अन्तर्ज्योति को प्रदीप्त रखें!

November 1988

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रात्रि में ‘टार्च’ का प्रकाश जितने क्षेत्र पर पड़ता है, उतना ही वह प्रकाशित हो उठता है। जहाँ वह रोशनी नहीं पड़ती, वह प्रकाश क्षेत्र के अति समीप होते हुए भी अंधकारमय बना रहता है। अंधेरे में भी अनेक वस्तुएं रखी होती है, पर प्रकाश क्षेत्र की तरह दृष्टिगोचर नहीं होतीं। प्रकाश क्षेत्र की वस्तुओं का उपयोग कर सकना, वहाँ के खतरों से बच सकना संभव होता है, जबकि अंधेरे में रखी वस्तुओं के बारे में सब कुछ अविज्ञात एवं रहस्यमय ही बना रहता है। रात्रि के अंधेरे में अपरिचित क्षेत्र डरावने लगते हैं, जबकि प्रकाश क्षेत्र में निर्भयता और निश्चिन्तता पूर्वक कहीं भी विचरण किया जा सकता है। प्रकाश के कारण दिन में सभी प्रकार के कार्य होते रहते हैं, पर रात के अंधेरे में सोते रहने या निरर्थक बैठे रहने की ही बात बनती है। तेज रोशनी में कुछ करना तो एक अपवाद है। उसमें भी श्रेय तो प्रकाश का ही माना जायेगा।

तत्वज्ञान की दृष्टि से प्रकाश का अर्थ है-प्रखर आत्म-चेतना। उसका ‘प्रकाश पुँज’ जहाँ भी पड़ता है, वही सुन्दर और प्रिय लगने लगता है। क्या सुन्दर और क्या कुरूप है? इसका निर्धारण नहीं हो सकता। अपनी दृष्टि और पसन्दगी के आधार पर ही सुन्दरता-असुन्दरता का निर्णय होता है। कौन प्रिय, कौन अप्रिय है? यह भी अपनी ही मान्यता पर निर्भर है आज जो प्रिय है, वह कल अप्रिय लगने लग सकता है। मात्र व्यवहार की प्रतिक्रिया ही मित्रता को उपेक्षा या शत्रुता में बदल देती है। इस परिवर्तन के मूल में सामने वाले का व्यक्तित्व नहीं अपनी मान्यताओं की हेरा-फेरी ही प्रमुख है। भले ही वह किसी भी कारण उत्पन्न हुई हों।

लोक व्यवहार में साँसारिक परिस्थितियों में जो खिन्नता एवं प्रसन्नता उभरती है उसमें जड़-पदार्थों की उतनी भूमिका नहीं जितनी आत्म-चेतना से उत्पन्न होते रहने वाले प्रकाश की है। वह पाषाण पर जा जमे तो उसमें से भगवान प्रकट हो सकते है। सामान्य परिस्थितियों में ही स्वर्गोपम अनुभूतियाँ हो सकती है। वस्तुतः आत्म-प्रकाश की गरिमा ज्योतिर्मय सूर्य से किसी भी प्रकार कम नहीं है।


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