मरणं बिन्दु पातेन जीवनं बिन्दु धारणात्

September 1983

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इस सदी की कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक द्वितीय विश्वयुद्ध भी है, जिसमें देखते-देखते विश्व की जानी-मानी महाशक्तियों ने नवोदित शक्ति जर्मन-सत्ता के समक्ष घुटने टेक दिए। विश्व युद्ध पोलैण्ड में भेजे गये जर्मन सैनिकों द्वारा छल से आरम्भ किये गये एक छोटे से छापामार हमले में शुरू हुआ। लेकिन सारे विश्व ने कुछ ही दिनों में सुना कि ‘ग्रेट ब्रिटेन’ के बाद विश्व की सबसे बड़ी शक्ति माने जाने वाला राष्ट्र फ्राँस बिना किसी प्रतिरोध के आत्म समर्पण कर रहा है। यूनाइटेड किंगडम के बाद फ्राँस ही था जिसके उपनिवेश सुदूर पूर्व में दक्षिण एशिया से उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका तक फैले हुए थे। नेपोलियन जिस राष्ट्र में पैदा हुआ- जहाँ की राज्य क्राँति ने विश्व की राजनीति को एक नया मोड़ दे दिया, उनका ऐसा पराभव देखकर आश्चर्य होना स्वाभाविक ही था।

मनीषियों को यह निष्कर्ष निकालने में अधिक समय नहीं लगा कि इसका कारण क्या है ? उन्होंने पाया कि असंयम ने तो जनशक्ति को खोखला बनाया। भोग प्रधान उच्छृंखल जीवन क्रम ने उस राष्ट्र को छूँछ बनाकर रख दिया था। गर्भ धारण के भय से मुक्त विलासी फ्राँसीसियों को परिवार नियोजन के साधन मानो वरदान रूप में मिले थे। शराब की कोई कमी नहीं थी। जो राष्ट्र सारे विश्व की तीन चौथाई महंगी शराब की पूर्ति करता हो, वह स्वयं कैसे उससे अछूता रहता। नैतिक मर्यादाएँ भंग हो जाने से जर्मनी को फ्राँस को पराजित करने में कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा। वस्तुतः भोग विलास की ज्वाला में जल रहे फ्राँस का पतन नहीं किया गया - उसने स्वयं अपने को निर्बल बनाकर आक्रान्ताओं को निमन्त्रण दे दिया था।

भारतीय अध्यात्म का युगों-युगों से यह शिक्षण रहा है कि मनुष्य यदि अदूरदर्शी क्षरण को रोक सके तो उस बचत से इतना बड़ा भण्डार जमा हो सकता है जिसके बलबूते विपुल विभूतियों का अधिपति बन सके। संयम ही यह है। तपाये जाने पर लोहा सोना आदि धातुएँ परिशोधित होती और बहुमूल्य बनती हैं। असंयम की परिणति वही होती है जैसी दुधारू गाय को पालने व टूटे बर्तन में उसका दूध दुहने पर होती है। इससे मनुष्य अपने पूर्व संचित तथा अबकी उपार्जित क्षमताओं को भी गँवा नहीं बैठता, इस दुरुपयोग का दुष्परिणाम भी भोगता है। रीतिकाल के रूप में हमारे देश ने भी मध्यकाल का वह विकृतियों भरा अन्धकार युग देखा व गुलामी भरा जीवन जिया है जैसाकि फ्राँस के विषय में ऊपर वर्णित किया गया। हर राष्ट्र की समर्थता-नागरिकों की प्रखरता इस व्यावहारिक अध्यात्म सिद्धान्त पर निर्भर है जिसे तप संयम, चरित्र निष्ठा, काम का सृजनात्मक स्वरूप जैसे पर्याय दिये गये है।

