मनुष्य पर्यावरण से जुड़े तो व्यक्तित्व का बिखराव रुके!

November 1988

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मानव जीवन की प्रगति यात्रा का अवलोकन करें तो हम पाते हैं कि यह त्रिविध आधारों पर अवलम्बित है-भौतिक, जैविक, मानसिक भौतिक एवं जैविक पक्षों पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। मानव के यह दोनों ही पक्ष विलक्षण-शरीर शास्त्रियों के लिए शोध का विषय बने हुए हैं। किंतु मनीषियों-दार्शनिकों ने मानवीय श्रेष्ठता, उसके व्यक्तित्व की सबलता का एक मात्र आधार मानसिक माना है व कहा है कि इसी धुरी के चारों ओर वैयक्तिक व सामाजिक जीवन गतिशील होता है। इसी को केन्द्र मानकर हमारे पारस्परिक संबंध मधुर तथा गतिशील होते हैं।

जो विशिष्टता इस केन्द्र को सर्वाधिक आकर्षित करती है-वह हमारा अपना परिवेश-पर्यावरण है। इस परिवेश में नदी, निर्झर, उपवन, वृक्ष-वनस्पतियाँ, पशु-पक्षी, विराट् ब्रह्माण्ड सभी आ जाते हैं। मनोवैज्ञानिकों ने मन तथा परिवेश के पारस्परिक भावनाशील संबंधों को अपनी भाषा में “साइकिक रिलेशन्स बिट मैन एण्ड द एनवायरमेण्ट” कह कर निरूपित किया है।

इसी मानसिक स्तर में चेतना के ऊपरी धरातल पर आरोहण और विकास की असीम सम्भावनाएँ समायी हुई हैं। इसकी परिपक्वता और दृढ़ता तथा ऊर्ध्वमुखी प्रवृत्ति सिद्ध होने पर ही इन सम्भावनाओं का मूर्त होना बन पड़ता है। इसी प्रक्रिया में बिखराव आने पर, मणि माला के सूत्र टूट जाने पर उर्ध्व गम न की संभावनाएँ समाप्त हो जाती हैं।

आज मनुष्य ऐसी ही बिखराव की स्थिति में जी रहा है। कुछ अपने व्यक्तित्व की मणियों को बिखेर चुके हैं, कुछ बिखेर रहे हैं और कुछ बिखेरने वाले हैं। इस बिखराव को मनःचिकित्साविदों ने “मनो-व्यथा” का नाम दिया है। विकास तथा वैज्ञानिकता की प्रगति की प्रक्रिया के साथ ही मानव अपनी इस अमूल्य मणियों को खोकर मनी शारीरिक रोगों, मनोविकारों से ग्रसित होता जा रहा है।

मानसिक स्तर पर बढ़ता बिखराव मनःचिकित्सकों ही नहीं, विश्व मनीषा के लिए चिन्ता का विषय है। इटली में ट्रिस्टे के “ओस्पेडेले साइकियाट्रिफो” में कार्यरत मनोअध्येता-फ्राँको बासज्लिया तथा गौस्ताद साइकियाट्रिक हास्पिटल ओस्लो के मनोचिकित्सक स्वेन हौग्सर्ग्जड ने अपनी विस्तृत अध्ययन तथा विभिन्न भू भागो के मनोरोगियों के सर्वेक्षण के आधार पर स्पष्ट किया है “इस तरह रोगियों की बढ़ती जा रही दर का कारण परिवेश में, पर्यावरण में उत्पन्न की गयी विकृतियाँ हैं। परिवेश की इस परिधि में समाज एवं वातावरण दोनों ही समाहित हैं।”

