भाव संवेदनाओं की गंगोत्री सूखने न पाए

November 1988

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मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन भावनाओं संवेदनाओं से संचालित होता है। दुख और आनन्द घृणा और प्रेम, क्रोध और सहिष्णुता, कृपणता और उदारता सन्देह और विश्वास आदि भावनायें अन्तःकरण से उपजती है तथा मन मस्तिष्क को प्रभावित कर मनुष्य की विभिन्न गतिविधियों को संचालित प्रेरित करती है। भावनाओं के क्रीड़ा केन्द्र को ही अन्तःकरण कहा जाता है। इन भावनाओं का मानव जीवन पर उसके शारीरिक स्वास्थ्य एवं मानसिक स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता है मनोविज्ञानियों एवं मनःचिकित्सकों ने इस पर गहन अनुसंधान किया है और पाया है कि विचारणा एवं भावना क्षेत्र की विकृतियाँ अनेकानेक बीमारियों का जन्म देती है, मनोविज्ञान की भाषा में जिन्हें “साइकोसोमेटिक” या “साइकोजैनिक” व्याधियाँ कहा जाता है। भावनाओं का विवेकयुक्त सुनियोजन ही शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य एवं आत्मिक प्रगति का मूलाधार है।

मानव मन किसी न किसी कल्पना की उधेड़बुन में सतत् लगा रहता है। विचारों की भावनाओं की असंख्यों तरंगों जीवन में ज्वार भाटे की तरह उठती दबती रहती है और शरीर तथा मन स्थिति को प्रभावित करती है। इनके प्रभाव को मुख्य रूप से दो भागों में समझा जा सकता है। पहले प्रकार की भावनायें वे है जिनके कारण शरीर के विभिन्न अतिरिक्त रूप से उत्तेजित हो उठते हैं तथा दुख, संक्षोभ से लेकर तनाव, उद्वेग जैसे विकार उत्पन्न होने लगते हैं। इस श्रेणी की भावनाओं को क्रोध, चिन्ता, भय, शोक, ईर्ष्या, द्वेष आदि को रखा जा सकता है। दूसरी श्रेणी में उन भावनाओं को रखा जा सकता है जिनका प्रभाव मनःसंस्थान पर अच्छा व अनुकूल पड़ता है। इसमें आशा, उत्साह, विश्वास, प्रेम, साहस, प्रफुल्लता आदि भावनाओं को रखा जा सकता है।

पहले प्रकार की भावनायें शरीर में रोग और मन में तनाव अथवा अवसाद के लक्षण पैदा कर देती है। जबकि वास्तव में शरीर में रोग का कोई कारण नहीं होता। लम्बे समय तक अध्ययन, परीक्षण करने के पश्चात मनःशास्त्री एवं जीव विज्ञानी इस निष्कर्ष पर पहुँचें है कि वे स्नायु तथा नलिया विहीन ग्रंथियों द्वारा शरीर को प्रभावित करती है। हमारे शरीर में ऐच्छिक तथा अनैच्छिक दो तरह के स्नायु मंडल तंत्रिका तंत्र होते है जिनके द्वारा समस्त शारीरिक क्रिया कलापों का संचालन होता है। ऐच्छिक स्नायु तंत्र (तंत्रिका तंत्र) से हम अपनी इच्छानुसार काम लेते है जैसे उठना-बैठना, चलना-फिरना, किसी चीज को पकड़ना आदि। अनैच्छिक स्नायु तंत्र पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं होता। हृदय की धड़कन, फेफड़ों द्वारा श्वसन, पाचन, संवेदन, गुर्दे की क्रिया आदि कार्य अनैच्छिक स्नायुओं द्वारा ही सम्पादित होते है। भावनाओं का प्रभाव इन्हीं स्नायुओं पर होता है। भाव चिन्तन में विकृत आने पर आटोनामिक तंत्रिका-तंत्र की क्रिया प्रणाली गड़बड़ा जाती है और तनाव, उद्वेग, बेचैनी, सिर दर्द जैसी कितनी ही बीमारियाँ मनुष्य को धर दबोचती है। अनेकों बीमारियों का उदय भावनात्मक असंतुलन के कारण ही होता है। इन्हीं की ऋषि चरक ने प्रज्ञापराध की श्रेणी में माना है।

