हृदय में बसते हैं भगवान

September 1983

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

विष्णु भगवान ने लक्ष्मी जी से कहा ‘मनुष्य को बनाये और संसार की सुव्यवस्था का काम सौंपे बहुत दिन हो गये। देखने की इच्छा है कि वह किसी स्थिति में है और क्या कर रहा है। उसे नया मार्गदर्शन देने धरती पर जाने का मन है।

लक्ष्मी जी ने कहा- मनुष्य का बुरा हाल है। उसने कर्त्तव्य को तिलाँजलि दे दी है। लोभ और मोह को छोड़कर और किसी में उसकी रुचि नहीं रहीं। उसके पास जाना व्यर्थ है। सुधरेगा तो है नहीं। उलटे आपको भी जाल में फँसाने का प्रयत्न करेगा। मत जाइए।

विष्णु भगवान अपनी बात पर अड़ गये। लक्ष्मीजी के विरोध का स्वर भी तीखा होता गया। बात का बतंगड़ बना और क्या करना क्या न करना, यह प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया। भगवान ने चलने की तैयारी कर ली। लक्ष्मीजी ने तैश में ताना देते हुए कहा- “मनुष्य को सुधारे बिना लौटना मत।”

धरती पर भगवान का आगमन सुनकर अनेक लोग उनसे मिलने पहुँचे। कर्त्तव्य धर्म की चर्चा कोई सुनने को तैयार न था। सभी एक ही रट लगाये हुये थे। “हमारी मनोकामनाएँ पूरी करो।” भगवान ने बार-बार समझाया - “आप लोगों की आवश्यकताएँ कम हैं और साधन अधिक। फिर निर्वाह में क्या और क्यों कमी पड़नी चाहिए। आप लोग जब साधन सम्पन्न बनाकर भेजे गये हैं, तो लक्ष्य कर्त्तव्य की और ध्यान क्यों नहीं देते ? इस अनुदान को सार्थक क्यों नहीं बनते ?

सभी ने भगवान की बात अनसुनी कर दी और बढ़ी-चढ़ी मनोकामनाएँ पूरी करने का आग्रह करते रहे।

भगवान झल्ला गये और मनुष्य की धूर्त्तता से चिढ़कर कहीं ऐसे स्थान को तलाश करने लगे जहाँ कोई मनुष्य पहुँच न सके। वापस बैकुण्ठ तो जाना नहीं था। लक्ष्मी जी के सामने हेटी जो होती।

छिपने का स्थान उन्हें हिमालय का बद्रीनाथ शिखर देखा, जो चुपके से वहीं खिसक गये। भक्तजनों की चतुरता का क्या कहना। उनने छिपने का स्थान तलाश कर लिया और कठिन रास्ता पार करके भी वहाँ जा पहुँचे। भगवान ने समझा शायद यहाँ भले लोग आते होंगे और ज्ञान ध्यान की चर्चा करेंगे। पर कुछेक से मिलने के बाद ही उन्हें निराशा हो गई। पैसा-बेटा की माँग के अतिरिक्त यहाँ सिद्धि और स्वर्ग की कामना और जुड़ गई। सभी माँगते थे। करने की बात सुनने को कोई तैयार न था। सो खोज हुए भगवान ने वहाँ से भी अन्यत्र जाने का निश्चय किया।

अब की बार वे द्वारिका पहुँचे और समुद्र के बीच एक सुनसान टापू पर रहने लगे। भक्तजनों को न भगवान की परेशानी का ख्याल था न अपनी बेइज्जती का। वे जिस भी कीमत पर पूरा हो सके स्वार्थ सिद्धि के लिए आतुर थे। पता वहाँ का भी लगा लिया और नावों पर सवार होकर भेंट हेतु द्वारिका टापू में जा पहुँचे। रट वही पुरानी। मनोकामना पूर्ति के रूप में हराम की कमाई का भूत सभी पर सवार था।

विष्णु भगवान को चिढ़ अधिकाधिक बढ़ती जा रही थी। वे मनुष्यों से विशेषतया भक्तजनों से सर्वदा के लिये दूर होना चाहते थे। सोचते थे न इन्हें अपना मुँह दिखायें न इनको देखें। पर वैसा स्थान, सूझ नहीं रहा था। इस असमंजस की घड़ी में नारदजी आ पहुँचे। विष्णु ने हैरानी से पूछा -‘देवर्षि ! ऐसा स्था बताइए जहाँ छिपकर रहूँ तो इसी लोक में, पर मनुष्य को पता न चले।”

नारद जी बहुत देर विचार करते रहे। स्थान सूझ पड़ा सो भगवान के कान में कह दिया ताकि किसी अन्य को पता न चले। भगवान सहमत हो गये और उस दिन से आज तक वे वहीं रह रहे हैं लोग जहाँ-तहाँ भटकते फिरते हैं, पर उस स्थान को खोज नहीं पाते। मनुष्यों को ईश्वर खोज-चेष्टा में भटकते देखकर भगवान मुस्कराते और मजा लेते रहते हैं। उसे छिपने के स्थान का नाम है - “मनुष्य का अपना हृदय”, जो उसे सूझ हो नहीं पड़ा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles