महामरण की एक व्यापक तैयारी

September 1983

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

पृथ्वी, जल एवं वायु के अगणित अनुदानों से भूलोक पर जीवन गतिशील है। सौर मण्डल के अन्यान्य ग्रहों का भी इसमें महत्वपूर्ण सहयोग हैं। उनके अनुदान न मिलें तो मनुष्य का पुरुषार्थ भी कुछ काम न कर सकेगा और असमय मरने की स्थिति आ जायेगी। मनुष्य ने जो कुछ भी भौतिक क्षेत्र में उपलब्ध किया है उसमें उसके स्वयं के पुरुषार्थ का कम, प्रकृति की अनुकूलता का अधिक योगदान है, पर ऐसा लगता है कि मानव उस सत्य को भुला बैठा है कि सन्तुलन की हालत में ही प्रकृति से लाभ उठाया जा सकता है। प्रगति की अन्धी दौड़ से समस्त वातावरण ही विषाक्त हो उठा है, प्रकृति चक्र का असन्तुलन बढ़ता जा रहा है। बढ़ती विषाक्तता से वायुमण्डल की पोषक विशेषता समाप्त होती जा रही है। अगणित प्रकार के संकट उभर रहे है।

पृथ्वी के वायुमण्डल में 21 प्रतिशत आक्सीजन तथा .032 प्रतिशत कार्बनडाइ आक्साइड की मात्रा का सन्तुलन माना गया है। यह अनुपात 650 तथा 1 का पड़ता है। पर मनुष्य की अदूरदर्शिता के कारण अब कार्बनडाइ आक्साइड की मात्रा वायुमण्डल में निरन्तर बढ़ती जा रही है। यह सूर्य के प्रकाश तथा विद्यमान विकिरण को अपने में शोषित कर लेती है। पृथ्वी की गर्मी को अन्तरिक्ष में जाने से रोकती है। फलस्वरूप विश्व का तापक्रम निरन्तर बढ़ता जा रहा है। अनुमानतः सारे संसार में वार्षिक ईंधन की खपत में 5 प्रतिशत की वृद्धि होने से आगामी दस वर्षों में विश्व के तापक्रम में 4 डिग्री फारेनहाइट की बढ़ोत्तरी हो जायेगी।

1676 में किये गये एक पर्यवेक्षण के अनुसार अकेले संयुक्त राज्य अमेरिका में 14 करोड़ 70 लाख टन कार्बन मोनोक्साइड, 2 करोड़ 50 लाख टन धूलिकण, 3 करोड़ 40 लाख टन सल्फर डाइआक्साइड, 2 करोड़ 30 लाख टन नाइट्रोजन आक्साइड और 3 करोड़ 50 लाख टन हाइड्रोकार्बन वायुमण्डल में फेंके गये। ये विजातीय विभिन्न माध्यमों से विपुल परिणाम में निकलते हैं। उद्योगों की बाढ़ ने गत, तीन वर्षों में यह स्थिति और भी विकट बनादी है।

कार्बन मोनोक्साइड, सल्फर डायऑक्साइड हाइड्रोकार्बन, नाइट्रोजन आक्साइड, कार्बनडाइ आक्साइड जैसी अनेकों गैसें वायुमण्डल में मिलकर विषाक्तता पैदा करती हैं। कार्बन मोनोक्साइड एक रंगहीन, गंध हीन पर विषैली गैस है जो दहन प्रक्रिया के अंतर्गत ईंधन में कार्बन के पूर्णतः जलने की स्थिति में आक्सीकृत होकर पैदा होती है। सल्फर डायऑक्साइड की उत्पत्ति तेल व कोयला जलाने से होती है। 60 प्रतिशत सल्फर डायऑक्साइड का उत्पादन कोयला जलाने से ही होता है। हाइड्रोकार्बन अधजला अवशिष्ट ईंधन से पैदा होता, ऑटोमोबाल्स इसके प्रमुख स्रोत हैं। इसी प्रकार विषैली गैस नाइट्रोजन ऑक्साइड की उत्पत्ति जीवाश्म ईंधन को अत्यधिक तापमान पर जलाने से होती है। यातायात साधनों तथा भारी उद्योगों से यह पैदा होती है।

