मानसिक दक्षता सहज ही बढ़ सकती है।

September 1983

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वह बात तो बहुत पुरानी हो गई जब मस्तिष्कीय द्रव्य के आधार पर किसी की बुद्धिमत्ता का मूल्याँकन किया जाता था। यह जाँच पड़ताल होती थी कि किसकी मानसिक संरचना में कोशों और तन्तुओं की कितनी संख्या तथा पेचीदगी है ? यह बात अब उतनी महत्वपूर्ण नहीं रही। विशेषता अब अभ्यास पर निर्भर आँकी गई है। किसी विचारधारा में रुचि पूर्वक निमग्न रहने पर सामान्य बनावट के मस्तिष्क को भी इतना प्रशिक्षित किया जा सकता है कि उसे अपने विषय का विशेषज्ञ होने का अवसर मिल सके। कुछ अपवादों को छोड़कर सभी मस्तिष्क अपने उत्तरदायित्व का सही ढंग से निर्वाह कर सकने में समर्थ है।

मस्तिष्क का बड़ा, भारी या परिपुष्ट होना इस बात का चिन्ह नहीं है कि उतने भर से किसी की बुद्धिमत्ता समुन्नत स्तर की बन जायेगी। इवान, तुर्णनेव, क्रामवेल, ओलिवर, वायरन जैसे मनीषियों के मस्तिष्क शरीर विज्ञान के अनुसार परिपुष्ट पाये गये। किन्तु अलबर्ट आइन्स्टीन का मस्तिष्कीय भार और प्रभाव कम आँका गया था फिर भी उनकी बौद्धिक क्षमता की तुलना अन्य किसी के साथ नहीं की जा सकी। कई वर्षों तक उनका मस्तिष्क सुरक्षित रखा गया ताकि उस पर अध्ययन किया जा सके। लेकिन निष्कर्ष कुछ निकला नहीं स्त्रियों के मस्तिष्क का भार और क्षेत्रफल कम होना है इतने से ही यह नहीं कहा जा सकता कि वे बुद्धिमान नहीं होती।

मस्तिष्कीय संरचना पर ध्यान देते हैं तो उसके दृश्य विभाजन को क्षमता स्तर वर वर्गीकृत करने पर तीन नये विभागों में बाँटा जा सकता है। आदि मस्तिष्क, मध्य मस्तिष्क और वर्तमान मस्तिष्क। आदि मस्तिष्क को जड़ मध्य को तना और वर्तमान को डालियों पत्तियों एवं कलियों के रूप में चित्रित किया जा सकता है। आदि मस्तिष्क वह है जो प्रगति क्रम में अनादि काल से लेकर अब तक की विभिन्न योनियों में संचित की गई जानकारियों आदतों को संजोये रहता है। मध्य मस्तिष्क वह है जिसकी अविज्ञात या अतीन्द्रिय क्षेत्र के रूप में विवेचना की जाती है। वर्तमान मस्तिष्क वह है जो गर्भाधान से लेकर, भ्रूण, शैशव अवधि के आधार पर बनता और विकसित होता है। एक के ऊपर दूसरा, दूसरे के ऊपर तीसरा यह क्रम प्याज की परतों के समान है। इनमें सबसे अधिक सशक्त छोटा होने पर भी आदि मस्तिष्क ही है। इसे जीव समुदाय का प्रतिनिधि भी कहा जा सकता है। वास्तविक व्यक्तित्व इसी केन्द्र में केन्द्रीभूत रहता है।

मानवी मस्तिष्क में सक्रिय घटक जिन्हें ‘नर्व सैल’ कहते हैं। प्रायः 10 अरब पाये जाते हैं जब कि संसार भर में मनुष्य की संख्या लगभग साढ़े चार अरब है। हर नर्वसैल आकार-प्रकार में नगण्य होते हुये भी सामर्थ्य और संरचना की दृष्टि से उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि दृश्यमान एक परिपूर्ण मनुष्य। संसार भर के मनुष्यों को सही रास्ते पर चलाया जा सकते तो विश्व व्यवस्था का स्वरूप इसी धरती पर स्वर्ग से बढ़कर दृष्टिगोचर होने लगे। ठीक इसी प्रकार यदि कोई मनुष्य अपने मस्तिष्कीय घटकों को अनुशासन में रखने और उन्हें मस्तिष्कीय घटकों को अनुशासन में रखने और उन्हें अधिक सुयोग्य सक्षम बनाने में जुट पड़े तो इतने भर से उसे उन्हीं परिस्थितियों में देवतुल्य सुविकसित स्थिति प्राप्त कर सकने का अवसर मिल सकता है।

