बटोर कर सब कुछ दाँव पर लगा देता है। भले ही उसे वह सब गँवाना पड़ें। युगसंधि में ऐसा ही हो तो आश्चर्य।

परिवर्तन की वेला युगसंधि

युगसंधि प्रसव पीड़ा जैसा समय हैं। शिशु जन्म के समय जननी पर क्या बीतती है, इसे सभी जानते हैं, पर पुत्र रतन को पाकर उसकी खुशी का ठिकाना भी नहीं दिनों रहता। फसल जिन हिदउनो दिनों पकने को होती है। उन्हीं दिनों खेतों पर पक्षियों के झुंड टूटते हैं। युगसंधि की इस वेला में जहाँ पके फोड़े को फूटने और दुर्गंधभरा मवाद निकलने की संभावना है, वहाँ यह भी निश्चित है कि आपरेशन के बाद दर्द घटेगा, घाव भरेगा और संचित विकारों से छुटकारा मिलेगा।

देवताओं की संयुक्त शक्ति से असुर निकन्दिनी दुर्गा का आवरण हुआ था। उन्हें संघ शक्ति भी कहा जाता है। ऋषियों का रक्त संचय करके घड़ा भरा गया, उससे सीता उत्पन्न हुई जिनने लंका की असुरता को नष्ट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निबाही, समुद्र सेतु बनना दुर्दान्त दानवों को निरस्त करना, राम राज्य का सतयुगी माहौल बनाना, रीछ वानरों की सेना द्वारा ही समय हुआ। उस पुण्य प्रयोजन में गीध गिलहरी तक ने योगदान दिया। बुद्ध के धर्म चक्र प्रवर्तकों ने संसार को हिलाया यह पुरुषार्थ भिक्षु और भिक्षुओं के समुदाय का ही था। गाँधी के सत्याग्रही ही खोयी हुई। आजादी वापस लाने में समर्थ हुए। तिनके मिलकर रस्सी और धागों के मिलने से कपड़ा बनने की बात सभी को विदित है। युगसंधि के दुहरे मोर्चे पर लड़ना वरिष्ठ प्राणवानों के लिए ही संभव होगा। अनिष्टों को निरस्त करना उज्ज्वल भविष्य को धरती पर स्वर्ग उतारने जैसा उदाहरण प्रस्तुत करना देव मानवों की संयुक्त शक्ति से ही संभव है। इसी उमंग का उमगाना अदृश्य भगवान का साकार रूप में अवतरण कहा जा सकता है।

युगसंधि बारह वर्ष है। अब से लेकर सन् 2000 तक इक्कीसवीं सदी से नवयुग-सतयुग आरम्भ होगे की भविष्यवाणी अनेक आध्यात्मवादी एवं परिस्थितियों का आंकलन करने वाले विद्वानों ने एक स्वर में भविष्यवक्ताओं और ज्योतिर्विदों का भी प्रतिपादन सम्मिलित हैं इक्कीसवीं सदी निश्चय ही उज्ज्वल भविष्य का संदेश लेकर आ रही है। पर उससे पूर्व कठिन अग्नि परीक्षा में भी सब को गुजरना पड़ेगा। इस बारह वर्ष की अवधि में जहाँ तक सृजन का शिलान्यास होगा वहाँ संचित अवांछनीयताओं के दुष्परिणामों से भी निबटना होगा। इसलिए इस अवधि को दुहरे वरिष्ठ जनों को सहभागी बना कर हनुमान और अर्जुन जैसी भूमिका निभानी होगी। परोक्ष प्रक्रिया भगवान की होगी, पर उसका श्रेय तो इस संदर्भ में प्रबल पुरुषार्थ करने वालों को ही मिलेगा।

परिजनों की भूमिका

प्रयासों की तीन दिशाधाराएँ है। (1) लोक मंगल के लिए जो प्रत्यक्ष उपाय अपनाए जा रहे है उनसे सहयोग करना। (2) विचार क्रान्ति को व्यापक बनाने की विशिष्ट भूमिका सम्पन्न करना। (3) सामूहिक आध्यात्म साधना से सूक्ष्म वातावरण में संव्याप्त प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलना। प्रथम सोपान को राजतंत्र अर्थतंत्र एवं स्वयं सेवी संस्थान पूरा कर रहे है। तो भी उसमें यथा शक्ति सहयोग प्रज्ञा परिजनों को भी देना चाहिए।