कार्बन मोनोक्साइड को एक धीमा विष कहा जाता है, जो शरीर में प्रवेश करके ऊतकों में विद्यमान जीवनदायी आक्सीजन की मात्रा में ह्रास उत्पन्न करती है। इससे शारीरिक शिथिलता तथा मानसिक अवसाद की अनुभूति होती है। स्वस्थ व्यक्ति की भी कार्य क्षमता घट जाती है। मानसिक विक्षोभ के कारण दुर्घटनाग्रस्त होने की सम्भावना बढ़ती है। श्वास तथा स्नायु सम्बन्धी क्रानिक रोगों को बढ़ावा देने में इस गैस की प्रमुख भूमिका होती है।

सल्फर डायऑक्साइड श्वसन तन्त्र को उत्तेजित करता तथा उसके सामान्य क्रम में व्यतिरेक उत्पन्न करता है। नाइट्रोजन आक्साइड रक्त विकारों तथा बच्चों में इन्फ्लुएंजा समान रोग उत्पन्न करता है। प्रमुख बात तो यह है कि इन सभी विषैली गैसों की भूमिका मनोविकारों को जनम देने हेतु जितनी उत्तरदायी है, उतनी पर्यावरण सम्बन्धी अन्य कोई परिस्थिति नहीं।

कुछ विशेषज्ञों का निष्कर्ष है कि सन् 1650 के बाद संसार का तापक्रम घटने लगा है। इसका कारण वे वायुमंडल में बढ़ते कोहरे को बता रहे हैं। बढ़ते इस सघन कुहासे के अनेकों कारण हैं- कार्बनडाइआक्साइड की मात्रा में वृद्धि, कारखानों की चिमनियों से धूम - कोहरे (स्माँग) का बढ़ना, भूगर्भ में आणविक परीक्षण, ईंधन का विपुल परिमाण में दहन आदि।

मौसम विज्ञानियों का मत है कि वायुमण्डल में धूलि कणों तथा एयरोसॉल्स का यदि पचास अरब टन जमाव हो जायेगा। ऐसी हालत में हिमयुग की शुरुआत हो सकती है।

वायु मण्डल के अतिरिक्त भूमण्डल पर विषाक्त रासायनिक तत्वों के मिलते-घुलते रहने से उसकी उर्वरता धीरे-धीरे नष्ट होती जा रही। रासायनिक तत्वों से फैलते प्रदूषण के कारण यूरोप की लगभग चालीस प्रतिशत जमीन अब कृषि योग्य नहीं रही। फ्राँस में एक करोड़ जमीन बर्बाद हो चुकी है। अनुमानतः रेगिस्तान का क्षेत्रफल हर वर्ष संसार में तीस हजार एकड़ बढ़ता जा रहा है। एक और संसार की बढ़ती आबादी के लिए अधिक कृषि योग्य भूमि चाहिए, दूसरी ओर कृषि योग्य भूमि का एक बड़ा भाग प्रदूषण की विषाक्तता के कारण उत्पादन क्षमता गँवाता जा रहा है। ऐसी स्थिति में अन्न का संकट अगले दिनों और भी गम्भीर रूप में प्रस्तुत हो सकता है।

जल स्रोतों की स्वच्छता एवं विशेषता अब नष्ट होती जा रही है। झीलों, नदियों में भी वह विष निरंतर घुलता जा रहा है। अछूते समझे जाने वाले सौंदर्य स्थल उनकी चपेट में आ गये है। पर्यावरण मन्त्रालय के अध्ययन की रिपोर्टानुसार “नैनीताल का प्रख्यात झरना अब पूर्णतः प्रदूषण हो चूका है।” अब तक यह झरना लाखों पर्यटकों के मनोरम केन्द्र के रूप विख्यात था। झरने के जल का अध्ययन करने वाले डा. एस.एम.दास तथा अन्य विशेषज्ञों की आम राय है कि “उसमें कॉपर, कोबाल्ट, शीशा, मैंगनीज, जस्ता सोडियम तथा कैल्शियम जैसे धातुओं का प्राचुर्य है। इसके अतिरिक्त जल में अनेकों विषाक्त रासायनिक तत्व तथा जीवाणु पाये गये हैं। प्रदूषण बढ़ने से झील की अधिकाँश मछलियों की प्रजातियाँ अब दम तोड़ रही हैं। जो जीवित बची हैं, वे विषाक्त हैं।