प्रख्यात मनःचिकित्सक डब्ल्यू.बी. कैनन ने अपनी कृति “बाडिली चेन्जेज इन पेन हंगर, फियर एण्ड रेज” में कहा है कि असंतुलित भावनायें अव्यवस्थित कल्पनायें कायिक प्रणाली पर घातक प्रभाव डालती है। विचारणा एवं भावना का उत्कृष्ट-निकृष्ट जैसा भी स्तर होगा स्वास्थ्य भी तदनुरूप ही होगा। उनका कहना है कि उत्तम भावनाओं रोग निवारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भावनात्मक उतार-चढ़ाव की स्थिति में व्यक्ति के स्नायु मण्डल-तंत्रिकातंत्र की विद्युतीय सक्रियता में भारी परिवर्तन होता है जिसे ई.ई.जी. जैसे यंत्रों के माध्यम से भी आँशिक रूप से देखा जा सकता है। मूलतः इसका प्रभाव अंतःस्रावी ग्रंथियों, एन्जाइम, उत्पादक घटकों एवं सूक्ष्म जीवाणुओं के क्रिया-कलापों पर पड़ता है।

इस संदर्भ में सुप्रसिद्ध मनःचिकित्सक एच.एफत्र डनबार ने गहन अनुसंधान किया है। उन्होंने अपनी पुस्तक “इमोशन्स एण्ड बाडिली चेन्जेज” में बताया है कि जिनके अन्तःकरण में सदैव सद्भावनायें ही हिलोरें मारती रहती है तथा मन-मस्तिष्क से सद्विचारणायें ही फूलती रहती है, जिनका मन सदैव प्रसन्नता-प्रफुल्लता से भरा रहता है, उनका शरीर स्वस्थ रहता है, चेहरे पर दीप्ति छाई रहती है। ऐसे व्यक्तियों की आँखों की चमक एवं चेहरे की प्रदीप्ति-आभा उनकी प्रचण्ड जीवनी शक्ति का प्रमाण स्वयं उपस्थित कर देती है। इसके विपरीत क्रोधोन्माद, आवेश आदि मनोविकार शरीर को विषैले रासायनिक पदार्थों से भर देते है जिससे कोशिकाएँ एवं ऊतक समूह सूखने लगते हैं और त्वचा का रंग बदल जाता है। वह शुष्क पड़ जाती है। विकृत भावनाओं से हृदय स्पन्दन की गति तीव्र हो जाती है, ऊर्जा का अनावश्यक क्षरण आरंभ हो जाता है जिससे इच्छाशक्ति बुझ जाती है और मनोबल को लकवा मार जाता है। इस तरह की भावनाएँ शरीर पर भले-बुरे दोनों तरक के असर डालती हैं। महान दार्शनिक अरस्तू ने कहा भी है-”भावनाओं का काया पर उसी प्रकार आधिपत्य रहता है जिस तरह स्वामी का गुलाम पर, मालिक का नौकर पर।”

