आत्मिकी का प्रवेशद्वार ध्यानयज्ञ

November 1988

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अग्निहोत्र प्रक्रिया का उच्चस्तरीय रूप यज्ञ है, जिसे आध्यात्मिक उत्कर्ष के मान्य उपाय के रूप में स्वीकारा गया है। अन्तःकरण से लेकर अन्तरात्मा तक के गुह्य परिष्कारों में यज्ञ की अपनी उपयोगिता और महत्ता है, पर वह भावना प्रधान, चरित्र प्रधान और साधना प्रधान होने से अधिक सूक्ष्म है। इतना सूक्ष्म कि उसे पदार्थ विज्ञान की वर्तमान पकड़ से ऊपर ही समझा जा सकता है। प्रयोगशालाओं के यंत्र उपकरण और वैज्ञानिकों की प्रत्यक्षवादी समझ उसका विवेचन-विश्लेषण आदि करने में समर्थ नहीं हो सकती।

ध्यानयोग को भौतिकी की कसौटी पर भी कसा जा सकता है। ध्यान की भौतिक-स्थूल परिणतियाँ भी होती हैं। समाधि में निःचेष्ट हो जाना, अंग का रक्त संचार बन्द कर देना, माँसपेशियों को अतिशय कड़ा कर देना जैसे कौतुक ध्यानयोग के अभ्यासी प्रायः दिखाते रहते हैं। सरकस के पात्रों का कौतूहल प्रदर्शन उनकी एकाग्रता पर अवलम्बित है। वैज्ञानिक, साहित्यकार, कलाकार अपनी विशेषतायें ध्यान को केन्द्रीभूत करके ही प्रदर्शित कर पाते हैं। परीक्षाओं, प्रतियोगिताओं में सफल हो पाना प्रायः इसी कौशल पर निर्भर रहता है। निशाना सही लगा सकने की विशेषता इसी अभ्यास पर निर्भर है। टिड्डे बरसात में हरे रंग के होते हैं और वे ही गर्मियों में पीले पड़ जाते हैं। इसका एक ही कारण है कि हरियाली उनके ध्यान काया को हरा बनाये रहती है। पर जब गर्मी आती है और घास सूखकर पीली पड़ जाती है, तब उस पर रहने वाले टिड्डे चारों ओर पीला रंग देखते और ठीक वैसा ही बन जाते हैं। मस्तिष्क पर छाये रहने वाले आयामों की प्रतिक्रिया है। वही सर्वत्र दीख पड़ता है। आँखों पर चश्मा जिस रंग का पहन जाता है, उसी रंग में रंगा हुआ सारा संसार प्रतीत होता है। जब बदलकर अन्य रंग वाला चश्मा पहन लिया जाता है, तो क्षण भर में सारा दृश्यजगत अपना रंग बदल लेता है। यह भीतर से उत्पन्न हुई मान्यता की दृश्यमान प्रतिक्रिया है। रस्सी का सांप और झाड़ी का भूत इसी प्रकार बनता है। यह भ्रान्तियाँ कई बार इतनी समर्थ और प्रबल होती हैं कि सशक्त शत्रु की तरह प्राण घातक भी बन जाती हैं। स्व संकेतों के आधार पर व्यक्तित्व किस कदर उभरते और गिरते है, इसके असंख्य प्रमाण उदाहरण हमें अपने इर्द-गिर्द के वातावरण में ही बड़ी संख्या में विद्यमान दिखते हैं।

ध्यान योग इन दिनों एक मान्य प्रयोग बन गया है। चिंतन में परिवर्तन लाने पर मनुष्य जीवन की दिशा धारा बदल जाती है। आरोग्य की उपलब्धि, मनोबल की प्रखरता एवं भविष्य निर्माण से जुड़ने वाली महती भूमिका में सघन विचार धारा का असाधारण योगदान होता है। महत्वपूर्ण रचनात्मक कार्यों की रूपरेखा निर्धारित करती है। इस संदर्भ में हुए निश्चय के उपरान्त योजना कार्यरूप में परिणत होती है, साधन जुटते हैं और सफलता के आधार खड़े होते हैं। दैनिक घटनाओं का सुनियोजन बन पड़ना और अस्त-व्यस्तता की चट्टान से टकराकर छितरा जाना और कुछ नहीं, केवल तत्परता और तन्मयता के समन्वय की कमीवेशी रहने की ही परिणति हैं।

इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए “ध्यान” को महती सामर्थ्य सम्पदा के रूप में समझा जा सकता है। उसका प्रभाव जिस काय-कलेवर पर, मनःसंस्थान पर, प्रगति और समृद्धि पर दिखाई देता है, उसे सफलताओं की आधारशिला कहा जा सकता है। हर व्यक्ति की अपनी दुनिया होती है। पहले वह बीज के रूप में मनःक्षेत्र की कल्पना बनकर आती है। इसके बाद मनःस्थिति और परिस्थिति का उपयुक्त खाद पानी लगने पर वह सुनिश्चित यथार्थता एवं संभावना के रूप में सामने आ खड़ी होती है। प्रकारान्तर से जीवन की प्रखरता और ध्यान धारणा को एक ही रूप में देखा जा सकता है।

अन्तःकरण की विशिष्टता और आत्मा की उत्कृष्टता की साधना हेतु जिन छोटे बड़े योगाभ्यासों का प्रयोग विभिन्न वर्गों के लोग विभिन्न प्रकार से करते रहते हैं, उनमें अन्य क्रिया कृत्यों का समावेश तो रह सकता है, पर ध्यान को नहीं छोड़ा जा सकता। यह ध्यान परब्रह्म का, प्रकार ज्योति का, आत्मिक प्रकाश पुँज का षट्चक्रों का पंचकोशों का, त्रिविध कलेवरों से सम्बन्धित तीन ग्रंथियों का हो सकता है। इष्टदेवों के रूप में अवतारों, देवत्वों, महामानवों अथवा दिव्य शक्तियों को माध्यम बनाया जा सकता है। इन्द्रिय तन्मात्राओं को विकसित करने के लिए शब्द रूप, रस, गंध स्पर्श के कुछ भाव चित्र गढ़े जा सकते हैं। सोऽहम् प्रस्फुटीकरण, कुण्डलिनी जागरण आदि की दिव्य साधनाएँ इसी प्रयोजन के साथ जुड़ती हैं।

इन सभी प्रयोगों के अन्तिम परिणामों को देखकर साधना से सिद्धि के सिद्धान्त को कसौटी पर कसा जा सकता है। पर इस बीच का मध्यान्तर भी इस बात का प्रमाण देता रहता है कि क्रिया की प्रतिक्रिया किस रूप में सही पड़ रही है। इस आधार पर प्रगति का, अवगति का, स्थिरता का मूल्याँकन किया जा सकता है। यदि गलती हो रही हो तो उसे सुधार जा सकता है। अवगति को रोका जा सकता है। परिणति यदि सफलता की दिशा में चल पड़ी तो उसे और भी अधिक तीव्र किया जा सकता है। इस प्रकार आत्मिक प्रगति की दिशा में सही रीति-नीति अपनाते हुए सही दिशा में चला और सही लक्ष्य तक पहुँच जा सकता है। वैज्ञानिक प्रयोगशालाएँ उस संदर्भ में महत्वपूर्ण योगदान दे सकती है। उस आधार पर निकले हुए निष्कर्ष जीवनोत्कर्ष में असाधारण रूप से सहयोगी बन सकते हैं। अभिष्ट सफलता को लक्ष्य तक पहुँचाने में उनका असाधारण योगदान हो सकता है।

शान्तिकुँज की ब्रह्मवर्चस् प्रयोगशाला में इस संदर्भ में आवश्यक शोध प्रबंध के लिए सभी उपयोगी एवं आवश्यक उपकरण जुटाये गये हैं, जिनसे मस्तिष्क में चल रहीं हलचलों का स्वरूप, संदर्भ एवं गतिक्रम का परिचय प्राप्त किया जा सकता है। स्नायु संस्थान की गतिविधियों एवं उनका माँसपेशियों तथा शरीर के अंग अवयवों पर संभावित प्रभाव की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। प्रयोगशाला के इन निष्कर्षों के आधार पर आगे बढ़ चलने के लिए उपयुक्त मार्गदर्शन मिलता है और भूल होने की आशंका का निराकरण होता रहता है।