मछली को आहार रूप में प्रयुक्त करने वालों के लिए नदियों में बढ़ती विषाक्तता के कारण गम्भीर संकट आ खड़ा हुआ है। जापान के क्यूशू द्वीप के पूर्व में ‘मीनीमाता’ नामक एक नगर है। उस नगर में एक विशाल फैक्टरी विनाउल क्लोराइड तथा एसीटिल डी हाइड्रेट नामक रसायनों का निर्माण करती है। कुछ वर्षों पूर्व वहाँ एक भयंकर महामारी फैली। एक जैसी रोग से ग्रसित होकर बहुत से लोग मरने लगे। आरम्भ में रोगी के अंग तथा ओंठ शून्य हो जाते तथा एक सप्ताह बाद स्पर्श बोध की, बोलने, सुनने की क्षमता समाप्त हो जाती थी। नेत्र ज्योति भी कुछ ही दिनों बाद नष्ट हो जाती। गम्भीर यंत्रणा सहते हुए अन्ततः रोगी मृत्यु का शिकार बन जाता। इस अविज्ञात रोग से सैकड़ों व्यक्ति मरे, हजारों रुग्ण होकर अपाहिज बन गये।

कारण की खोजबीन करने पर मालूम हुआ कि “मीनीमाता’ खाड़ी की मछलियाँ फैक्टरी द्वारा फैलाये गये प्रदूषण के कारण विषाक्त हो गयी है। उसमें पारे की मात्रा अत्यधिक पायी गयी। तब से खाड़ी में मछली पकड़ना पूर्णतः निषिद्ध कर दिया गया।

स्वीडन के 40 क्षेत्रों, फिनलैंड के 5 तथा यूनाइटेड स्टेट के 17 राज्यों में मछली पकड़ने को कानूनी जुर्म घोषित कर दिया गया है। ऐसा मछलियों के भीतर बढ़ती विषाक्तता को देखते हुए करना पड़ा है।

लॉस एन्जेल्स के निकट यू.एस.ए. की सबसे बड़ी डी.डी.टी. उत्पादक फैक्टरी है। फैक्टरी से निकले कचरे को निकटवर्ती सान्तामोनिका नामक खाड़ी में वर्षों से बहाया जाता रहा है। विगत वर्षों में कितने ही व्यक्तियों की अकस्मात् मृत्यु हो गयी। उनके शवों का परीक्षण करने पर मालूम हुआ कि डी.डी.टी. विषाक्तता युक्त मछलियाँ खाने के कारण उनकी अकाल मृत्यु हुयी है।

पोलैंड की सबसे बड़ी नदी, जो 664 मील लम्बी है, जिसका जल संचार है जिसका जल संचार क्षेत्र 75022 वर्ग मील है, में इतना अधिक प्रदूषण भर गया है कि उसके तटों पर रहने वालों को विभिन्न रोगों का संकट आ खड़ा हुआ है। खनिज उद्योग तथा कागज उद्योग तथा कागज उद्योग के कारण अपनी सुन्दरता के लिए विख्यात ओन्टोरियो-कनाडा की ‘एकीलेक’ अब अपनी सौंदर्य विशेषता गँवा चुकी है। इसी प्रकार अवकाश मनाने वालों द्वारा प्रयुक्त पैसिफिक समुद्र तट का निकटवर्ती क्षेत्र अब तेजी से मरुस्थल में बदलता जा रहा है।

अपनी सुन्दरता के लिए प्रख्यात टोकियो अब संसार का सबसे अधिक प्रदूषित नगर है। यहाँ सुरक्षा चौकियों पर आक्सीजन के सिलेंडर टंगे रहते हैं ताकि श्वास के लिए शुद्ध वायु की कमी पड़ते ही तैनात सिपाही आक्सीजन ग्रहण कर सकें।

एक सर्वेक्षण अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार लन्दन में चार घण्टे ट्रैफिक की ड्यूटी सम्भालने वाले पुलिस कर्मियों के फेफड़े में इतना विष भर जाता है, मानों उनने 105 सिगरेट पीली हों। लन्दन के सत्तर प्रतिशत विद्यार्थियों की आम शिकायत आँख, नाक एवं गले के रोगों की है। जब टोकियो में लोगों से 1676 के चुनाव में पूछा गया कि आप लोगों को बसे अधिक किस चीज की जरूरत है, तो चारों और से एक ही उत्तर मिला-