शेष दो उपेक्षित कार्य ऐसे है, जो युग शिल्पियों को विशेष रूप से अपने कंधे पर उठाना हैं जन मानस का परिष्कार सत्प्रवृत्ति संवर्धन एक ऐसा लोहा लाया जाना है, जिसके सहारे उस दुर्बुद्धि से लोहा लिया जाना है जो क्षमताओं का दुरुपयोग करने नारकीय परिस्थितियां उत्पन्न करने के लिए प्रधान रूप से उत्तरदायी है। इनके लिए लेखनी वाणी और सद्भाव संपन्नों के संगठनों को सक्रिय किया जा रहा है। अब उसमें और भी अधिक गति देने की आवश्यकता पड़ेगी। शांतिकुंज में युग सृजेता को एक बहुत कड़ी संख्या इन्हीं प्रयोजनों की पूर्ति के लिए संगठित की जा रही है। एक-एक महीने के और नौ-नौ दिन के प्रशिक्षण सत्र इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए किए जा रहे हैं। युग साहित्य का सृजन और युग चेतना का आलोक वितरण करने वाले सत्संग आयोजनों का उद्देश्य यही है। दीप यज्ञों की श्रृंखला इसलिये व्यापक बनाई जा रही है। कि युग चेतना से लोक मानस को आन्दोलित किया जा सके और जिनकी प्रधान चेतना जीवन्त है, उन्हें इस विषम वेला में कुछ पुरुषार्थ करने के लिए कटिबद्ध किया जा सकें।

महापुरश्चरण

इसके अतिरिक्त तीसरा पक्ष है सूक्ष्म जगत के परिशोधन एवं भविष्य को उज्ज्वल बनाने हेतु दिव्य उपासना। मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का आवरण संभव बनाने के लिए सामूहिक महासाधना का नियोजन। यह दिव्य पुरश्चरण सन्निकट की आश्विन नवरात्रि से शांतिकुंज हरिद्वार में यह पुण्य आयोजन सन् 1000 तक चलता रहेगा। इक्कीसवीं सदी के आरंभ के साथ ही इसकी पूर्णाहुति होगी। जिसे साधना के अनुरूप ही इतना बड़ा कहा जा सकेगा। जिसकी तुलना अब तक के किसी विशालतम समापन से भी न की जा सके। इस संकल्प के अंतर्गत आयोजन केन्द्र में नाघ् विसीय गायत्री अनुष्ठानों की श्रृंखला अन्त तक अनवरत रूप से जारी रहेगी। यह अपने समय का एक सबसे विराट् अनुष्ठान होगा।

पाण्डव वनवास में बारह वर्ष साधनारत रहे। राम ने चौदह वर्षों में से बारह वर्ष तप प्रयोजन में और दो वर्ष असुर संहार में लगाएं। पार्वती का भागीरथ का दधिचि का च्यवन का तप भी बारह वर्ष का रहा। बुद्ध अपने में देवी शक्ति का अवतरण करने हेतु बारह वर्ष तक तप में रहे। शंकराचार्य और चाणक्य भी प्रायः इतने ही दिन साधनारत रहे। विश्वामित्र, वशिष्ठ, अत्रि अगस्त, नारद आदि ऋषियों के प्रचण्ड तप की अवधि भी प्रायः इतनी ही रही। युगसंधि के उभयपक्षीय प्रयोजन भी बारह वर्ष की नर देवों की इतनी लम्बी साधना से ही पूर्ण होंगे।

