अपनों से अपनी बात - युग समस्याओं का निराकरण अब जनता के सुप्रीम कोर्ट में होगा।

September 1983

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कभी धर्म तन्त्र लोक चेतना को सम्भालता था और अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप मनःस्थिति और परिस्थिति में उत्कृष्टता भरे रहने में पूरी तरह समर्थ रहा।

समय ने पलटा खाया आज व्यक्ति और समाज के भाग्य निर्धारण की क्षमता शासन के हाथों चली गई है। निहित स्वार्थों के हाथों पड़ने के कारण धर्म अब भ्रांतियों और विकृतियों का भण्डार बन गया है। पथ भ्रष्ट को पदच्युत होना ही था, सो वह हुआ भी है। अब भावुकता का शोषण करके अपने को जोंक की तरह जीवित रहने के अतिरिक्त और कुछ उससे बन भी नहीं पड़ रहा है। सामयिक समस्याओं के समाधान में उससे कुछ सहयोग मिलने की आशा रह नहीं गई है। खर्चीले खण्डहरों की रक्षा को ही इन दिनों एक शब्द में धर्म रक्षा कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी।

यह सब प्रस्तुत उन समस्याओं और विपत्तियों के संदर्भ में कहा जा रहा है जो आज व्यक्ति को वितृष्णाओं और समाज को सर्वनाशी विभीषिकाओं के मुँह में घसीटे लिये जा रही है । प्रश्न एक ही है उनके समाधान में किन का आश्रय टटोला जाये । कभी समय था जब इसके लिये समय धर्मतंत्र को उकसाया -उभारा जा सकता था। पर अब उस क्षेत्र में कबाड़खाने का ऐसा ढेर ही शेष रह गया है जिसे नये सिरे से गलाने के ढालने के उपरान्त ही किसी प्रकार की आशा अपेक्षा की जा सके । आज तो शासन तन्त्र ही प्रबल है। जहाँ उसने प्रगति का श्रेय ओढ़ा है, वहाँ समस्याओं को उत्पन्न करने और बढ़ाने की जिम्मेदारी भी उसी के कन्धे पर लदती है।

इन पंक्तियों में किसी देश, धर्म, क्षेत्र,वर्ग भाषा के खण्ड भागों में विचार नहीं किया जा रहा है वरन् बदले हुए समय में विश्व को एक इकाई मानकर कुछ सोचा और कहा जा सकता है। अब दुनिया इतनी छोटी हो गयी है कि 500 करोड़ मनुष्यों का एक परिवार मानकर ही किसी समस्या का समाधान सोचा जा सकता है । देश विशेष के सुधारों का सीमित एक सामयिक परिणाम ही हो सकता है। धर्म के पतन पराभव की चर्चा भी समस्त विश्व की स्थिति की स्थिति का पर्यवेक्षण करते हुए की गई है। उस क्षेत्र पर न्यूनाधिक मात्रा में विश्व जनता को प्रायः उतना ही समय और धर्म खर्चना पड़ता है, जितना कि शासनतन्त्र पर। ऐसी दशा में प्रतिफल की अपेक्षा भी सहज ही की जा सकती है कि इतना पोषण करने वाली विशालकाय तन्त्र, व्यक्ति और समाज आदर्शवादिता बनाये रहने-इस दिशा में बरती गई उपेक्षा से उत्पन्न हुई सड़न को हटाने के लिये कोई कारगर कदम उठाये। समर्थ होते हुए भी जो प्रमाद बरतते हैं क्षमता का दुरुपयोग करते हैं। उन पर क्रोध उबलना स्वाभाविक है। धर्म के प्रति नहीं प्रस्तुत धर्म तंत्र के द्वारा बरती जा रही विडम्बना के प्रति यहाँ आक्रोश व्यक्त किया जा रहा है ।

