सदैव जागरुक रहें!

November 1988

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नींद में मनुष्य सोया रहता है तो उसे न अपने शरीर की खबर रहती है न निकटवर्ती घटनाक्रम की। मन भी छुट्टल रहता है उस पर किसी मर्यादा या दिशाधारा का अंकुश नहीं रहता। सपने देखता है तो भी वे बिना सिर पैर के होते हैं। शरीर पर ढके कपड़े भी अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। यहाँ तक कि लज्जा ढकने के कपड़े भी कभी-कभी वदन पर से हट जाते हैं जिसे देखकर देखने वालों को शर्म आती है पर सोया हुआ व्यक्ति इस सब से बेखबर ही रहता है। गहरी नींद होने पर गले से खर्राटों की आवाज भी निकलने लगती है। जिससे समीप सोये हुओं की नींद तक में बाधा पड़ती है। पर उस सोये हुए व्यक्ति को यह भी विदित नहीं रहता कि शिष्टाचार का किस कदर उल्लंघन हो रहा है। घर में चोरी होती रहे कोई अनर्थ होता रहे दुर्घटना घटित होती रहे तो भी उससे सोया व्यक्ति अनजान ही रहता है। उसकी रोकथाम का उपाय तक तो सूझता हीं फिर जिस विडम्बना के कुचक्र में पैर फँसता जाता है उसे निकालने वाले का तो प्रश्न ही नहीं उठता। निद्राग्रस्त से कुछ कमाना बन पड़े यह भी संभव नहीं। वह तो बिगाड़ को समझने तक में समर्थ नहीं होता फिर रोके कैसे? सोना थकान को भले ही मिटाता हो पर उस अवधि में मूर्च्छित मृतक जैसी परिस्थिति ही छाई रहती हैं। मनुष्य आधी जिन्दगी प्रायः इसी स्थिति में गुजार देता है।

जिन्हें महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व निभाने हैं वे जागरण का दूसरा प्रबन्ध करते हैं। स्वयं सोते हैं तो अपने स्थान पर किसी दूसरे को नियुक्त कर देते हैं। बिजलीघर, पुलिस, रेल जैसे अनेकों कार्य ऐसे हैं जिनका निरन्तर चलते रहना आवश्यक है। उनके कार्यकर्ता पारी-पारी से सोते हैं। जागरुक व्यक्ति हर घड़ी कार्यरत रहे ऐसा प्रबन्ध किया जाता है। जेलखाने, खजाने आदि की चौकीदारी निरन्तर चलती है। गली मुहल्लों में प्रहरी नियुक्त रहते हैं ताकि घरों के लोग सोए रहने पर भी चोरों को सेंध लगाने चोरी करने का अवसर न मिले सेन सीमाओं की सुरक्षा पर निरन्तर चौकस करते जाने की व्यवस्था करती है। जागरुकता को हर घड़ी तत्पर रखे जाने पर ही महत्वपूर्ण कार्य चलते हैं। व्यक्तियों को बीच-बीच में विश्राम की छूट मिल सकती है पर सुरक्षा और सुव्यवस्था का तंत्र अहर्निशि कार्यरत रहता है। जिनके कंधों पर उन्हें चलाने की जिम्मेदारी है वे उसके लिए दूरदर्शिता भरी व्यवस्था बनाते हैं। ताकि जागरुकता का तंत्र टूटने न पाए। इसमें असावधानी या उपेक्षा की कोई गुँजाइश नहीं है। क्योंकि असावधानी को अव्यवस्था ही नहीं, विपत्ति या दुर्गति का निमित्त कारण भी माना जाता है। जो इस महत्व को नहीं स्वीकारते वे अपना काम आप बिगाड़ने अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारने का खतरा उठाते हैं।

अपराधों में कुछ ऐसे होते हैं जिनमें दूसरों को हानि होती है पर अपने को लाभ मिल जाता है भले ही वह तात्कालिक ही क्यों न हो और बाद में उसका वैसा ही दुष्परिणाम क्यों न भुगतना पड़ता हो। चोर, उचक्के, जेबकट, उठाईगीरे अपनी धूर्तता के जाल में कितनों को ही फँसा लेते हैं दूसरों सहज विश्वास का, असावधान रहने का अवसर पाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। इसमें हानि उन्हीं की होती है जो फँसते हैं। फँसाने वाला कम से कम आरंभ में तो लाभ उठा ही लेता है। इसलिए ऐसे अपराधी को परघाती कहा जाता है। पर उनमें से कुछ ऐसे भी हैं जो दूसरों की हानि कालान्तर में करते हैं पर अपनी हानि आरंभ से ही हो जाती है। इन्हें वज्रमूर्ख कहा जाता है।

आलस्य और प्रमाद ऐसे ही कृत्य हैं जो अपराधों की प्रचलित श्रेणी में तो नहीं आते हैं। उनके लिए आक्रमण, अपहरण जैसी दण्ड व्यवस्था तो नहीं है। पर इन दुर्गुणों को अपनाने वाला पुरुषार्थ हीन होकर उस कमाई से वंचित रहता चला जाता है जो सक्रिय रहने पर सहज ही हस्तगत होती रह सकती थी। वह लाभदायक अवसरों को, सौभाग्य सुयोगों को चूकता गँवाता चला जाता है। फलतः दरिद्रता, असफलता और पिछड़ेपन की स्थिति ही उसके हाथ लगती है। क्षमताएँ क्रमशः कुण्ठित होती जाती हैं। सम्मान घटता जाता है फलतः जिनसे सहज सहयोग मिल सकता था और प्रगति की सम्भावनाओं में सहायक हो सकता था उससे भी वंचित रहना पड़ता है। यह आत्मघाती अपराध है। कुपथ्य खाकर, नशे पीकर, विष निगल कर भी आत्म हत्या की जा सकती है। यह भी अपराध है। भले ही उसकी भाँति अपना जीवन गँवाने तक ही सीमित क्यों न हो। भले ही उससे दूसरों को बाद में ही किसी समस्या का सामना करना पड़ता हो।

व्यक्ति के लिए जिन आवश्यक गुणों को बिना चूक किए अपनाने का निर्धारण किया गया है उनमें जागरुकता का प्रथम स्थान है। उससे आधार पर ही शरीर को, चमड़े को, घर को, उपकरणों को, स्वच्छ रखा जा सकता है। इस दिशा में आँखें खुली रखने पर ही गंदगी को देखने, घृणा करने, हटाने और उठाने के उपाय सूझते हैं और उसके लिए कदम उठाते हैं। यदि जागरुकता न हो तो समीपवर्ती गंदगी भी सूझ नहीं पड़ती और वह यथास्थान पड़ती सड़ती रहती है। यह सड़न कभी भयंकर बीमारियों का रूप भी धारण कर सकती है।

जीवन सम्पदा ऐसे कलेवर में रखी हुई है जिसमें अनेकों छिद्र हैं। उनमें हर एक इतना चौड़ा है यदि उसे रिसने दिया जाय तो जो कुछ भी महत्वपूर्ण भरा हुआ है वह धीरे-धीरे फैलता बिखरता चला जायगा और अन्ततः फूटा और खाली घड़ा हाथ रहने पर ऐसा पश्चाताप करना पड़ेगा जिसका न कोई उपचार है और न कहीं अन्त।

समय सबसे मूल्यवान दौलत है, इसी ईश्वर प्रदत्त अनुकम्पा का सदुपयोग जो कर सके, उनने इसके बदले बहुमूल्य मणि मुक्तक खरीदे। सफलताओं के अनेकानेक श्रेय प्राप्त किए। संसार में जितने भी प्रगतिशील, समुन्नत, प्रख्यात, क्रिया कुशल विद्या और वैभव के धीन व्यक्ति हुए हैं उनमें से प्रत्येक ने यह व्यवस्था अपनाई है कि एक भी क्षण बेकार न जाने पाए। एक भी निरर्थक काम अपनी गतिविधियों में सम्मिलित न होने पाए। एक भी आवश्यक छूटने पाए। समय ही किसी के पास चौबीस घण्टे का ही है। पर यह अपने हाथ की बात है कि उसे इस क्रम में किन प्रयोजनों में प्रयुक्त किया जाय। यह कार्य समग्र जागरुकता रखते हुए ही हो सकता है। शतरंज की चाल चलने वाले सभी गोटी की सम्भावित चाल का ध्यान रखते हैं। सेनापतियों को भी मात्र एक ही दिशा तक सीमित नहीं रहना पड़ता, वरन् वे शत्रु की सम्भावित रणनीति का समय रहते कल्पना करते हैं और किसी भी दिशा में ऐसी गुँजाइश नहीं छोड़ते जिसमें होकर शत्रु को प्रवेश करने का अवसर मिले और वह अपनी एवं पक्षीय चिन्तन की कमजोरी का लाभ उठाए।

चिन्तन की अस्त-व्यस्तता भी ऐसी ही भूल है, जिसे प्रगति क्रम की सबसे बड़ी बाधा माना जा सकता है। जिन दिशाओं को अपनाना है, जिन मार्गों पर चलना है, जिन योग्यताओं का सम्पादन करना है। चिन्तन की यदि अपनी निर्धारित कार्य पद्धति ही सीमित रहे। उन्हीं प्रयोजनों का ताना-बाना बुने, सम्भावित कठिनाइयों से निबटने और आवश्यकताओं की पूर्ति करने की बात पर ही यदि विचारणा को सीमा बद्ध रखा जाय तो अनेकों प्रसंग ऐसे उभर आते हैं जिनकी उपेक्षा करने पर सारी योजना ही असफल हो जाती है। एकाग्रता इसी का नाम है कि सामने प्रस्तुत योजना के ही हर पक्ष को गम्भीरता से विचारा जाय। अप्रासंगिक प्रसंगों पर मन को न दौड़ते देने की संकल्प शक्ति को भी जागरुकता कहते हैं।