प्रस्तुत साधना का केन्द्र शान्तिकुँज बन रहा है। यहाँ बारह वर्ष तक नौ दिवसीय गायत्री अनुष्ठानों की श्रृंखला चलती रहेगी। जिनको उपासना की गरिमा पर विश्वास है उन सभी का आह्वान किया गया है कि इस अवधि में एक अनुष्ठान यहाँ सम्पन्न करें और विराट् सामूहिक जप यज्ञ के भागीदार बनने का श्रेय प्राप्त करें। आशा की जाती है कि निर्धारित अवधि में लाखों व्यक्ति इसके सहगामी बन सकेंगे। उद्देश्य तो युग परिवर्तन के दोनों पक्षों को सम्पन्न कर सकने वाला दिव्य वातावरण बनाना है। पर साथ ही यह बात दिव्य वातावरण बनाना है। पर साथ ही यह बात भी है कि दूसरों के लिए मेंहदी पीसने वाले के अपने लिए सुरक्षा कवच प्राप्त करने में प्रतीत परिष्कार से लाभान्वित होने में सफल हो सकते है। यदि उनकी निष्ठा बीच में ही न डगमगा गई तो लक्ष्य तक पहुँचने के लिए अनवरत प्रयत्न करने वालों को सेनापतियों जैसा श्रेय मिलेगा।

सूर्य की ध्यान धारण

प्रस्तुत युग साधना में अन्य क्रिया-कलाप तो साधारण अनुष्ठानों की भाँति ही रहेंगे। पर एक बात विशिष्ट रहेगी “सूर्योपस्थान” भगवान सूर्य की निकटता। उन्हें ही इस महान प्रक्रिया का अधिष्ठाता वरण किया गया है। इसलिए जप गायत्री का पूजन गायत्री का करते हुए भी प्रातः काल उदय होते हुए स्वर्णिम आभा वाले सविता देव का ध्यान करते रहना होगा। ध्यान ही नहीं प्राण प्रत्यावर्तन का भाव समर्पण भी। साधक का प्राण सविता में प्रवेश करे वैसा ही लाल हो जाता है जैसा भट्टी में कुछ समय पड़ा रहने के उपरान्त सोना लाल हो जाता हैं ईंधन को आग डालने पर भी यही होता है। यह समर्पण हुआ। दूसरा भाग है सविता का साधक की सत्ता में अवतरण। जिस प्रकार किरणें धरती पर उतरती है ओर प्रभव क्षेत्र को ऊर्जा एवं आभा से भर देती है। उसी प्रकार साधक भी अनुभव करेगा। कि सविता का ओजस तेजस वर्चस बरसता है और उपासनारत को अपने दिव्य अनुग्रह से ओत-प्रोत कर देता है।

गहरी साँस लेते हुए सूर्य के अवतरण की ओर धीरे धीरे साँस छोड़ते हुए सूर्यार्घ्य दान की तरह सविता को आत्म समर्पण करने की भावना करते रहना चाहिए।

इक्कीसवीं सदी में सूर्य तेजस में भी अनुकूल परिवर्तन होगा और उसका प्रभाव समस्त वातावरण पर पड़ेगा। प्राणियों में भी क्षमताओं और चेतना विकसित होंगी ईंधन का, विद्युत का रोग नियंत्रण का, समुद्र से पानी लाकर मेघ बरसने वायु संशोधन का काम तो सूर्य अभी भी करता है। सड़ी हुई दुर्गंध को मिटाने और विषाणुओं का हनन करने में उसके चमत्कार निरंतर देखे जाते है। शरीरों में विटामिन “डी” का उत्पादन स्त्रोत वही है। अगले दिनों उसकी प्रखरता चेतना क्षेत्र को भी अपने प्रभाव में लेगी। गिरों को उठाने और उठों को उछालने में जहाँ मानवी प्रयत्न काम करेंगे वहाँ उसे सफल संभव बनाने में सविता की अदृश्य भूमिका भी काम करेगी। आद्यशक्ति गायत्री का अधिष्ठाता भी तो सविता ही है। उसी के प्रतीक रूप में दीपक ज्योति को, अगरबत्ती के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है।

सूर्य योग के सम्बन्ध में सूर्य पुराण, सूर्य उपनिषद् चाक्षुष्योपनिषद् आदि में बहुत कुछ कहा गया है। सावित्री और सविता का युग्म अपने समय की आवश्यकता भली प्रकार पूरी कर सकेगा, ऐसा विश्वास किया जाता है। निराकरण, उन्नयन के लिए जो भौतिक प्रयत्न चल रहे है उनमें से इस दिव्य साधना का समावेश हो जाने से लक्ष्य की पूर्ति में असाधारण योगदान मिलने की आशा है। इसीलिए पुरश्चरण में गायत्री मंत्र और सूर्योपासना का महत्व दिया गया है। दैनिक साधना की पूर्णाहुति महातेज की अभ्यर्थना होगी, ऐसी जिसे अभूतपूर्व कहा जा सके।