“शुद्ध हवा और साफ आकाश की”।

कृषि विज्ञानियों का मत है कि पृथ्वी का लगभग एक तिहाई कृषि क्षेत्र पाँच वर्षों के अन्दर ही बेकार हो जायेगा। प्रभावित होने वाले क्षेत्रों में भारत, पाकिस्तान चीन, पश्चिम एशिया, यू. एस. ए. तथा कनाडा प्रमुख हैं। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी का पाँचवाँ हिस्सा अर्थात् तीन करोड़ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पूर्णतः सूखने की स्थिति में पहुँच गया है। अनुमानतः 2 लाख वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र प्रतिवर्ष कृषि कार्य हेतु अनुपयुक्त होता जा रहा है। इससे 130 अरब रुपयों की फसल के रूप में क्षति हो रही है।

इसका कारण विशेषज्ञ वृक्षों की अन्धाधुन्ध कटाई को मानते हैं। हरीतिमा बादलों को बरसने के लिए आकर्षित करती है। उसके उन्मूलन के कारण पृथ्वी की उर्वरता नष्ट हो रही है। दूसरी ओर वृक्ष पक्ष प्रदूषण रूपी गरल का पान करके वायुमण्डल को दूषित होने से बचाते हैं। उनकी बड़ी संख्या प्रतिवर्ष तम्बाकू रूपी विष के उत्पादन में आहुति स्वरूप दी जा रही है।

एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका 1682 के अनुसार 3 लाख 63 हजार टन तम्बाकू के उत्पादन के लिए भारत में मात्र एक वर्ष में 12 लाख 86 हजार एकड़ भूमि में विद्यमान जंगलों को वृक्ष विहीन कर दिया गया। खेत से काटी गयी तम्बाकू की कच्ची पत्तियों सुखाने के लिए वृक्षों के ईंधन का ताप देना पड़ता है। विशेषज्ञों का मत है कि “1000 सिगरेटों की तम्बाकू पकाने के लिए लगभग 100 टन लकड़ी की जरूरत पड़ती है जो औसतन 2 बड़े पेड़ों से प्राप्त होती है। प्रतिदिन भारत में 27 करोड़ सिगरेटें तथा 44 करोड़ बीड़ियाँ बनती हैं। 500 बीड़ी अथवा सिगरेट के तम्बाकू को पकाने में एक पूरा वृक्ष खप जाता है। प्रतिदिन देश में बनने वाली सिगरेट, बीड़ियों को पकाने के लिए अनुमानतः 12 लाख 20 हजार पेड़ों के ईंधन की जरूरत होगी। यह तो मात्र भारत के आँकड़े हैं। समस्त विश्व में तम्बाकू उत्पादन के लिए प्रतिवर्ष एक बड़े भू-भाग की हरीतिमा नष्ट की जा रही है।

प्रदूषण का विषपान करने वाले पेड़ पादपों के घटने तथा निरन्तर वायुमण्डल में विषाक्तता भरने से अब गम्भीर संकट की स्थिति आ खड़ी हुयी है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि अब से 25 वर्षों बाद सन् 2008 तक वायुमण्डल में बढ़ती कार्बनडाइ आक्साइड गैस की मात्रा के कारण भू-मण्डल का औसत तापक्रम 5 डिग्री सेन्टीग्रेड से भी अधिक बढ़ जायेगा और ऐसी विनाशकारी परिस्थितियाँ पैदा हो जायेंगी जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।

अगणित प्रकार के उभरते संकट इस बात का संकेत देते हैं कि यदि मनुष्य ने अपनी अदूरदर्शिता न छोड़ी तो प्रस्तुत संकट और भी गम्भीर होंगे तथा महाविभीषिका के रूप में प्रस्तुत होकर समस्त मानव जाति को घुट-घुटकर मरने को विवश करेंगे। वस्तुतः यह मनुष्य की स्वयं की आमंत्रित की हुई सामूहिक आत्महत्या होगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118