वातावरण का मनुष्य पर असाधारण रूप से प्रभाव पड़ता है। जिस प्रकार शीत प्रधान और उष्णकटिबन्ध के, तराई के क्षेत्रों की जलवायु वहाँ के निवासियों के स्वास्थ्य को प्रभावित करती है उसी प्रकार जिस प्रकृति, स्वभाव एवं गतिविधियों का जहाँ माहौल होता है वहाँ बसने वाले उस क्षेत्रवासियों के प्रभाव से प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। भले-बुरे लोगों का बाहुल्य अपनी विशेषताओं से भरा पूरा एक शक्तिशाली वातावरण बना लेते हैं। उसके संपर्क में अपने वालों पर वैसी छाप पड़ती है। मद्यपों, जुआरियों, ठग, पाखण्डियों, व्यभिचारियों के बीच बसना मनुष्य की चेतना उन्हीं प्रयोजनों के लिए सहमत होने, ललचाने लगती है। यही बात अच्छे माहौल के संबंध में भी है। जहाँ सत्संग, सेवा, साधना, स्वाध्याय आदि सत्प्रवृत्तियाँ चलती रहती हैं वहाँ अपने ठाँव बना लेने वाले भी उसी ढाँचे में ढलने लगते हैं। ऐसे बिरले ही होते हैं जो समुद्र के बीच भी टापू की तरह उभरे रहते हैं और अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व को अक्षुण्ण बनाए रहते हैं। अन्यथा खारी झील में पड़ने के उपरान्त मोटी लकड़ी तक नमक बन जाती है। इस तथ्य को ध्यान में रखा जाय। अपना स्थान बदलकर, अनुपयुक्तता से हटकर उपयुक्तता के समीप निवास बदला जा सके तो सर्वोत्तम। अन्यथा इतना तो करना ही चाहिए कि आत्मरक्षा के लिए कवच धारण करने जैसा उपाय बरता जाय। सेनापति को जब स्वयं निर्णायक युद्ध में उतरना पड़ता है तो वह लोहे के बने जिरह बख्तर धारण कर लेते हैं, ताकि शत्रु का शस्त्र प्रहार कारगर न हो सके। संकल्प शक्ति और व्रतशीलता के आधार पर अनुपयुक्त प्रभाव को निरस्त भी किया जा सकता है और अभाव की स्थिति में भी अपने मनोबल द्वारा अभिष्ट अनुकूलता उत्पन्न की जा सकती है। तपस्वी सुनसान वनों में हिंस्र पशुओं से घिरे होने पर भी अपनी साधना कुटी बनाकर उस नीरस वातावरण में उत्कृष्टता भर देते हैं। चन्दन वृक्ष अपने समीपवर्ती उगे झाड़-झंखाड़ों को भी सुगंधित कर लेता है। मनस्वी लोग ऐसा ही व्यक्तित्व विकसित करते हैं, जिससे टकराकर अवाँछनीयता वापस लौट चले और उत्कृष्टता अदृश्य वातावरण में से खिंचती चली आवे।

एक प्रकृति के अनेक लोगों का जमघट उनकी विचारणा एवं गतिविधि के अनुरूप वातावरण बनाता है। पर साथ ही होता यह भी है कि एक दो प्रतिभावान् व्यक्ति यदि साथ में रहे और अपना मन उनके प्रभाव से प्रभावित होने लगे तो वैसा प्रभाव भी पड़ने लगे। ऐसे सज्जनों के सत्प्रभाव की अपेक्षा दुर्जनों का कुप्रभाव अधिक क्षमता सम्पन्न होता है। पानी नीचे की ओर आसानी से ढुलने लगता है जब कि उसे ऊँचा उठाने के लिए शक्ति लगानी पड़ती है और उपकरण जुटाने पड़ते हैं। उत्कृष्ट आदर्शवादिता जिनके स्वभाव में सम्मिलित हो ऐसे लोग कम ही देखे जाते हैं पर जिन्हें उनकी तलाश हो वे निकट नहीं तो दूर उन्हें उपलब्ध कर लेते हैं। प्रत्यक्ष मिलन न बन पड़े तो उच्चस्तरीय जीवन विज्ञान सिखाने वाले सद्ग्रन्थों से भी यह प्रयोजन बहुत हद तक पूरा हो सकता है। वातावरण और संपर्क के संबंध में भी हमें सदा जागरुकता की आवश्यकता है ताकि अवगुणों से बचना और शुभ का अधिग्रहण करना सम्भव हो सके।


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