शांतिकुंज का केन्द्र यहाँ की परम्परागत विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है। गंगा की गोद, हिमालय की छाया, सप्त ऋषियों का तपस्थान, जैसी पुरातन और नित्य गायत्री जप यज्ञ व गुरुकुल, आरण्यक जैसी विशेषताओं के कारण वह एक प्रकार से असाधारण विशेषताओं से सम्पन्न हो चला है। घर गृहस्थी के वातावरण की अपेक्षा ऐसे दिव्य केन्द्र में रह कर साधना करने में कितनी अधिक विशेषता हो सकती है उसका अनुमान कोई भी लगा सकता है। सभी इच्छुकों को अवसर मिल सके इस दृष्टि से नौ दिवसीय साधना सत्र बारह वर्ष तक चलते रहने का संकल्प प्रकट किया गया है। अन्तरिक्ष का विभाजन बारह राशियों में हुआ है। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करते हुए ठीक अपनी उसी स्थिति में बारह वर्ष में आती है। इस तथ्य को देखते हुए प्रस्तुत पुरश्चरण की अवधि बारह वर्ष रखी गयी है।

विस्तार विश्वव्यापी होगा

युगसंधि पुरश्चरण शांतिकुंज में उद्भूत अवश्य हुआ है, पर उसका विस्तार उद्गत तक ही सीमित न रहकर विश्वव्यापी बनेगा। कम से कम प्रज्ञा परिवार के तो सभी लोग उसमें भाग लेंगे ही। जो घर से बाहर नहीं जा सकते, अत्यधिक व्यस्त या प्रतिबंधित है वे अवकाश के किसी भी समय कम से कम दस मिनट मानसिक रूप से गायत्री का जप और ध्यान कर सकते है। मन में ही सूर्यार्घ्य देने की भावना की जा सकती है और शांतिकुंज पहुँचकर मन ही मन उस उद्गम की परिक्रमा लगाने की भी।

जहाँ प्रज्ञा पीठें बनी है जहां प्रज्ञा मण्डल या महिला मण्डल बने हो, गायत्री परिवार जीवन्त है, वहाँ भी महापुरश्चरण की एक इकाई अपने यहाँ प्रतिष्ठित करनी चाहिए। हर रोज बन पड़ना कठिन रहे तो सप्ताह में एक दिन इसके लिए निश्चित किया जा सकता है, रविवार-यह सूर्य का दिन भी है। उस दिन किसी स्थित स्थान में अथवा बारी-बारी आमंत्रित करने वाले सदस्यों के घरों में ये आयोजन रखा जा सकता है। समय प्रातःकाल का रखना ही ठीक पड़ता है।

सामूहिक गायत्री पाठ। दीप यज्ञ का प्रज्ज्वलन। पाँच दीपक एक माचिस, अगरबत्ती दो थालियों में सूर्य के रूप में स्थापन। आधा घण्टा मानसिक जप ध्यान, युग संगीत का सहगान कीर्तन, यन्मण्डलम् स्तोत्रों से सविता का स्तवन। इसके बाद झोला पुस्तकालय उपक्रम में सभी उपस्थित जनों को भागीदार बनाना। जिनके जितनों जितनों से सम्बन्ध हो वे उतनी पुस्तकें पढ़ाने के लिए मण्डल से ले जायें और अगले सप्ताह जब आयें तो अधिकाधिक शिक्षितों को पढ़ाने और अशिक्षितों को सुनाने के उपरान्त वापस कर दें। यही है साप्ताहिक साधना का वह उपक्रम, जिसमें दिव्य अवतरण तो प्रधान है ही, पर साथ में जन मानस को परिष्कृत करने वाले ज्ञान यज्ञ का भी समावेश है। युग संगीत और युग साहित्य द्वारा आलोक वितरण यह दोनों कार्य इसी स्तर के है। जिनके माध्यम से विचार क्रान्ति अभियान का भी विस्तार होता है।