मनोविद् डोरोथी हाँफमैन “बर्ल्ड हेल्थ आर्गनाइजेशन” की पत्रिका “बर्ल्ड हेलथ” के अप्रैल 1988 में प्रकाशित अपने निबन्ध “हेल्दी माइण्ड-हेल्दी बाडी” में स्पष्ट करती है कि मानसिक स्तर का स्वस्थ व सुगठित रहना इस बात पर निर्भर है कि पर्यावरण के साथ इसका-समन्वयात्मक सामंजस्य रहे। वे करती हैं-कि “मानसिक गड़बड़ियाँ इसी कारण बढ़ रही हैं कि हम अपने आपसी रिश्ते-तोड़ते जा रहे हैं।” येले विश्वविद्यालय अमेरिका के प्रोफेसर डॉ. बेरनी सेशेल ने भी उपरोक्त मत का समर्थन करते हुए कहा है कि”पनप रही संकीर्णता के कारण भावनात्मक सम्बन्धों का टूटना ही आज की समस्याओं का एकमात्र कारण है।”

मानसिक स्तर में बिखराव के प्रमुख कारक ये घटक कौन से हैं? इस समस्या का समाधान प्रस्तुत करते हुए रशियन चिन्तक एण्टोली गोरेलोव व अलेक्जेन्डर शातालोप अपने विचारपूर्ण लेख “मैन एण्ड इन्वायरनमेण्ट मेथाँडोलाँजिकल आस्पेक्टस ऑफ प्राँब्लम” में स्पष्ट करते हैं कि “मनुष्य के जैविक आयाम, सामाजिक आयाम के साथ ही एक और इकॉलाजिकल आयाम” भी है। इन तीनों के साथ उसका एक-सा भावनात्मक सम्बन्ध है। इनमें से किसी के भी टूटने से गड़बड़ी का होना स्वाभाविक ही बन पड़ता है। इन त्रिविध आयामों के सम्बन्धों का तात्पर्य है-”जिस तरह मनुष्य अपने शरीर के साथ जुड़ा हुआ है, उसी तरह अन्य दोनों के साथ भी। शरीर की तरह अन्य दो के प्रति भी उसके उतने ही दायित्व हैं।”

इन चिन्तकों का उपरोक्त कथन कुछ अस्वाभाविक-सा प्रतीत होने पर भी पूर्णतया यथार्थ है। अभी तक प्रायः रिश्ते नाते की बात मानवी प्रगति तक समझकर ही सन्तोष कर लिया जाता रहा है। इन्हीं के साथ भाव पूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने की बात भी सोची गई है। किन्तु गम्भीर स्तर पर विचार करने पर पर्यावरण के साथ भी उतने ही भावनात्मक स्तर की बात समझ में आने लगती है।

4त्रन74ो तो मैक्स प्लाँक श्रोडिंजर, हेनरी स्टैप के द्वारा की गई परमाणु जगत की खोजों तथा आइन्स्टीन के सापेक्षिकता के सिद्धान्त ने सम्पूर्ण विश्व के साथ एकता का वैज्ञानिक व प्रायोगिक प्रतिपादन सुस्पष्ट रूप से किया है। किन्तु पर्यावरण के साथ भावनात्मक सम्बन्धों की बात अब मनोवैज्ञानिक सुस्पष्ट रूप से स्वीकारने लगे हैं। यह सम्बन्ध एक तरफा नहीं है। पर्यावरण के विविध घटक मानव समाज से उससे भी कहीं अधिक लगाव रखते हैं।

मनीषीगण कहते हैं कि मानव समाज जिस तरह अपने दैनन्दिन जीवन में पारस्परिक व्यवहार में सामाजिक नीति नियमों का पालन करता है, उसी तरह पर्यावरण नीति का भी पालन किया जाना चाहिए। इन अध्येताओं ने स्पष्ट किया है कि पर्यावरण नीति को विस्मृत करने के कारण उत्पन्न विकृत मानसिकता ने सामाजिक नीति को भी विस्मृत करना प्रारम्भ ही नहीं, अपनाना शुरू कर दिया है।

नीति को विस्मरणीय मान बैठने का परिणाम येले विश्वविद्यालय, अमेरिका के प्राध्यापक ख्याति प्राप्त मनोविद् ‘एरिक फ्राम’ अपनी कृति “मैन ऑन हिम सेल्फ-एन इन्क्वारी इन टू द साइकोलॉजी ऑफ इथिक्स” में बताते हैं कि आज के मनोरोग इसी मान्यता की उपलब्धि हैं। उन्होंने पुस्तक की भूमिका में ही स्पष्ट किया है कि मनोव्यथा इस बात का लक्षण है कि कहीं नैतिक मूल्यों को अस्वीकारा गया है। आज के परिप्रेक्ष्य में सबसे बड़ा अस्वीकरण है-पर्यावरण नीति का उच्छृंखलतापूर्वक उल्लंघन।

