नवयुग की संभावनाएं-लेखमाला-4 - आ रहा है एकता और समता का नवयुग

November 1988

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ऋतु प्रभाव को-प्रजनन को ध्यान में रखते हुए पक्षी नया घोंसला बनाने में जुट जाते है। वर्षा से कुछ समय पूर्व ही चींटियां अपने बिलों की सुरक्षा तथा आहार की दृष्टि से निश्चित हो जाती है। बसंत के आते ही मधु मक्खियों की सक्रियता अत्यधिक बढ़ जाती है, जिससे ग्रीष्म के सूखे माहौल में उन्हें शहद की दृष्टि से अभाव का अनुभव न होने लगे। गर्भिणी महिलाएँ प्रसूति काल में बच्चों के लिए कपड़े पूर्व से ही जमा कर लेती है। बच्चा उत्पन्न होने के उपरान्त अभिभावक उसे लालन-पालने से लेकर शिक्षा, विवाह, व्यवसाय आदि के लिए साधन जुटाना शुरू कर देते है। बीमारियों के फैलने का माहौल बनने पर लोग सुरक्षा के टीके पहले ही लगवा लेते है। यह सहज स्वाभाविक दूरदर्शिता का परिणाम है जिससे संभावनाओं को बदलने का काम, पत्थर से सिर टकराने की बात छोड़ कर सभी अपनी सुरक्षा और सुविधा की बात सोचने लगते हैं समझदारी भी इसी में है।

अगली शताब्दी की संभावनाएँ अद्भुत, अनुपम और अभूतपूर्व है। वैज्ञानिक, बौद्धिक और औद्योगिक प्रगति के साथ-साथ ही उदार चेतना का उन्मूलन भी इन्हीं दिनों हुआ है। जिसके कारण प्रगति के नाम पर जो कुछ हस्तगत हुआ है, उसका दुरुपयोग होने पर परिणाम उलटे रूप में ही सामने आये है। सुविधा साधन अवश्य बढ़े है, पर उलझे मानस ने न केवल व्यक्तित्व का स्तर गिराया है, वरन् साधनों को इस बुरी तरह प्रयुक्त किया है कि पिछले पूर्वजों की सामान्य स्थिति की तुलना में हम कहीं अधिक समस्याओं में उलझे और विपत्तियों के घटाटोप में घिर गये है। दलदल में फँस जाने जैसी स्थिति अवश्य है, पर ऐसा नहीं हो सकता कि देवत्व से एक सीढ़ी नीचे ही समझा जाने वाला मनुष्य असह्य बन कर अपना सर्वनाश ही देखता रहे, समय रहते न चेते।

मानस बदलने से प्रचलन गड़बड़ाते है और व्यवस्था अस्त व्यस्त हो जाती है। बिखराव और वैषम्य दो बड़े संकट है, जो असंख्यों प्रकार के संकटों को जन्म देते है। इन्हें निरस्त करने के लिए एकता और समता की सर्वतोमुखी प्रतिष्ठा करनी पड़ती है। इतना बन पड़ने पर वे सभी अवरोध अनायास ही समाप्त हो जाते है जो तिल से ताड़ बन कर, राई का पर्वत बन कर महाविनाश को चुनौती देते हुए गर्जन तर्जन कर रहे थे। नवयुग में एकता और समता के दानों सिद्धान्त हर व्यक्ति को इच्छा या अनिच्छा से अंगीकार करने पड़ेंगे, ऐसा मनीषियों, भविष्य द्रष्टाओं का अभिमत है। शासन और समाज को भी अपनी मान्यताएँ व्यवस्थाएँ इसी प्रकार की बनानी पड़ेगी। प्रवाह और प्रचलन के अनुरूप अपने प्रवाह में आवश्यक परिवर्तन करने होंगे। अड़ंगेबाजी तो हर भली बुरी व्यवस्था में अपनी उद्दण्डता का परिचय देने के लिए कही न कही से आ टपकती है। जलते दीपक की लौ बुझाने के लिए पतंगों के दल उस पर टूट पड़ने से बाज नहीं आते, भले ही इस दुरभिसंधि में उन्हें अपने पंख जलाने और प्राण गंवाने पड़े। तूफान का मार्ग रोकने वाले वृक्षों को उखड़ते और झोंपड़ों को आसमान में उड़ते हुए आये दिन देखा जाता है। महाकाल के निर्धारण एवं अनुशासन के सामने कोई उद्दण्डता अवरोध बन कर अड़ंगा और व्यवधान बन कर कारगर रोकथाम करेगी, इसकी आशंका न की जाय तो ही ठीक है।