ब्रह्मवर्चस् की प्रयोगशाला में एक चार चैनेल का पाँलीग्राफ, एक दो चैनेल का पाँलीग्राफ, एक इलेक्ट्रोएनसेफेलोग्राफी संयंत्र तथा तीन चैनल वाला एक बायोफीडबैक यंत्र प्रयोग में लाये जाते हैं। पाँलीग्राफ द्वारा रक्त का दबाव, नाड़ी की गति, श्वास गति, त्वचा का तापमान, इलेक्ट्रोमायोग्राफ तथा इलेक्ट्रोएनसेफेलोग्राफ का एक साथ मापन कर ध्यान की अवधि में शरीर में संव्याप्त विद्यतीय क्षेत्र में परिवर्तन की अति सूक्ष्म स्थिति तक मापा जा सकता है। ई.ई.जी, उपकरण मस्तिष्क की जाग्रत, प्रसुप्त तथा गहरे ध्यान की स्थिति में, तरंगों का अंकन कर बताता है कि बहिरंग से मोड़कर व्यक्ति स्वयं को कितना अंतर्मुखी बना सका। बायोफीडबैक यंत्र में त्वचा का विद्युतीय प्रतिरोध (जी.एस.आर) माँसपेशियों की विद्युत (ई.एम.जी.) तथा मस्तिष्क की अल्फा तरंगें (अल्फा ई.ई.जी.) इन तीनों को दृश्य एवं ध्वनि के माध्यम से साधक को दिखाया व ध्यान प्रक्रिया द्वारा तीनों में परिवर्तन लाने हेतु उसे प्रशिक्षित किया जाता है। अपनी मनःशक्ति के माध्यम से साधक तनाव शैथिल्य द्वारा त्वचा का प्रतिरोध कम करता तथा ध्यान की स्थिति में ही दृश्यमान अल्फा तरंगें उत्पन्न करता है। इससे उसका मनोबल भी बढ़ता है एवं क्रमशः ध्यान की गहराई में जाने का प्रशिक्षण भी मिलता है। इन प्रयोगों के अलावा रिएक्शनटाइम, एप्टीट्यूड, इल्युजन, मेमोरी, सेल्फ कन्सेप्ट संबंधी लगभग 12 परीक्षण और कराये जाते हैं तो साइकोमेट्री की परिधि में आते हैं। ये भी यान प्रक्रिया की गहराई में जाने की परिणति के परिचायक हैं। स्थूल मापदण्ड ही सही, पर इनकी महत्ता अपने स्थान पर है।

इन प्रयोगों का आरम्भ “रंग ध्यान” से किया जाता है। यह अधिक प्रत्यक्ष, अधिक सरल और अधिक स्पष्ट है। रंग विज्ञान के ज्ञाता जानते हैं कि सूर्य किरणों में सात रंग होते हैं। उनमें से जो पदार्थ जिस रंग किरण को, जिस अनुपात में ग्रहण करता है, वह उसी रंग का दिखने लगता है। रंग स्वाभाविक हों या कृत्रिम, सभी इसी आधार पर विनिर्मित होते और परिणाम उत्पन्न करते हैं। कमरों में जिस रंग को पोता जाता है, खिड़कियों में जिस रंग के पर्दे रहते हैं, उसी रंग की किरणों का प्रवाह छनकर उस परिधि में अपना प्रभाव प्रस्तुत करता रहता है। रंगीन काँचों या काँच पर लगे रंगीन जिलेटिन कागजों से भी यही उद्देश्य पूरा होता है।

