यज्ञ ऊर्जा एवं मंत्र विद्या का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध

September 1983

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अध्यात्म विज्ञानी मन्त्र विद्या तथा उपकरणों की सुसंस्कारिता के आधार पर सामान्य अग्नि को यज्ञाग्नि के रूप में परिवर्तित करते और उसके उपयोग में शारीरिक और मानसिक रुग्णता की निवृत्ति एवं बलिष्ठता की अभिवृद्धि का महत्वपूर्ण कार्य सम्पादित करते रहे हैं। इसके अतिरिक्त अन्तरिक्षीय संशोधन-परिष्कृतीकरण का और भी महत्वपूर्ण कार्य इस माध्यम के सहारे सम्पन्न किया जाता रहा है। सर्वविदित है कि अन्न जल से भी अधिक महत्वपूर्ण आधार वर्षा है। वह आकाश से प्राप्त होती है। आकाश का सन्तुलन तभी रहता है जब मनुष्य द्वारा छोड़ी गई विषाक्तता को निगलने के लिए हरीतिमा बनी रहे और उसका उत्पादन प्राण वायु के रूप में मनुष्य को मिलता रहे। इस क्रम में असन्तुलन उत्पन्न होने पर आकाश में विषाक्तता बढ़ती है और वह नीचे उतर कर न केवल प्राणियों का स्वास्थ्य बिगाड़ती है वरन् ओस और बादलों के साथ बरस कर जल, अन्न को तपा कर वनस्पतियों को भी स्वत्व हीन, हानिकारक बनाती है। ऐसे आहार, जल का सेवन करने वाले प्राणी दिन-दिन दुर्बल होते जाते हैं। आज ऐसा ही हो भी रहा है। वाहनों यन्त्रों और कारखानों का धुँआ वातावरण में अन्धाधुन्ध गर्मी और विषाक्तता भर रहा है। बढ़ते हुए कोलाहल से भी अन्तरिक्ष का सन्तुलन बिगड़ रहा है। अणु विस्फोट बारूद का अन्धा धुन्ध प्रयोग तथा दूसरे प्रकार का विकिरण स्वास्थ्य एवं हरीतिमा के लिए समान रूप से विनाशकारी सिद्ध हो रहे हैं। इन सबका निराकरण जितनी अच्छी तरह यज्ञीय ऊर्जा की परिशोधन शक्ति से होता रहता है। उतना और किसी प्रकार नहीं। इस प्रकार ने केवल मनुष्य समुदाय को वरन् समूचे वायुमण्डल की रुग्णता की चिकित्सा करने में यज्ञोपचार समर्थ होता है।

शास्त्रों में यज्ञ का एक माहात्म्य अभीष्ट पर्जन्य बरसने की बात में कहा गया है। आमतौर से समझा भी ऐसा ही जाता है कि यज्ञ होते रहें तो अधिक वर्षा होती है। किन्तु वास्तविकता इससे आगे तक ले जाती है। ‘पर्जन्य’ का तात्पर्य वायु भूत प्राणतत्व से है। यह यज्ञ द्वारा उत्पन्न होता है और आकाश में फैलता है। वर्षा के साथ वह नीचे उतरता है तो अपनी पौष्टिकता से जल को जल के माध्यम से अन्न वनस्पति को भर देता है। इसे मनुष्य ओर पशु खाते हैं तो वे भी परिपुष्ट होते हैं। इस प्रकार पर्जन्य समग्र पौष्टिकता के रूप में प्राण प्रखरता के रूप में -वनस्पतियों और प्राणियों के सुविस्तृत संसार को उपलब्ध होता है। यज्ञ विद्या को रहस्यमयी दयालुता, दानशीलता एवं परिमार्थिता इसी कारण कहा गया है कि उसका सत्परिणाम व्यापक रूप से समस्त संसार को बिना किसी भेदभाव के उपलब्ध होता है। जबकि अन्य दान व्यक्ति विशेष को नगण्य सा सामयिक लाभ मात्र दे पाते हैं।

मन्त्र शक्ति अध्यात्म विज्ञान की अद्भुत उपलब्धि है। किन्तु सामान्यतः उसका लाभ साधक की अपनी सीमा तक ही सीमित रहता है। प्रसुप्त शक्तियों को जागरण, मनोनिग्रह, अन्तराल का उदात्तीकरण जैसे लाभ जपकर्ता को ही मिलते हैं क्योंकि उस उपचार की हलचलें प्रयोक्ता के अपने शरीर मस्तिष्क तक ही प्रतिक्रिया उत्पन्न कर पाती हैं। यदि इस प्रयोग को व्यापक बनाना हो अन्यान्यों को भी इसका लाभ देना हो तो उसके साथ विस्तृतीकरण का नया माध्यम संयुक्त करना होगा। मनुष्य के मुँह से हल्की सी आवाज निकलती है। लाउडस्पीकर की बिजली साथ में जुड़ जाने से वह असंख्य गुनी बढ़ जाती है। जिसे मुश्किल से पचास सौ व्यक्ति सुन सकते हैं उसे लाखों भली प्रकार सुन लेते हैं। यह आवाज के साथ विद्युत ऊर्जा के समावेश का चमत्कार है। इसी प्रकार रेडियो स्टेशनों पर लगे ट्रान्समीटर वक्ता की आवाज को क्षण भर में समस्त भूमण्डल में बखेर देते हैं। बेतार के तार की यह पद्धति कितनी अद्भुत है। उसके माध्यम से न केवल शब्द वरन् चित्र भी दूर-दूर तक भेजे जा सकते हैं। टेलीविजन पर यह चमत्कार भली प्रकार देखा जा सकता है।