अगले नवयुग की-इक्कीसवीं सदी की सम्पूर्ण व्यवस्था एकता और समता के सिद्धान्तों पर निर्धारित होगी। हर क्षेत्र में, हर प्रसंग में, उन्हीं का बोलबाला दृष्टिगोचर होगा। इस भवितव्यता के अनुरूप हम अभी से धीमी-धीमी तैयारियाँ शुरू कर दे तो यह अपने हित में होगा। ब्रह्म मुहूर्त में जाग कर नित्य कर्म से निबट लेने वाले व्यक्ति सूर्योदय होते ही अपने क्रिया-कलापों में जुट जाते है जबकि दिन चढ़े तक सोते रहने वाले कितने ही कामों में पिछड़ जाते है।

मूर्धन्य मनीषियों का कहना है कि अगले दिनों एकता, एक मान्य व्यवस्था होगी। सभी लोग मिलजुल कर रहने के लिए विवश होंगे। डेढ़ चावल की खिचड़ी पकाने, ढाई ईंट की मस्जिद खड़ी करने का कोई उपहासास्पद खिलवाड़ नहीं करेगा। सभ्यता के बढ़ते चरणों में एकता ही सबकी आराध्य होगी। विलगाव का प्रदर्शन करने वाली बाल-खिलवाड़ देर तक अपनी अलग पहचान बनाये न रह सकेगी। बिखराव सहन न होगा। विलगाव को कही से भी समर्थन नहीं मिलेगा। संकीर्ण स्वार्थपरता और अपने मतलब से मतलब रखने वाली क्षुद्रता किसी भी क्षेत्र में व्यावहारिक न होगी। मिलजुलकर रहने पर ही शाँति, सुविधा और सुरक्षा, प्रगति की दिशा में बढ़ा जा सकेगा। वसुधैव कुटुम्बकम् का आदर्श अब समाजवाद, समूहवाद-संगठन-एकीकरण का विधान बन कर समय के अनुरूप कार्यान्वित होगा। उसे सभी विज्ञजनों का समान समर्थन भी मिलेगा।

अगली दुनिया एकता का लक्ष्य स्वीकारने के लिए निश्चय कर चुकी है। अड़ंगेबाजी से निबटना ही शेष है। वे प्रवाह में बहने वाले पत्तों की तरह लहरों पर उछलते कूदते कही से कही जा पहुंचेंगे। चक्रवात से टकराने की मूर्खता करने वाले तिनकों के अस्तित्व उस वायु भ्रमर में फँस कर अपना अस्तित्व तक गवाँ बैठते है। एकता अब अपरिहार्य होकर रहेगी। जाति-पाँति के नाम पर रंग, वर्ण और लिंग के आधार पर अलग-अलग कबीले बसा कर रहना आदिम काल में ही संभव था। अब के औचित्य को समर्थन देने वाले युग में नहीं।

संसार भर में एक ही जाति का अस्तित्व रहेगा। सुसंस्कृत-सभ्य मनुष्य जाति का। काले, पीले, सफेद, गेहुँआ आदि रंगों की चमड़ी होने से किसी को भी अपनी अलग बिरादरी बनायें रह सकना अब संभव न होगा। विवेक काम देगा तो संघर्ष होगा पर समझदारी के माहौल में मात्र न्याय ही जीवित रहेगा और औचित्य ही सराहा अपनाया जाएगा। तूती उसी को बोलेगी।