संसार भर के साढ़े चार सौ करोड़ मनुष्यों के बिखराव और स्वेच्छार को देखते हुए उनका नियमन कठिन है, पर किसी मनस्वी व्यक्ति के लिए यह सरल है कि अपनी मानसिक सम्पदा का महत्व समझे और उसे अधिक प्रखर बनाने तथा सत्प्रयोजनों में लगाये रहने में सफल सिद्ध हो सकें। इस दिशा में प्रयत्नरत मनुष्य को विश्व शासन की व्यवस्था सम्हालने वाले चक्रवर्ती राजा के समतुल्य माना जा सकता है। इतना ही नहीं वरन् उससे अधिक भी। क्योंकि 411 करोड़ मनुष्यों की तुलना में 10 अरब मानसिक घटकों की संख्या ढाई गुनी के लगभग है। जो लगभग इतनी ही बैठती है जितनी कि तथा कथित तीन लोकों की समझी जाती है।

खोपड़ी के घेरे में कैद मानवी मस्तिष्क का भार तो तीन पौण्ड से भी कम है। पर उसमें 10 अरब कोशिकाओं की ऐसी बालू बिखरी पड़ी है जिसकी तुलना किसी गीले रेगिस्तान से की जा सके। मटमैले लिबलिबे इस माँस पिण्ड में कोई विशेषता दिखाई नहीं पड़ती और उसे मुड़े तुड़े दो गोलार्धों में विभाजित देखा जा सकता है। देखने में सामान्य किन्तु विश्लेषण करने पर असामान्य प्रतीत होने वाले इस अवयव की महिमा असीम है। आम व्यवहार में उसका सात प्रतिशत भाग ही काम आता है और शेष निष्क्रिय पड़ा रहता है। यह निष्क्रिय अंश जागृत की तुलना में अत्यधिक रहस्यमय और महत्वपूर्ण है। काम-काजी विभाग को तो शरीर यात्रा के लिए आवश्यक उपार्जन और व्यवहार का तनिक सा काम करना पड़ता है। पर वह प्रसुप्त अंश ऐसा है जिसका जहाँ-तहाँ से छोटा-मोटा विकास भी सम्भव हो सके तो व्यक्ति में ऐसी अगणित क्षमताएँ जग सकती हैं जिसके आधार पर उसे भौतिक क्षेत्र का दैत्य या आत्मिक क्षेत्र का देव कहा जा सके।

मस्तिष्क की विशेषता उसके भार या विस्तार पर निर्भर नहीं होती वरन् इस बात पर निर्भर रहती है कि उसके घटकों की संख्या, सूक्ष्मता एवं ऊर्जा की स्थिति क्या है ? भार दृष्टि से ह्वेल का मस्तिष्क 7000 ग्राम होता है। मनुष्यों में नर का 1400 ग्राम और नारी का 1300 ग्राम के लगभग होता है। इस आधार पर किसी कुशलता या विशिष्टता का मूल्याँकन नहीं किया जा सकता। वह तो सूक्ष्म संरचना पर आधारित है। इस दृष्टि से भी मनुष्य को अतिरिक्त रूप से भाग्यवान कहा जा सकता है कि उसने न केवल अनेक विशेषताओं से भरा पूरा शरीर पाया है वरन् इस स्तर का मस्तिष्क भी उपलब्ध किया है जिसे विश्व सम्पदा का बीजाणु कहा जा सके। और मण्डल की हलचलों को तथा वैभवों का सार संक्षेप परमाणु के छोटे से कलेवर में भरा हुआ है इसी प्रकार विश्व चेतना की समस्त सम्भावनाओं को मानव मस्तिष्क के तनिक से क्षेत्र में केन्द्रीभूत समझा जा सकता है। उसका जागृत भाग भी कम आश्चर्यजनक नहीं, फिर प्रसुप्त की परतें यदि उघाड़ी जा सकते तो उस तिजोरी की बहुमूल्य रत्नराशि की तुलना कुबेर के वैभव से कम नहीं आँकी जा सकती।

संसार में अगणित व्यक्ति विलक्षण मेधावान हुए हैं। कितनों की स्मरण शक्ति आश्चर्यजनक थी। किन्हीं में दूरदर्शिता, प्रतिभा, सूझ-बूझ एवं सम्भावनाओं का सही अनुमान लगा सकने जैसी विशेषताओं का बाहुल्य पाया गया है। ऐसे असाधारण मेधावी लोगों का अपना इतिहास और कीर्तिमान है। कभी ऐसे प्रसंगों को दिव्य वरदान का भाग्योदय जैसे कारण बताकर समाधान किया जाता था अब पर्यवेक्षण ने सिद्ध कर दिया है कि यह मनःक्षेत्र की प्रसुप्ति में जहाँ-तहाँ जागरण होने उभरने भर का चमत्कार है। उस आधार पर मानसिक और शारीरिक क्षमताओं की दृष्टि से वह अपनी स्थिति असामान्य स्तर की बना सकता है। कभी हनुमान का समुद्र छलाँगना, रावण का दश शिर बीस भुजाओं वाला होना-सहस्रार्जुन को हजार भुजा वाला कहा जाना, पौराणिक उपाख्यान समझा जाता रहा होगा किन्तु अब ऐसी विशेषताओं से सम्पन्न होना सम्भव की परिधि में आ गया है। मानवी मस्तिष्क असाधारण रूप से विलक्षण है। उसके रहस्यमय कोष्टक यदि अपना-अपना काम आँशिक रूप से भी करने लगें तो व्यक्तित्व में ऐसी विचित्रताएँ उभर सकती हैं, जिन्हें चमत्कारी ऋद्धि−सिद्धियों में गिना जा सके।