मूर्धन्य मनःशास्त्री एवं लेखक बेंजामिन वाकर ने अपनी पुस्तक “एनसाइक्लोपिडिरु ऑफ एसोटेरिक मैन” में कहा है कि मानवी काया की व्याख्या मात्र उसके भौतिक रासायनिक विश्लेषण या फिजियोलॉजी के आधार पर नहीं की जा सकती। वस्तुतः उसमें सन्निहित विचारणा भावना, आस्था ही वह मूलभूत तत्व है जो समस्त शारीरिक क्रिया कलापोँ उससे क्रिया-व्यवहारों को दिशा देते, प्रेरित उत्तेजित करते रहते है। मन में उठी तीव्र भावना शरीर के स्नायु एवं हार्मोन प्रणाली को प्रभावित करती है। ब्रिटिश मनोचिकित्सा विज्ञानी ए.ओ. लुडविग के अनुसार मन में उठने वाली विभिन्न भावतरंगें शारीरिक प्रक्रिया के प्रभावित करती है। उनका कहना है कि भावनाओं की शरीर पर क्या प्रतिक्रिया होती है? इन तथ्यों पर ध्यान देने से यह सहज ही समझा जा सकता है कि क्रोध के कारण व्यक्ति तनावग्रस्त हो जाता है, रक्तचाप बढ़ जाता है। शरीर से पसीना निकलने लगता है और वह पीला पड़ जाता है। इसी तरह कभी-कभी भय के कारण पेशाब छुट जाना, हृदय गति बढ़ जाना, चेहरे का पीला पड़ना, घबराहट से पसीना छूटना, चिन्ता के कारण भूख न लगना, गुस्से में नींद न आना और लज्जा के मारे लाल हो जाना, चेहरा झुका लेना आदि स्थितियाँ दर्शाती हैं कि भावनाओं का प्रभाव मनुष्य शरीर के रक्त-प्रवाह और अंदरूनी हलचलों पर अनिवार्य रूप से पड़ता है। इसकी पुष्टि प्रसिद्ध मनोविज्ञानवेत्ता ए.सिमन ने भी की हैं अपनी पुस्तक “द फिजियोलॉजी ऑफ इमोशन्स” में उन्होंने कहा है कि साधारण-सा भावात्मक उतार चढ़ाव भी शरीर की फिजियोलॉजी का परिवर्तित कर देता है। वैज्ञानिक अनुसंधानों से भी इसकी पुष्टि हो गई है।

मनोकायिक चिकित्सा साइकोसोमेटिक मेडिसिन के जन्मदाता प्रख्यात मनोविज्ञानी जार्ज ग्रोडेक गहन अध्ययन के पश्चात् इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि शारीरिक रोगों की जड़े मन में होती हैं। उनका कथन है कि चिंतन एवं भावना क्षेत्र की विकृति ही रोगों का प्रमुख कारण है। तनाव, उन्माद जैसे मनोविकार एवं उच्च रक्तचाप, इरीटेबल, बाँवेल, कोलाइटिस, त्वचारोग, दमा, यहाँ तक कि कैंसर भी विकृत भावनाओं की ही देन है। सिर दर्द, आधा शीशी का रोग भावनात्मक उत्पादन माने गये हैं। मूर्धन्य चिकित्साविज्ञानी वोल्फ हैराल्ड ने अपनी कृति “स्टे्रट एण्ड डिसीज, में इसका प्रमुख कारण कामुकता, विद्वेष, अप्रसन्नता, कुढ़न आदि की हीन भावनाओं को बताया है। उनके अनुसार हृदय की बीमारियों, उच्च रक्तचाप आदि अनेकों कारण है, पर इस कोमल एवं संवेदनशील अंग पर सबसे अधिक गहरा प्रभाव भावनाओं का पड़ता है। क्रोध, तनाव, चिन्ता आदि के भाव यदि लम्बे समय तक मस्तिष्क पर छाये रहे तो इससे हृदय को भारी क्षति झेलनी पड़ती है। श्वसन तंत्र एवं पाचन तंत्र की अनेक बीमारियों के पीछे भाव-विकृतियाँ ही काम करती हैं।

प्रसिद्ध मन-चिकित्सक डेनियल हैक टूके ने अपनी पुस्तक “एन्फ्लुएन्स ऑफ दी मान्इड अपाँन दी बाडी” के दूसरे खण्ड में कहा है कि विकृत भाव चिंतन के कारण व्यक्ति अनैतिक आचरण अपनाता और पाप कर्म करता है। परिणाम स्वरूप अनेकानेक मनोकायिक बीमारियाँ उसे धर दबोचती है। पाप कर्मों को छिपाने से एक्जिमा, दमा, माइग्रेन, जैसे रोग फूट कर व्यक्ति की मनोदशा का परिचय स्वयमेव दे देते हैं। सोरियेसि रोग भी इसी की देन है। “साइको सोमैटिक मेडिसिन” नामक अपनी कृति में मनोचिकित्सक द्वय ई.वीस एवं ओ.एस इंग्लिस ने भी कहा है कि मानसिक एवं भावनात्मक विकृतियों का दबाव किसी भी रोग के रूप में फूट सकता है। वैज्ञानिक भी अब मानने लगे हैं कि कैन्सर एवं क्षय जैसी घातक बीमारियों का कारण मानसिक भावनात्मक अस्त-व्यस्तता है। जर्मन मनःचिकित्सकों ने इस संदर्भ में गहन अनुसंधान किया है।

