सुपात्र कौन?

November 1988

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“इसमें मन्त्रणा की क्या आवश्यकता महाराज! महामन्त्री बोधायन ने काँची नरेश देवमित्र से नीति स्पष्ट की-राज-परम्परा के अनुसार ज्येष्ठ राजकुमार को ही आपके बाद राजगद्दी का उत्तराधिकारी होना चाहिये।”

“सो तो ठीक है महामन्त्री किंतु हर परम्परा विवेक की कसौटी पर खरी सिद्ध हो यह आवश्यक नहीं। शास्त्र यह भी तो कहता है कि देशकाल और परिस्थितियों के अनुसार परम्पराओं को बदलते और उन्हें बुद्धि संगत स्वरूप देते रहना चाहिये, सत्ता हर किसी को नहीं सौंपी जा सकती।”

तत्पश्चात् सम्राट देवमित्र और महामन्त्री बोधायन मन्त्रणा करने लगे। देर तक विचार-विमर्श हुआ। दूसरे दिन प्रातःकाल होने के साथ ही ज्येष्ठ राजकुमार सुरेश को बिना राज्याभिषेक के ही राजगद्दी सौंप दी गई। प्रजा चकित थी न कोई उत्सव न अभिशेष यह कैसा राज्याभिषेक? किन्तु महाराज के निर्णय को कौन टाल सकता था? अभी राजगद्दी धारण किये हुए कुल पाँच घण्टे ही हुये थे कि एक ग्रामीण ने आकर दुहाई दी--”महाराज न्याय कीजिये, आज स्वयं राजमाता ने हम गरीबों के झोंपड़े जलवा दिये। पहले ही दिन यह अन्याय। महाराज न्याय कीजिये।”

सुरेश ने पूरी बात सुनी तो, किन्तु उन्होंने वृद्ध ग्रामीण को न्याय देने की अपेक्षा डाँट लगाई और कहा-”दुष्ट! राजमाता के खिलाफ फिर कुछ कहा तो तेरी खाल उधेड़ दी जायेगी।” ग्रामीण सहम गया और चुपचाप घर वापस लौट आया। यह समाचार राज्य में फैला हो या नहीं पर दूसरे दिन ही यह खबर फैली कि नीति निर्मात्री परिषद् ने राजकुमार सुरेश को गद्दी से उतार दिया है और उनके स्थान पर मझले राजकुमार विरथ को राज्यासीन किया गया है। लोग इन आकस्मिक परिवर्तनों पर आश्चर्य चकित थे कुछ समझ नहीं पा रहे थे बात क्या है?

दूसरे ही दिन फिर वही स्थिति! कि “महामन्त्री ने और मेरी समस्त कलाकृतियाँ पानी में यह कह कर फिंकवा दी--कि इसमें केवल सम्राट की मूर्तियाँ लग सकती हैं, देवी-देवताओं की नहीं। यह अन्याय है कला का अपमान है राजकुमार! न्याय कीजिये।”

राजकुमार विरथ को महामन्त्री के विरुद्ध अभियोग चलाने का साहस नहीं हुआ पर उन्होंने मूर्तिकार को मूर्तियों का मूल्य चुका दिया और खबर कहीं भी न फैलाने का आदेश देकर वहाँ से भगा दिया।

तीसरे दिन विरथ भी गद्दी से उतार दिये गये। और तीसरे राजकुमार प्रताप गद्दी पर बैठाये गये। उसी दिन एक और पीड़ित ने पुकार लगाई-”महाराज! यह क्या अन्धेर है। जब हमने एक बार राज्य कर अदा कर दिया तो महाराज जो अब राजगद्दी पर भी नहीं है-देवमित्र! डसने हमसे कर क्यों माँगा? न देने पर इन्होंने हमें कोड़ों से क्यों पिटवाया?”

राजकुमार प्रताप तड़प उठे-- “मेरी प्रजा के साथ अन्याय! कोई भी क्यों न हो वह मेरे दण्ड से बच नहीं सकता। सैनिकों जाओ और अपराधी देवमित्र को पकड़ कर कैद में डाल दो। कल सुनवाई होगी!” महामन्त्री बोधायन टोका-- “राजकुमार आप अपने पिता के लिये ऐसा कहते हैं।” प्रताप ने उत्तर दिया-- “शासनाध्यक्ष के समक्ष प्रजा का न्याय बड़ा है पिता नहीं।”

प्रातःकाल सम्राट देवमित्र दरबार में उपस्थित किये गये-- बन्दी की वेशभूषा में-- सारा अभियोग सुनने के बाद प्रताप ने कहा-- “जितने कोड़े इस निर्धन किसान की पीठ पर लगाये गये हैं उतने कोड़े देवमित्र को लगाये जायें।” सैनिकों ने कोड़े बरसाये और राजकुमार देखते रहे। सजा समाप्त होने के साथ ही राजकुमार प्रताप गद्दी से उतर आये और महामंत्री से बोले- “महामन्त्री मुझे अपने ही पिता को दंड देना पड़ा, ऐसा सिंहासन मुझे नहीं चाहिये।”

किन्तु तभी महाराज देवमित्र हँसते हुए आगे आये और बोले “बेटा यह तो उत्तराधिकारी की परीक्षा थी। राज्य के सच्चे अधिकारी तुम्हीं हो।”


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