दूसरा नम्बर राजतन्त्र का आता है। यदि उसकी स्थिति सही रही तो राजा अश्वपति, जनक, राम, आदि के शासनकाल जैसी सुख शाँति से भरी पूरी - सतयुगी स्थिति रही होती आज की समस्याओं में से तीन चौथाई का निराकरण हो गया होता। विश्व के राजनेता अणुयुद्ध में लगने वाली बुद्धि एवं संपदा का उपयोग सृजनात्मक प्रयोजनों में कर सके होते तो आज कहीं भी बेकारी, बीमारी, अशिक्षा का अता पता भी न मिलता। थोड़ी कठोरता बढ़ा देने भर से अपराधों का पहाड़ फूँक मारने भर से उड़ जाने जितना हल्का हो गया होता। नशेबाजी जैसे कुटेबों में विपुल धनराशि खर्च होती है, स्वास्थ्य और सदाचार की जो भारी क्षति होती है, उसकी रोकथाम शासन सता न कर सके ऐसी बात नहीं है। अन्य विषों की तरह नशे का उत्पादन, विक्रय एवं सेवन प्रतिबंधित किया जा सकता है।

सरकारें चाहें तो साहित्य एवं कला के क्षेत्र में बढ़ते जाने वाले अनाचार, स्वेच्छाचार पर अंकुश लगा सकती है । अश्लील साहित्य पर जो हल्का सा अंकुश है उसे कड़ा भी किया जा सकता है और उसका दायरा भी बढ़ सकता है। पशु प्रवृत्तियों को भड़काने -दुष्टता और भ्रष्टता को को प्रश्रय, प्रोत्साहन देने वाले साहित्य, संगीत, चित्र, अभिनय को निषिद्ध नियन्त्रित किया जा सकता है । यदि ऐसा बन पड़े तो चिन्तन एवं चरित्र में निरन्तर बढ़ती चली जाने वाली गिरावट में आश्चर्यजनक कमी हो सकती है । समर्थ शासन के लिये इन सुधारवादी कदमों को उठाने में कोई अड़चन नहीं होनी चाहिये जिनके निहित स्वार्थों में बाधा पड़ती है। उनकी चिल्लियों को भवें तरेरते ही ठंडा किया जा सकता है।

युद्ध अनिवार्य नहीं है। झंझटों को विश्व अदालतों के द्वारा भी निपटाया जा सकता है । एक राष्ट्र, एक भाषा, एक संस्कृति, एक व्यवस्था की दिशा में यदि विश्व विश्व के शासनाध्यक्ष ईमानदारी से सोचें तो और मिलजुलकर हल निकालें तो कोई कारण नहीं कि दूरदर्शी सद्भावना अपनाते ही विश्व विनाश की प्रस्तुत विभीषिकाओं का हल निकाल सकें । ठीक इसी के समान दूसरी समस्या है-उत्पादन का केन्द्रीकरण। बड़े कारखाने स्वचालित यन्त्रों की सहायता से इतना उत्पादन करते हैं जिनके लिये अन्यत्र मण्डियाँ तलाशने के लिए कुचक्री कूटनीति अपनानी पड़ती है। बड़े शहरों में घिचपिच बढ़ती है और देहात उजड़ते हैं। प्रदूषण पर्यावरण की विभीषिका वर्तमान उद्योग को प्रमुखता मिल सके और विशालकाय कारखाने का विकेन्द्रीकरण हो सके तो वायु जल में निरन्तर विष घोलने की प्रक्रिया भी रुक सकती है। साथ ही हर हाथ को, काम मिलने से अर्थ संकट भी दूर हो सकता है।