मन्त्रशक्ति का विस्तृतीकरण करने के लिए एंप्लिफायर-ट्रान्समीटर दोनों का काम यज्ञाग्नि के द्वारा सम्पन्न होता है। परिष्कृत वाणी से उत्पन्न की गई मन्त्र शक्ति को किसी विशेष व्यक्ति या व्यक्तियों के लिये भेजना हो तो मिसाइलों की तरह उसे लक्ष्य तक पहुँचाया जा सकता है। शब्द बेधी बाण इसी को कहते हैं। वह जिस तरकस से छोड़ा जाता है। लक्ष्य बेधने के उपरान्त उसी स्थान पर वापस लौट आता है। ऐसी विशेषताओं वाले धनुष बाण को कहीं नहीं देखें गये किन्तु शब्द विज्ञान की इस विशेषता के सम्बन्ध में वैज्ञानिक आश्वस्त हैं कि समर्थ विचार एवं शब्द ईश्वर के माध्यम से प्रकाश गति से दौड़ते हैं। लक्ष्य वेधन कर अन्ततः शब्दबेधी बाण की तरह प्रयोग करना हो तो यह कार्य उसके साथ यज्ञीय ऊर्जा का समावेश करने से ही सम्भव होता है। यज्ञायोजन में दिव्य अग्नि और मन्त्र शक्ति का समन्वय रहने से ऐसी विशिष्ट ऊर्जा उत्पन्न होती है जो समूचे वातावरण के प्रवाह को प्रभावित कर सकें। फलतः उसका लाभ विपत्ति निवारण एवं समृद्धि संवर्धन के रूप में समस्त संसार को मिल सकता है।

संगीत के ताल एवं लयबद्ध स्वर प्रवाह का प्रवाह परिणाम मनुष्यों की भाव सम्वेदना को तरंगित करने में ही नहीं अन्याय क्षेत्रों में भी आश्चर्यजनक कार्य करता देखा गया है। प्राणियों को एक स्थान पर खींच बुलाना उनकी मनः स्थिति बदल देना, प्रजनन शक्ति बढ़ जाना, जैसे सफल प्रयोग थलचरों, जलचरों, नभचरों पर किये जाते रहे हैं। दुधारू पशुओं का दूध इस माध्यम से काफी बढ़ा है। खूँखारों का स्वभाव नरम किया गया है। इसी प्रकार वनस्पतियाँ संगीत सुनकर जल्दी बढ़ी है। वृक्षों ने अधिक फल दिये हैं। प्राचीन काल से संगीत के ऐसे ही लाभों के सम्बन्ध में कितनी ही किंवदंतियां प्रचलित हैं। बीन की आवाज सुनकर साँप एवं हिरन का मोहित हो जाना मेघ मल्हार से बादल बरसने लगना दीपक राग से बुझे दीपक जल जाना आदि अनेकों बातें सुनने को मिलती रहती है। उन्हें छोड़ भी दिया जाये तो भी आज के युग में संगीत की शक्ति से न केवल भावना लहराने का वरन् अन्य प्रकार के भौतिक लाभों को भी प्राप्त किया जा रहा है। रोग निवारण में संगीत ने ध्वनि ऊर्जा ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करनी आरम्भ कर दी है और लगता है कि अगले दिनों औषधि उपचार, शल्य क्रिया आदि की तरह चिकित्सा प्रयोजनों में एक नया प्रयोग संगीत का भी सम्मिलित हो जायेगा। मानसिक रोगों के निवारण में तो उसका और भी अधिक चमत्कारी परिणाम देखा गया है। यह संगीत कण्ठ और वाद्य यन्त्रों के समन्वित उपयोग से निस्तृत होता है अध्यात्म विज्ञान में यही कार्य अधिक शक्तिशाली रूप से मन्त्र शक्ति एवं यज्ञीय ऊर्जा के संयुक्त उपचार से बन पड़ता है। प्रज्ञा पुरश्चरण में मन्त्रोच्चार की सामूहिक शक्ति एवं अग्निहोत्र का अद्भुत समन्वय है। दोनों का लाभ पाने व बहुलीकरण द्वारा उसे विस्तृत कर देने से मानवता पर छायी विपत्तियों का निवारण सम्भव है। यह तथ्य विज्ञान सम्मत भी है एवं शास्त्र प्रतिपादित भी। हर नैष्ठिक उपासक को इस क्रम को अपनाना ही चाहिए।


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