निन्दा से विचलित न हों उसे महत्त्व न दें

September 1983

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समीक्षा एक बात है ओर निन्दा दूसरी। समीक्षा हित कामना से व्यक्ति के सामने की जाती है। उसमें दोष और गुण दोनों का वर्णन किया जाता है। साथ ही गुणों को बढ़ाने और दोषों को एक बारंगी तथा धीरे-धीरे छोड़ने के लिए कहा जाता है। निन्दा में केवल दोष ही दोष होते हैं। वे पीठ पीछे कहे जाते हैं। उसमें गिराने और बदनाम करने का भाव होता है। यदि किसी के गुप्त रहस्य तुम्हें विदित हैं तो उसे अकारण प्रकट न किया जाय। इससे उसका सम्मान घटता ही है, साथ ही अपना विश्वास भी चला जायेगा। फिर कोई भी अपने रहस्यों से अवगत न होने देगा और समझेगा कि जिस प्रकार दूसरों का रहस्य अपने सामने कहा जा रहा है उसी प्रकार औरों के सामने अपनी बात प्रकट करने से भी न चूकेगा। अकारण जिस-तिस के हेय चर्चा करते-फिरने वाले निन्दक कहे जाते हैं और दूसरों को बदनाम करने के स्थान पर स्वयं बदनाम होते हैं।

जब हम दूसरों की हानि करते हैं तो उलटकर सामने वाला भी बदला लेता है। मान-हानि भी धन हानि की ही तरह है। उसे करने वाले अपनी प्रतिष्ठा भी अक्षुण्ण नहीं रख सकते। उलटकर उन पर भी बार होता है। संसार में कोई व्यक्ति ऐसा नहीं जिसमें समस्त गुण ही गुण हों। दोषों से सर्वथा रहित तो केवल परमात्मा ही है। गन्दगी को दबाने में ही लाभ है। उसे छितराया जाता है उतना ही वातावरण बिगड़ता है। दोषों के सुधार का यह तरीका नहीं है कि किसी को बदनाम किया जाय। विरोध और संघर्ष तभी किया जाना चाहिए जब किसी की अनीति सार्वजनिक हित के विरुद्ध पड़ती हो या किसी को सताने के लिए कटिबद्ध हो रही हो।

कुत्ते भौंकते रहते हैं और हाथी अपनी राह चला जाता है। मन्दिर के शिखर पर चील कौए बैठते और बाट करते देखे गये हैं। इस प्रकार किसी की महानता न घटती है, न गिरती है। व्यक्ति की अपनी बुराइयाँ ही उसे गिराने का कारण बन सकती हैं। दूसरों की बकवास से यह सम्भव नहीं कि कोई ऊँचा उठे या नीचा गिरे। निन्दा सुनकर असन्तुलित एवं अप्रसन्न होने वाले के सम्बन्ध में समझा जाता है कि चोर की दाढ़ी में तिनका है। इसके विपरीत यदि कोई उस पर कान नहीं धरता है या हँसकर टाल देता है तो समझा यह जाता है कि चट्टान इतनी मजबूत है कि उस पर पानी की बूँदों का असर नहीं पड़ा।

हर व्यक्ति का अपना-अपना दृष्टिकोण एवं स्वभाव है। दूसरों के बारे में कोई अपना कुछ भी अभिमत बना सकता है। जीभ अपनी है, किसी को कुछ भी कहने की छूट है। किस-किस को रोका और किस-किस को समझाया जाय। कितनों का समाधान किया जाय और कितनों के साथ मिथ्या आक्षेप के लिए लड़ा-झगड़ा जाय। अच्छा यही है कि उथले लोगों द्वारा कहे गये भले-बुरे पर ध्यान न दिया जाय। जितना समय प्रतिवाद में लगाया जाता है उतना यदि अपने को अधिक सतर्क रखने और मनोबल और भी अधिक बढ़ाने में लगाया जाय तो फिर अपनी स्थिति ही इतनी मजबूत हो जायेगी जिसमें निन्दा और स्तुति करने वाले निराश वापस लौटने लगें। स्मरण रहे निन्दक जहाँ हानि पहुंचाने के फेर में रहते हैं। वहाँ प्रशंसकों में से भी अधिकाँश की प्रकृति किसी का गर्व फुलाने और बदले में अनुचित लाभ उठाने की होती है। अतएव सतर्क दोनों से ही रहना चाहिए। सतर्कता का अर्थ यहाँ उपेक्षा भी समझा जा सकता है। चाहे कोई हिमालय के समान स्वच्छ क्यों न हो पर उस पर ऊँचा शिर उठाकर रहने और कठोर घमण्डी होने का दोष लगेगा। चाहे कोई समुद्र के समान महान क्यों न हो, पर उस पर खारी होने का कलंक लगेगा। मनुष्यों के सोचने का तरीका कुछ है ही ऐसा कि वे अपने तराजू से सबको तोलते हैं। क्षुद्रजनों के लिए इस संसार में महानता है ही नहीं। काला चश्मा पहन लेने पर हर वस्तु काली दिखती है। किसी को किसी रंग का चश्मा पहनने से किसी प्रकार रोका जाय ?


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