“साइकोसोमेटिक डिस आर्डर” नामक अपनी कृति में प्रख्यात मनःचिकित्सा विशेषज्ञ शेल्ड जे. लेकमने ने बताया है कि भावनात्मक उतार-चढ़ाव शारीरिक क्रिया कलापों को निश्चित रूप से प्रभावित करते है और इनका असर देर तक बना रहता है। यह परिवर्तन रचनात्मक भी हो सकता है और विध्वंसक भी, जो भावनाओं की उत्कृष्टता-निकृष्टता पर निर्भर करते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष की दूषित भावनाएँ अपने लिए एवं अन्यों के लिए हानि ही हानि प्रस्तुत करती है जबकि सद्भावनाओं से लबालब भरा हृदय और मस्तिष्क स्वयं के लिए तथा साथी सहयोगियों, सभी के लिए सुखदायी परिस्थितियों विनिर्मित करता है। शेल्डन ने अपनी उक्त पुस्तक में विचारणाओं भावनाओं में होने वाली परिवर्तनों एवं उनके दूषण से होने वाले विभिन्न रोगों का विस्तृत विवरण किया है। उनके अनुसार दुश्चिंतन एवं विकृत भावनायें ही विभिन्न रोगों की उत्पत्ति के मूल कारण है। सर्व प्रथम इसी क्षेत्र का परिष्कार सुधार किये जाने की आवश्यकता है। बाह्य औषधियाँ कुछ तात्कालिक लाभ पहुँचा सकती हैं, रोग को दबा सकती हैं परन्तु वह स्थायी समाधान प्रस्तुत नहीं कर सकतीं। मनोकायिक रोगों से छुटकारा पाने एवं भावना क्षेत्र को परिष्कृत करने के लिए उनने योगाभ्यास की ध्यान धारणा प्रक्रिया का महत्वपूर्ण बताया है।

यह बात निश्चित रूप से मानी जानी चाहिए कि मानवी जीवनचर्या भावनाओं की धुरी पर ही घूमती है। शरीर हमारे अन्तःकरण की बहिरंग में अभिव्यक्ति का एक माध्यम मात्र है। काय तंत्र में जो अव्यवस्थाएँ समय-समय पर उत्पन्न होतीं, रोगों के रूप में परिलक्षित होती हैं, वे अपने आप पर संतुलन स्थापित करने की चेतावनी मात्र हैं, रोग नहीं। चेतावनी पर ध्यान देकर रोगों को अप्राकृतिक रूप से दबाने का प्रयास और जटिलताओं को जन्म देता एवं अनेकानेक व्याधियों के रूप में सामने आता है। भावना तंत्र का श्रद्धा-समर्पण द्वारा अभिसिंचन करते रहने से जड़े कभी सूखने नहीं पाती। भावनाओं की उत्कृष्टता हर दृष्टि से जीवन में जरूरी है। सतत् आत्मावलोकन मनुष्य को अपना मूल्यांकन करने में मदद करती है व यही निष्कर्ष उसे समझाता है कि बिना सरस भावसंवेदनाओं के न व्यक्ति का स्वस्थ, जीवनी शक्ति मनोबल सम्पन्न रह पाना संभव है, न ही उसके जीवन की इसमें सार्थकता है। आवश्यकता है कि अन्तःकरण का उपचार किये जाने की महत्ता प्रतिपादित कर जनमानस को समझा जाय कि सरस उदात्त भावनाओं की गंगोत्री कभी सूखने न पाए।


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