धर्म सम्प्रदायों के नाम पर, भाषा, जाति, प्रथा, क्षेत्र आदि के नाम पर जो कृत्रिम विभेद दीवारें बन गई है वे लहरों की तरह अपना-अपना अलग प्रदर्शन भले ही करती रहे, पर वे सभी एक ही जलाशय की सामयिक हलचल कर मानी जायेगी। पानी में उठने वाले बबूले थोड़ी देर उछलने-मचलने का कौतूहल दिखाते है। इसके बाद त्वरित ही उनका अथाह जल राशि में विलय-समापन हो जाता है। मनुष्य को अलगाव और बिखराव में बाँधने वाले प्रचलन इन दिनों कितने ही पुरातन, शास्त्र-सम्मत अथवा संकीर्णता पर आधारित होने के कारण कितने ही प्रबल प्रतीत क्यों न होते हो, पर अगले तूफान में इन बालुई घर घरौंदों में से एक का भी पता न चलेगा। मनुष्य जाति अभी एक इन दिनों भले ही न हो, पर अगले ही दिनों तो वह सुनिश्चित रूप से एक बन कर रहेगी।

धरातल एक देश बन कर रहेगा। देशों की कृत्रिम दीवारें खींचकर उसके टुकड़े बने रहना न तो व्यावहारिक रहेगा, न सुविधाजनक। इनके रहते शोषण, आक्रामकता, आपाधापी का माहौल बना ही रहेगा। देश भक्ति के नाम पर युद्ध छिड़ते रहेंगे और समर्थ दुर्बलों को पीसते रहेंगे। “जंगल का कानून-मत्स्य न्याय” इस अप्राकृतिक विभाजन की व्यवस्था ने ही उत्पन्न किया है। हर क्षेत्र का नागरिक अपनी ही छोटी कोठरियों, में रहने के लिए बाधित है। वहाँ यह सुविधा नहीं कि अपनी अनुकूलता वाले किसी भी क्षेत्र में बस सके। कुछ देशों के पास अपार भूमि है कुछ को बेतुकी घिचपिच में रहना पड़ता है। कुछ देशों ने अपने क्षेत्र की खनिज एवं प्राकृतिक सम्पदाओं पर अधिकार घोषित करके धन कुबेर जैसी स्थित प्राप्त कर ली है और कुछ को असीम श्रम करने पर भी प्राकृतिक सम्पदा का लाभ न मिलने पर असहायों की तरह तरसते रहना पड़ता है। भगवान ने धरती को अपने सभी पुत्रों के लिए समान सुविधा देने के लिए सृजा है। प्राकृतिक सम्पदा पर सभी का समान हक है। फिर कुछ देश अनुचित अधिकार को अपनी पिटारी में बंद कर, शेष को दाने-दाने के लिए तरसायें, यह विभाजन अन्यायपूर्ण होने के कारण देर तक टिकेगा नहीं। आज की दादागीरी आगे भी इसी प्रकार अपनी लाठी बजाती रहेगी यह हो नहीं सकेगा। विश्व एक देश होगा और उस पर रहने वाले सभी मनुष्य ईश्वर प्रदत्त सभी साधनों का उपयोग एक पिता की संतान होने के नाते कर सकेंगे। परिश्रम और कौशल के आधार पर किसी को कुछ अधिक मिले वह दूसरी बात है। पर पैतृक सम्पदा पर तो सभी संतानों का समान अधिकार होना ही चाहिए। औचित्य होना चाहिए, ऐसा मनीषा ने घोषित किया है। न्याय युग में उसे “हो रहा है’ या “हो गया” कहा जाएगा।