कैम्ब्रीज विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. लेबी उपरोक्त तथ्यों को स्वीकार करते हुए “अण्डर स्टैण्डिंग मेण्टल इलनेस” में कहते हैं कि “मनोव्याधि एक रहस्य है जिसका उद्घाटन और निवारण तभी सम्भव है जबकि मानव और पर्यावरण के मध्य के मानसिक संबंध उद्घाटित और स्थापित हों।”

इसके बिना मनोरोगों की बाढ़ का रुकना पूर्णतया असम्भव बताते हुए ब्रिटिश रायल कालेज ऑफ साइकिएट्री के संस्थापक अध्यक्ष प्रो.सर मार्टिन रुथ साइकियाट्री एण्ड इट्सक्रिटिक्स में कहते हैं-”प्रचलित मनोचिकित्सा के विरोध में एक आन्दोलन चलाने की आवश्यकता है क्योंकि यह उद्देश्यविहीन और अवैज्ञानिक है।

डॉ. डेविड लेवी यह भी स्पष्ट करते हैं कि-”पर्यावरण के घटकों के साथ भावनात्मक सम्बन्धों की बात कहने भर से काम न चलेगा। इसके लिए एक ऐसी बिहेवियर थेरेपी स्पष्टतया समझानी होगी, जिसके द्वारा मानव स्वयं अपनी प्रजाति तथा पर्यावरण के साथ बिगड़े संबंधों को मधुर बना सके।”

मानसिक बिखराव के इस बढ़ते स्तर तथा प्रचलित चिकित्सा उपायों की असफलता के आँकलन से मानवीय कृति की विकृति प्रमाणित हो जाती है। स्वस्थ, समुन्नत और सुदृढ़ जीवन का सहज अर्थ है- इसके सभी आयाम सुगठित हों। शारीरिक विकृति जहाँ मानव विशेष के अस्तित्व को विनष्ट करती है वही सामाजिक विकृति पूरे समाज को नष्ट कर देती है। पर्यावरण की विकृति का क्षेत्र तो और भी अधिक विस्तृत है।

पर्यावरण के साथ मानवीय भावनात्मकता भी अधिक है। हारवर्ड विश्वविद्यालय के डॉ. वेनरिस “टु वार्ड ए सोशियोबायोलाजिक थ्योरी ऑफ द इमोशन्स” में करते हैं-पर्यावरणीय अनुकूलता या प्रतिकूलता हमारी भावनाओं में अनुकूल या प्रतिकूल परिवर्तन लाने वाली होती हैं। उदाहरणार्थ-किसी सूखे पीड़ित क्षेत्र में जहाँ का इकोसिस्टम ध्वस्त हो चुका है जाने पर मन सहज ही क्षुब्ध हो जाएगा। किन्तु किसी सुरम्य घाटी में जिसका इकोसिस्टम समृद्ध है, में जान पर क्षुब्ध मन भी सहज प्रसन्न हो जाएगा। इसी मनोवैज्ञानिक घनिष्ठता के कारण ही हिमालय को, उत्तराखण्ड को धरती के स्वर्ग के नाम से जाना जाता रहा है। डॉ. वैनरिच के अनुसार सूखेवन-जल विहीन जगह पर जाने पर जो अवसाद होता है, वह लगभग किसी मित्र की मृत्यु जैसा ही है।

यदि यह घनिष्ठता इतनी अधिक है तो सम्बन्धों की मधुरता कैसे नष्ट हुई? इस विचारणीय प्रश्न का हल पोस्ट ग्रेजुएट सेण्टर फॉर मेण्टल हेल्थ-न्यूयार्क के सह निदेशक हेनरी केलरमैन “इमोशन्स एण्ड परसनाल्टी स्ट्रक्चर” में प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि बौद्धीकरण ही वह विष है जिससे भावनाओं में जहर-घुला और मधुरता विषाक्त हुई।”