मेघनाद स्वयं ब्रह्मचारी था। उसे मारने में मात्र वही समर्थ था जो स्वयं चौदह वर्ष ब्रह्मचारी रहा हो। लक्ष्मण जी ने उसी प्रधान अस्त्र को उपलब्ध किया और लम्बी अवधि तक ब्रह्मचर्य निभाया। दशरथ जी का पुत्रेष्टि यज्ञ सम्पन्न कराने में उन दिनों के परम संयमी शृंगी ऋषि ही समर्थ हुए जबकि असंयमी अन्य ऋषि ही समर्थ हुए जबकि असंयमी अन्य ऋषि उस स्तर का मन्त्रोच्चारण करने में सफल नहीं हो सके। अर्जुन को गाण्डीव पुरस्कार उर्वशी प्रकरण में परीक्षा द्वारा ही मिला था। भवानी ने शिवाजी को कभी न चूकने वाली तलवार प्रदान की थी, पर इससे पूर्व उसकी पात्रता एक सुन्दरी को सम्मुख करके जानी गयी थी। खरा सिद्ध न होने पर तो ऐसे वरदानों से सदा वंचित रहना पड़ता है। सत्पात्र की परख करने में देवताओं की प्रधान कसौटी संयमशीलता ही रहती है।

दो सांडों के टकराव को रोकने के लिए ब्रह्मचारी दयानन्द ने उन दोनों के सींग एक हाथ में पकड़ करमरोड़ और धकेल कर दूर पटक दिए थे। अपनी संयम शक्ति के बल पर ही उन्होंने एक राजा की बग्घी रोककर दिखाई थी। प्रसिद्ध पर्वतारोही ने जब गंगा में उसकी दिशा के विपरीत नाव द्वारा गंगा सागर से देव प्रयाग तक यात्रा का दुस्साहस किया तो एक भारतीय योगी ने वाराणसी के समीप उनकी डेढ़ सौ हार्स पावर की नौका को एक पतली रस्सी से बाँधकर रोक दिखाया था। सारा जोर लगाया गया लेकिन नाव अपनी ही जगह धड़धड़ाती रही, आगे नहीं बढ़ सकी। आँखों से पट्टी बाँधकर कुदृष्टि का प्रतिरोध करने वाली गान्धारी ने जब आँख खोलकर अपने पुत्र को देखा तो उसका शरीर लौह बल से मुक्त हो गया। यह संयम की ही शक्ति थी कि इन्हीं आँखों से बरसती आक्रोश भरी चिनगारियों ने भगवान कृष्ण के पैरों पर प्रभाव डाला था। भीष्म, अनुमान शंकराचार्य आदि की विशिष्ट प्रतिभाओं के पीछे उन लोगों का ब्रह्मचर्य संयम ही प्रधान कारण रहा है। ये सारे दृष्टान्त इसी एक तथ्य का प्रतिपादन करते हैं कि अधोगामी प्रवृत्तियां रोककर शक्ति संचय किया जाय तभी ऊर्ध्वगमन- प्रगति पथ पर चल सकना सम्भव है।

इस मार्ग से पथ भ्रष्ट होने पर समर्थों को भी नीचा देखना पड़ा है। अभिमन्यु- उत्तरा संवाद पढ़ने से प्रतीत होता है कि चक्रव्यूह भेदन से एक दिन पूर्व अभिमन्यु अपना ब्रह्मचर्य गँवा बैठा और सन्तानोत्पादन को महत्व दे बैठा। परिणाम स्पष्ट है कि चक्रव्यूह तोड़ने में वह समर्थ न हो सका। यदि वैसा न हुआ होता तो जैसा उसका अनुमान था, वह विजयी होकर ही लौटता। नहुष का तप साधना ने उसे स्वर्गलोक तो दिया, पर अप्सराओं के प्रलोभन को देख उस सम्पदा को देखते-देखते गँवा बैठा और सर्प बनकर दुर्गतिग्रस्त हुआ। ययाति जैसे पुण्यात्मा इसी प्रसंग में अपयश और भर्त्सना के भागी बने। पाण्डु की रुग्णता को देखते हुए चिकित्सकों ने उन्हें ब्रह्मचर्य पूर्वक रहने का कहा था। वह मर्यादा उन्होंने पाली नहीं। फलतः अकाल ही काल के ग्रास बने।