संसार की एक भाषा होनी चाहिए। ताकि कहीं के निवासी अन्यत्र कहीं भी रहने वालों के साथ पड़ोसी की तरह बिना किसी कठिनाई के वार्तालाप कर सकें। आज तो समीपवर्ती क्षेत्रों के लोग भाषाई कठिनाई के कारण गूंगे−बहरों की तरह आपस में इशारे से बात करते है। कोई किसी से अपने मन की बात कह सकने में असमर्थ है। पुस्तकों में छिपा अगाध ज्ञान इसी भाषाई क्षेत्र में कैद होकर रह जाता है। अनुवाद और प्रकाशन की व्यवस्था अत्यंत महंगी और अतीव कष्ट साध्य है। उसका लाभ सभी देश, भाषा के लाग समान रूप से नहीं उठा सकते। इस कारण किसी क्षेत्र में उभरा विश्व भर को प्रभावित करने वाला विचार भी उसी छोटी सीमा में आबद्ध होकर रह जाता है। अन्यत्र के लोग कदाचित ही कभी उसकी झलक झाँकी प्राप्त कर सकें इन समस्त बाधाओं से निबटने के लिए हमें अपनी भाषा का व्यामोह छोड़ना होगा और हृदय की विशालता के साथ एक घटक के रूप में जुड़ जाने के लिए मानस और साहस जुटाना पड़ेगा।

बूंदें अलग-अलग रह कर अपनी श्री गरिमा का परिचय नहीं दे सकती। उन्हें हवा का एक झोंका भर सुखा देने में समर्थ होता है। पर जब वे मिलकर एक विशाल जलाशय का रूप धारण करती है, तो फिर उनकी समर्थता और व्यापकता देखते ही बनती है। इस तथ्य को हमें समूची मानव जाति को एकता के केन्द्र पर केन्द्रित करने के लिए साहसिक तत्परता अपनाते हुए संभव कर दिखाना होगा।

धर्म सम्प्रदाओं की विभाजन रेखा भी ऐसी है जो अपनी मान्यताओं को सच और दूसरों के प्रतिपादनों को झूठा सिद्ध करने में अपने बुद्धि वैभव से शास्त्रार्थों, टकरावों के आ पड़ने पर उतरती रही है। अस्त्र शस्त्रों वाले युद्धों ने कितना विनाश किया है, उसका प्रत्यक्ष होने के नाते लेखा जोखा लिया जा सकता है। पर अपनी धर्म मान्यता दूसरों पर थोपने के लिए कितना दबाव और कितना प्रलोभन, कितना पक्षपात और कितना अन्याय कामों में लगाया गया है, इसकी परोक्ष विवेचना किया जाना संभव हो तो प्रतीत होगा कि इस क्षेत्र के आक्रमण भी कम दुखदायी नहीं रहे है। आगे भी उसका इसी प्रकार परिपोषण और प्रचलन होता रहा तो विवाद, विनाश और विषाद घटेंगे नहीं बढ़ते ही रहेंगे। अनेकता में एकता खोज निकालने वाली दूरदर्शिता को सम्प्रदायवाद के क्षेत्र में भी प्रवेश करना चाहिए।

आरंभिक दिनों में सर्व-धर्म-समभाव, सहिष्णुता, बिना टकराये अपनी-अपनी मर्जी पर चलने की स्वतंत्रता अपनाए रहना ठीक है काम चलाऊ नीति है। अन्ततः विश्व मानव का एक ही मानव-धर्म होगा। उसके सिद्धान्त चिन्तन, चरित्र और व्यवहार के साथ जुड़ने वाली आदर्शवादिता पर अवलम्बित होंगे। मान्यताओं और परम्पराओं में से प्रत्येक को तर्क, तथ्य, प्रमाण, परीक्षण एवं अनुभव की कसौटियों पर करने के उपरान्त ही विश्व धर्म की मान्यता मिलेगी। संक्षेप में उसे आदर्शवादी व्यक्तित्व और न्यायोचित निष्ठा पर अवलम्बित माना जाएगा। विश्व धर्म की बात आज भले ही सघन तमिस्रा में कठिन मालूम पड़ती हो पर वह समय दूर नहीं, जब एकता का सूर्य उगेगा और इस समय जो अदृश्य है, असंभव प्रतीत होता है, वह उस बेला में प्रत्यक्ष एवं प्रकाशवान होकर रहेगा। यहीं है आने वाली सतयुगी समाज व्यवस्था की कुछ झलकियाँ जो हर आस्तिक को भविष्य के प्रति आशावान् बनाती है।


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