ध्यान धारणा के रंग संबंधी प्रयोगों में साधक को आँखें बंद करके अमुक रंग के ध्यान का निर्देश दिया जाता है।सुविधा के लिए उसी रंग के चश्मे पहना देते है, अथवा उस कक्ष में वैसे पर्दे लटका कर कृत्रिम प्रकाश उत्पन्न कर रंगों का ध्यान करने को कहा जाता है। इलेक्ट्रॉनिक स्ट्रोबोस्कोप की मदद से सात विभिन्न रंगों के बल्बों से आँखों पर फ्लैशेज डाले जाते हैं। रंगों का मन मस्तिष्क पर प्रभाव सर्वविदित है एवं जाँचा परखा जा चुका है। लाल रंग स्नायु संस्थान एवं रक्त की क्रियाशीलता को बढ़ाता है। प्राणशक्ति इससे बढ़ती है। नारंगी रंग साधक की जीवाणु प्रतिरोधी सामर्थ्य को बढ़ाता है तथा सभी अंगों के चयापचय प्रक्रिया को संतुलित करता है। पीला रंग पाचन संस्थान तथा स्वैच्छिक स्नायु संस्थान को संतुलित रखता है। यह बुद्धिवर्धक भी है। हरा रंग मानसिक तनाव से मुक्ति दिलाता व हारमोन ग्रंथियों का स्राव बढ़ाता है। नीला रंग रक्त परिशोधन एवं मानसिक अवसाद के हेतु प्रयुक्त होता है। बैंगनी रंग हृदय की गति को स्थिर तथा श्वसन प्रक्रिया को संतुलित करता हैं यह दर्दनाशक भी है। सभी रंग विभिन्न सम्मिश्रण में भाव संस्थान को प्रभावित उत्तेजित करते हैं। इन सम्मिश्रणों के प्रभाव को देखा जा रहा है।

देखा गया है कि सही निदान के बाद निर्धारित रंग का ध्यान करने पर अभिष्ट प्रभाव उपयुक्त मात्रा में मिलना आरम्भ हो जाता है। सूर्य किरण चिकित्सा एक विशेष कक्ष में बिठाकर अथवा रंगीन बोतलों का पानी पिलाकर लम्बे समय से की जाती रही है। पर “रंगध्यान” का नया निर्धारण नये अनुसंधान के आधार पर ही बन पड़ा है। इस ध्यान प्रक्रिया की अवधि में क्या परिवर्तन रक्त के रासायनिक घटकों तथा शरीर की इलेक्ट्रोफिजीयोलॉजी पर हो रहा है, इसे विभिन्न यंत्रों की मदद से मापा ज सकता है। इस उपचार की प्रतिक्रिया शारीरिक रोगों के निवारण की अपेक्षा मानसिक अस्त-व्यस्तता को दूर करने, तनाव मिटाने तथा मनःसंतुलन बिठाने में अधिक प्रभावोत्पादक होते देखी गयी है।

रंगों के ध्यान के आधार पर यह समझना अधिक सरल और संभव हो जाता है कि उच्चस्तरीय ध्यान धारणा की, त्राटक के विभिन्न रूपों की परिणति कितनी गहराई तक प्रवेश करके अन्तराल को प्रभावित कर सकती है। ध्यान-धारणा सभी अध्यात्म उपचारों का मेरुदण्ड है। उसी के समन्वय से हर योगाभ्यासी प्राणवान बनता एवं अभिष्ट परिणाम प्रस्तुत करता है। शाँतिकुँज के ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान ने अध्यात्म विद्या के परिणामों को खोजते हुए ध्यान विद्या के सम्बन्ध में अतिमहत्वपूर्ण प्रसंगों की जानकारी प्राप्त की है। अगले दिनों उसके और भी व्यापक परिणाम सामने आकर रहेंगे। इन्हें समय-समय पर पत्रिका में अथवा बुलेटिन के रूप में प्रकाशित किये जाने की सुनियोजित व्यवस्था की जा रही है। जिन साधकों के अपने प्रयोग भी इस दिशा में चले हों वे भी पत्र व्यवहार कर जानकारी के आदान-प्रदान का लाभ उठा सकते हैं।


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