“पाँच से पच्चीस” बनने का प्रेरणा मंत्र किसी को भी भूलना नहीं चाहिए। इसी आधार पर तो अपना सीमित परिवार विश्वव्यापी बनेगा। साप्ताहिक आयोजनों में सम्मिलित होने वाले इस प्रयत्न से रहे कि अगले सप्ताह अपने प्रभाव क्षेत्र से अधिक लोगों को लेकर चलें। उनकी निष्ठा बढ़े तो वे भी पाँच नये खोज निकाले और आयोजन के साथ जोड़े। इसी प्रयास के अंतर्गत प्रज्ञा मण्डलों और महिला मण्डलों का गठन एवं विस्तार होता चलेगा। संघ शक्ति बन कर अगले दिनों कंधे पर आने वाले उत्तरदायित्वों का वहन कर सकेंगे। जो जीवन एवं समाज के हर क्षेत्र को असाधारण रूप से प्रभावित करेंगे।

जहाँ भी युग पुरश्चरण की उपरोक्त सामूहिक साधना का उपक्रम चले वहाँ से नए सम्मिलित होने वाले श्रद्धालुओं को एक बार एक अनुष्ठान शांतिकुंज में जाकर पूरा करने के लिए कहा जाय। लौटने पर वे पूरा उत्साह लेकर लौटेंगे और बारह वर्ष तक सम्मिलित होते रहने के व्रत का निर्वाह करेंगे।

आयोजनों का खर्च चलाने के लिए सम्मिलित होने वाले साधकों के यहाँ बीस पैसे नित्य जमा करने के लिए ज्ञानघट स्थापित किए जायें। उसी संग्रहित राशि से साप्ताहिक आयोजन का खर्च चलता रहेगा। इस आपूर्ति की जिम्मेदारी साधकों को ही मिल जुलकर उठानी चाहिए। बड़े खर्च वाली आवश्यकताओं के लिए ही बाहर के लोगों के अनुदान स्वीकार किये जायें।

प्रचार उपकरणों के लिए लाउडस्पीकर, टेपरिकार्डर, स्लाइड प्रोजेक्टर आदि की आवश्यकता पड़ती है। इसमें लगभग दो हजार खर्च होते है। दीप-यज्ञायोजनों एवं ज्ञान रथ की स्थापना के लिए भी कुछ अतिरिक्त धन की आवश्यकता पड़ती है। इन सबके लिए जन सहयोग लिया जा सकता है। जो एकत्र हो और किस प्रकार खर्च किया गया, उसका विवरण दान देने वालों को देते रहने से किसी को उँगली उठाने का अवसर नहीं मिलता।

युग संधि पुरश्चरण के आरम्भिक वर्ष में युग चेतना का उदय दृष्टिगोचर कराने वाले आदर्श वाक्यों के स्टीकर घर-घर चिपकाने का आन्दोलन पूरे उत्साह के साथ चलाया जाना चाहिए। कोई दुकान, कोई घर, कोई दफ्तर-कारखाना, कोई वाहन ऐसा न बचे जहाँ आदर्श वाक्यों का अंकन दृष्टिगोचर न हो। देखने वालों को लगता है कि घर-घर में स्थान-स्थान पर युग चेतना की छवि उभरने लगी है। नव युग की चेतना उभरने का परिचय स्टीकरों के माध्यम से मिले तो जन-जन को लगे कि आदर्शवादिता जड़ जमाने लगी। पतन या उत्थान के लिए प्रेरणाएँ ऐसे ही दृश्य वातावरण से बनती है।

गायत्री परिवार में जिनकी भी श्रद्धा है, वे उपरोक्त क्रिया-कलाप को दिव्य साधना का प्रारम्भिक चरण मानें और उसे भावना-पूर्वक अपनाये। इतना कर लेने वाले उस अग्रगामी भूमिका को निभा सकेंगे जिसके आधार पर महाविनाश को रोकना और महाविकास के सतयुगी वातावरण का नवनिर्माण संभव हो सकें। बड़े कार्यों को बड़ी शक्तियाँ सम्पन्न करती है। उच्च स्तरीय बड़प्पन का सम्पादन करने के लिए राजमार्ग बनाना ही प्रस्तुत युग संधि महापुरश्चरण का प्रमुख उद्देश्य है। इसमें सच्चे स्वार्थ और सच्चे परमार्थ का समन्वय है।


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