कालजयी महाप्रतापी रावण की दुर्गति का कारण उसका असंयम ही था। अन्याय महाबली असुरों की दुर्गति भी इसी आधार पर हुई। भस्मासुर का पार्वती पर आसक्त हो जाना ही उसके भस्म होने का कारण बना। सुन्द-उपसुन्द एक ही सुन्दरी पर आसक्त होने के कारण लड़ मरे। मनोनिग्रह-लोभ निग्रह-ब्रह्मचर्य का निर्वाह न कर पाना ही असुरों की कठोर तपश्चर्या को दुर्गतिग्रस्त बनाता रहा है। वे लोग यदि संयमी रहे होते, सदाशयता के मार्ग पर चलते तो साहस और कष्ट सहन की दृष्टि से भारी पड़ने के कारण देवताओं से भी वरिष्ठ रहे होते। मर्यादाओं का व्यतिरेक और उपयोग का असंयम ही समर्थों की समर्थता को दुर्गतिग्रस्त बना देता है।

ये सारे उदाहरण आज की परिस्थितियों में पूरी तरह लागू होते हैं। शक्ति ह्रास से सामर्थ्य-बौद्धिक प्रखरता में कमी को भौतिकता की अन्धी दौड़ में द्रुतगति से भाग रहे जापान, जर्मनी, स्वीडन, डेनमार्क जैसे राष्ट्रों ने अब समझा है कि धीरे-धीरे पूरे समाज परिकर का वातावरण बदलने का प्रयास किया है। इन्हीं राष्ट्रों में 1-2 वर्ष पूर्व तक यौन-स्वेच्छाचार, कामवाद पूरी तरह संव्याप्त था। सिंगमंड फ्रायड के सिद्धान्तों ने तो मात्र नींव ही डाली थी पर नियो-फ्रायडिज्म के सिद्धान्तवादियों ने असंयम का उद्घोष करने उसी की जीवन मूल्यों का मूलभूत आधार बनाने का कार्य जोर-शोरों से चालू किया। परिणति आज सबके समक्ष है। कामुकता का रुझान जो कभी फ्राँस को अपने ग्रास में लिया था—सारे विश्व में फैला हुआ है। न्यूड कालोनी बसाई जा रही है, नैतिक मूल्यों को एक ताक पर रखकर उपभोग को ही सब कुछ बताया जा रहा है। यह किसी भी समाज को जर्जर कर देने भर के लिए पर्याप्त है।

दुर्भाग्य की बात तो यह है कि संयम का गुणगान करने वाले- तप साधना के दर्शन को जन्म देने वाले भारत में भी यही प्रचलन आधुनिकता के नाम पर शनैः शनैः फैले रहा है।

अमेरिका में पिछले दिनों एक पुस्तक की काफी चर्चा हुई। “द न्यू सेलीबेसी” अर्थात् नया ब्रह्मचर्य। वहाँ इस किताब का काफी हंगामा है। इस पुस्तक में ब्रह्मचर्य के सिद्धान्तों की आवश्यकता और उन्हें जीवन में उतारने पर तनाव, रोगों से मुक्ति तथा प्रसन्नता की प्राप्ति जैसे प्रकरणों पर चर्चा की गयी है। पश्चिम के एक ऐसे राष्ट्र में जहाँ पिछले दो दशकों में सैक्स के ‘सुखों’ का वर्णन करने वाली पुस्तकों का ही प्रचलन रहा हो, इस पुस्तक की बढ़ती लोकप्रियता ने मनो वैज्ञानिकों को यह सोचने पर विवश किया है कि मनुष्य स्वभाव की दृष्टि से पाशविक वृति प्रधान नहीं, अपितु देवत्व प्रधान है। यदि उसे वातावरण ऊपर उठने का मिलें, वह स्वयं प्रयास करे तो बहुमुखी प्रतिभा का धनी हो सकता है।

काम का यही स्वरूप अभिनन्दनीय है। आत्मिक एवं सर्वांगीण प्रगति के लिये मनोनिग्रह के इस तितीक्षायुक्त पुरुषार्थ को जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अंग मान कर उसे व्यवहार में उतारा ही जाना चाहिए।


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