आत्म-हत्या पर सरकारी अंकुश है। अग्नेयास्त्र रखने पर भी रोकथाम है। कोई अपने घर में आग लगाने के लिए स्वतन्त्र नहीं है। इसी प्रकार अवाँछनीय प्रजनन के लिए भी हर गृहस्थ को बाधित किया जा सकता है। व्यापक और भयावह बुराइयों की रोकथाम के लिए तानाशाही अनिवार्य नहीं प्रजातन्त्र के अंतर्गत भी ऐसे उपयोगी अनुशासन भली प्रकार लग सकते हैं। विग्रह और विभाजन पर उतारू-अपराधी व्यवसायों के संचालक और तस्करों और दस्युओं की तरह ही अवाँछनीय ठहराये जा सके तो प्रबुद्ध जनता का खुला समर्थन मिलेगा। मौलिक अधिकारों की दुहाई देकर दुष्टता अपनाने की छूट मिलती रहे तो समझना चाहिए कि शासनतन्त्र ने अपने मौलिक उत्तरदायित्व से वचने की बहानेबाजी अपना ली। शासन की सुरक्षा और समृद्धि की तरह ही अनौचित्य के उन्मूलन और सत्प्रचलनों के अभिवर्धन को भी अपनी प्रमुख जिम्मेदारियों में सम्मिलित रखना चाहिए। इसके लिए कानून और संविधान में भी सुधार परिवर्तन अभीष्ट हो तो किया जना चाहिए।

धर्मतन्त्र और शासन तन्त्र की समय शक्तियाँ इन दिनों व्यक्ति और समाज के सम्मुख प्रस्तुत समस्याओं के समाधान में इतनी तत्परता के साथ संलग्न नहीं हो रही हैं, जितना कि उन्हें होना चाहिए। विश्व संकट के निराकरण का एक ही उपाय है-लोक मानस की उत्कृष्टता में अभिवर्धन और लोक प्रचलन में आदर्शवादिता का समावेश। इन दोनों कार्यों में धर्मतन्त्र और राजतन्त्र जितनी तो नहीं पर न्यूनाधिक मात्रा में श्रीमतों, मनीषियों तथा कलाकारों की भी जिम्मेदारी है। वे चाहे तो अपनी प्रतिभा और सम्पदा का उपयोग प्रवाह को, अवाँछनीयता की दिशा में मोड़कर सत्परम्पराओं में से सुरक्षा, प्रतिष्ठा एवं प्रगति में लगाकर बहुत कुछ कर सकते हैं। पर लगता है कि धर्मतन्त्र और राजतन्त्र के सूर्यचन्द्रों को धूमिल कर देने वाले कुहासे में इन तारागणों ने भी चमकने का झंझट उठाने से मुँह मोड़ लिया है। लालच के आकर्षण में कला भी वेश्या बन चली और मनीषा ने वैभव की रखैल बनकर रहना अंगीकार कर लिया है ।

गाँधी समर्थक विवेकानन्द, दयानन्द की पीढ़ियां समाप्त होती जा रही है। बुद्ध जैसे संव्याप्त अनौचित्य से एकाकी लड़ पड़ने वाले साहसी भी नहीं रहे। अशोक मान्धाता और भामाशाहों की तरह लोक मंगल की सामयिक आवश्यकताओं को परखने और उनके लिये उत्सर्ग करने वाले भी नहीं दीख नहीं पड़ते । तिलक जैसी लेखनी और मालवीय जी जैसी वाणी ने भी अब कौंधना बन्द कर दिया है । बड़े आदमी उद्विजन की तरह बढ़ते जा रहें है ? पर महामानवों का समुदाय वंश नाश जैसी विपन्नता में फंसता जा रहा है । सुधार के नाम पर उचकने मचकने वाले बबूले तो आये दिन उठते-बैठते और कौतुक - कौतूहल भर उत्पन्न करके तिरोहित होते रहते हैं। ऐसी निराशाजनक और भयाक्रान्त परिस्थितियों में आखिर क्या किया जाये ? किसके पास जाया जाय ? किसका दरवाजा खटखटाया जाय और किसका पल्ला पकड़ा जाय ?

मानवी गरिमा ने अपनी सुरक्षा की माँग समर्थों के दरबार में बलपूर्वक करने में कुछ उठा नहीं रखा है । डर लगता है वह अपना मुकदमा निचली सभी अदालतों में हार गयी है । द्रौपदी का समर्थन करने के लिये कौरव सभा का कोई बलिष्ठ सभासद भी तैयार नहीं हुआ था। औचित्य अनौचित्य का अन्तर समझने वाले भी झंझट में न पड़ने की नीति अपना कर गरदन झुकाये बैठे थे । अन्तिम पुकार सृष्टा तक पहुँची और वे ही लाज बचाने वाले वस्त्र लेकर दौड़े आज भी प्रायः ऐसी ही स्थिति है। धर्म, शासन, मनीषा, कला और सम्पदा के महारथी चाहते तो मिल-जुलकर विश्व-विभीषिका से निपटने का कोई रास्ता निकाल सकते थे, पर वैसा कुछ बनते दीख नहीं रहा है ।

ऐसी दशा में मानवी गरिमा ने जनता के सुप्रीम कोर्ट में अपनी फरियाद पहुँचाने का निश्चय किया है। छोटी अदालतें प्रमाद या पक्षपात बरतें पर जनता के सुप्रीम कोर्ट से न्याय मिलने की उसे अभी भी आशा है । इसलिये नया निश्चय यही हुआ है कि लोक चेतना को अनौचित्य के प्रतिकार और औचित्य के सहकार हेतु सहमत सान्निध्य किया जाय।

जब शक्ति ने ही संसार के महत्वपूर्ण फैसले किये है। राजतन्त्र के स्थान पर जनतन्त्र की स्थापना उसी की मर्जी से हुई है। दास प्रथा, सती प्रथा, पर्दा प्रथा, बहु विवाह, जागीरदारी, जमींदारी जैसी अनेकों कुप्रथाएं उसी के तेवर बदलने से उड़नछू हो गई। अनेकों राज क्रान्तियाँ उसी के इशारे पर हुई है । फिर कोई कारण नहीं की प्रबुद्ध लोक मानस प्रस्तुत विपन्नताओं का निराकरण न कर सकें ।

प्रज्ञा अभिज्ञान में मानवी गरिमा को वकालत करने का उसका मुकदमा जनता के सुप्रीम कोर्ट में लड़ने का निश्चय किया है । इसके लिये आवश्यक तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण, संग्रह किये है और सहसिद्ध करने का निश्चय किया है कि जन शक्ति की तुलना में प्रस्तुत विनाश विभीषिकाओं का घटाटोप भयंकर होते हुए हुए भी तुच्छ है । पवन में तेजी से गरजने वाली घटाओं को उड़ाकर कहीं से कहीं बिखेर देती है, तो कोई कारण नहीं कि जागृत लोक-मानस प्रभातकालीन - अरुणोदय की भूमिका न निभा सके और अकेले ही संव्याप्त अन्धकार के पैर न उखाड़ सके।

जन शक्ति का एक छोटा अंश जिस तिस प्रकार उपलब्ध करके ही धर्म, शासन, कला, मनीषा, सम्पन्नता के क्षेत्र में अपनी हलचलें जीवित रखे हुये है। इसके अतिरिक्त भी जनता के पास और भी बहुत कुछ बच जाता है । भले ही वह आर्थिक और बौद्धिक क्षेत्र में दुर्बल पड़ती है तो भी उसके रुझान में - तेवर में - इतना बल विद्यमान है कि उलटी परिस्थितियों को उलटकर सीधा कर सकें। जनमत को आज की द्रौपदी का कृष्ण कहा जा सकता है। युग चेतना ने अपनी फरियाद अब इसी सुप्रीम कोर्ट में पहुँचाने का निश्चय किया है। जिसका विस्तृत विवरण पाठकों को आगामी अंकों में समय-समय पर मिलता रहेगा।


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