यह हलाहल कैसे मिटे, कैसी दुर्गति को उलटकर सही मार्ग पर आया जाय, इसके लिए पश्चिमी मनीषी मनोविज्ञान के इस क्षेत्र में भी चिन्तन का आधार भारतीय वाङ्मय में पाने का प्रयत्न कर रहे हैं। मिल-हिस्ट्री ऑफ इण्डिया के खण्ड 2 के पृष्ठ 47 में एच॰ डब्लू विल्सन के अध्ययन को उन्हीं के शब्दों में कहते हैं “कि भारतीय ऋषि गहन चिन्तक थे, उन्हें पादपों व अन्य परिस्थिति की घटकों तथा स्वयं के बीच मानसिक सम्बन्धों का परिपूर्ण ज्ञान था।” इसकी साक्षी स्वरूप वैदिक ऋषि श्वेताश्वेतर (3.3) तथा मुण्डक उपनिषद् (2.13), प्रश्नोपनिषद् (6.9) छान्दोग्य (8.24) में आकाश को जीवन रक्षक बताते हुए उसे मन की उन्नति का कारण।

इसी तरह ऋग्वेद का ऋषि प्रथम मण्डल के 23 वे सूक्त के 20 वें मंत्र में जल को तृषा की तृप्ति के साथ मानसिक सुख एवं शाँति का प्रदाता भी बताता है। यही नहीं इसी के 6 वें मण्डल 50 वें सूक्त के 7 वें मंत्र में स्पष्ट करता है कि “हे जल! तुम मनुष्यों के घनिष्ठ मित्र हो, उन्हें जीवन रक्षा के साथ मानसिक शान्ति भी प्रदान करते हो।”

जल के साथ मानसिक शान्ति की अभिन्नता बताते हुए अथर्ववेद का ऋषि 19 वें मण्डल के दूसरे सूक्त के प्रथम व द्वितीय मंत्र में कहता है-” हे मनुष्य। सुन्दर पहाड़ों से निकलता जल तुझे शान्ति प्रदाता सिद्ध हो, झरने तुझे मनःशान्ति की गहराई में ले जाएँ, बरसात में बरसता पानी तेरे लिए मन के सारे उद्वेगों को शाँत करने वाला हो।”

जल की तरह वायु के बारे में भी ऋषि कहता है-”हे वायु! तुम अपने प्रवाह के साथ स्वास्थ्य देने तथा मनःसन्ताप हरने वाले हो।”

वैदिक वाङ्मय में पर्यावरण के प्रति ऐसे ही उदात्त भाव स्थान-स्थान पर बिखरे हैं। इन्हीं भावों को वर्तमान की सर्वाधिक अनिवार्यता बताते हुए डॉ. राबर्ट डिश “द इकोलाजिक कानसिएन्स वैल्यू फॉर सरवाइवल” में कहा है-”मानसिक स्तर के विकास तथा सारी व्यथाओं से मुक्त होने के लिए इन्हीं भावों से युक्त “इकॉलाजिकल साइंस” जिसे व्यवहार विज्ञान की भाषा में “डेप्थ इकाँलाँजी” कहा जा सकता है-विकसित करने की भारी आवश्यकता है।”

निस्सन्देह पर्यावरण के प्रति जागरुकता बढ़ रही है एवं उसके आध्यात्मिक पक्ष को समझते हुए व्यक्ति ने यह अनुभव किया है कि आज युग में शाँति लानी है, भावी महाविनाश को रोकना है, उन्मादग्रस्त मनःस्थिति की विडम्बना से मुक्ति पानी है तो उन मधुर संबंधों को पुनः स्थापित करना होगा जो मानवी अंतःकरण मानव शरीर को उसके चहुँ ओर के पर्यावरण से जोड़ते हैं। इन सूत्रों के जुड़े जाने से व्यक्तित्व का बिखराव रुकेगा तथा एक तनावरहित, प्रगतिशील मानवजाति विकसित होगी जिसका लक्ष्य होगा-”वसुधैव कुटुम्बकम्।”


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