मानसिक क्षमता के अभिवर्धन में तीन तत्व काम करते हैं। एक सात्विक आहार जिससे रक्त में अनावश्यक उत्तेजना उत्पन्न न होने पाये और मस्तिष्क शान्त सौम्य बना रहे। दूसरों उद्विग्नताओं से बचाव, चिन्ताओं एवं मनोविकार से छुटकारा। यदि चिन्तन विधेयात्मक रहे और आवेशों से परहेज रखे तो सीधी सादी, सरल, सन्तोष और सही जिन्दगी आसानी से गुजर सकती है। ऐसी दशा में विक्षोभ रहित मस्तिष्क सही काम को सही ढंग से करते हुए क्रमिक प्रगति करता रहेगा। तीसरा आधार है - प्रशिक्षण। अभ्यास के आधार पर शरीर के किसी भी अवयव को परिपुष्ट किया जा सकता है। फिर मस्तिष्क भी शरीर का एक अंग ही है। उसे अभीष्ट विषय में रस लेने, महत्व समझने, एकाग्र रहने और नियम पूर्वक और अभ्यास करने से किसी की भी प्रतिभा अभीष्ट क्षेत्र में बिखर सकती है।

अपना या दूसरों का मस्तिष्क दुर्बल है, ऐसी हीन भावना किसी के भी मन पर सवार नहीं होने देनी चाहिए। जब पशु पक्षियों को सिखाने वाले उन्हें मनुष्यों जैसी समझदारी का परिचय देने के लिए सधा लेते हैं तो कोई कारण नहीं कि अपना या दूसरों का मस्तिष्क प्रयत्नपूर्वक अधिक विकसित न किया जा सके। इस दिशा में अब तो मानवी प्रयासों के साथ-साथ कम्प्यूटर लर्निंग क्रम भी खूब चल गया है। परन्तु पुरुषार्थपूर्वक अध्यवसाय से कमायी गयी मस्तिष्कीय सम्पदा का महत्व अपने स्थान पर रहेगा।

जापान की प्रयोगशाला में वानरों के अनेकों प्रसंगों में खरे खोटे की पहचान करने और ढेर में से उपयुक्त सामग्री बीन-बीन कर कायदे करीने के साथ रख देने की शिक्षा में प्रवीणता प्राप्त कर सकने जैसा योग्य पाया गया है। प्रयोग यह भी चल रहा है कि क्या वे उन कराये गये अभ्यासों को अपनी भावी पीढ़ियों के लिए भी हस्तान्तरित कर सकते हैं। सम्भावना इस बात की है कि जिस प्रकार वया पक्षी सुन्दर घोंसला बनाने की कला अपनी पीढ़ियों को देता चला आ रहा है, इसी प्रकार उपयोगी जानवरों की प्रशिक्षित बिरादरी भावी सन्तानों में भी उन विशेषताओं को जन्मजात रूप से हस्तान्तरित कर सकेगी।

फ्राँस के महा मनीषी मोन्टेन ने डाल्फिन मछलियों और चिम्पांजी वानरों का उदाहरण देते हुए कहा है कि उनकी प्रकृति मनुष्य से बहुत कुछ मिलती जुलती है। इसका कारण वर्तमान वातावरण नहीं वरन् उसके विकास क्रम का इतिहास है जो मानवी विकास क्रम की दिशाधारा में कितने कदम साथ-साथ मिलाते हुए आगे बढ़ा है, उन्हें मनुष्य जैसा उच्चारण तो नहीं सिखाया जा सका पर भी, मूक बधिकों जैसी साँकेतिक भाषा को समझते और उससे प्रभावित होते, प्रत्युत्तर देते, तथा अपनी ओर से तद्नुरूप प्रयोग करते देखे गये हैं। अमेरिका के जन्तु शिक्षण केन्द्रों में लूसी, लाना, वाशू जैसे कितने ही चिंपांजी है जो 200 से भी अधिक शब्दों का अर्थ समझते हैं। तद्नुसार उनने अपनी पुरानी आदतों को बदला है और नये निर्देशन के अनुसार काम करना आरम्भ किया है।

मानसिक विकास की यदि उपयोगिता समझी जा सके और उसे नशेबाजी की कामुकता, उत्तेजना, उदासी उपेक्षा आदि दुर्व्यसनों से नष्ट न किया जाय तो अपने की तथा दूसरों की अपेक्षाकृत अधिकाधिक बुद्धिमान बनाते चलने में किसी को कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। विशेषकर इसलिए भी कि वे सारी सम्भावनाएँ विद्यमान है, अनेकों उदाहरण सामने हैं। मनः दक्षता बढ़ाते चलना पूरी तरह से मानव के हाथ में है। इसकी फल श्रुतियाँ अपरिमित हैं।


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