प्रकृति के गर्भ में निरन्तर स्पन्दन हो रहा है, पर उसमें कुछ ही कर अनुभव मनुष्य अपनी इन्द्रियों अथवा भौतिक यन्त्रों के माध्यम से कर पाता है। मौसमी परिवर्तनों, प्रकृति विपदाओं आदि जैसी मोटी घटनाएँ ही पकड़ में आ पाती हैं। हवा का चलना, बिजली का कड़कना, सूर्य का निकलना, गर्मी, वर्षा तथा शीत ऋतुओं का आना जैसे परिवर्तन प्रत्यक्ष देखें एवं अनुभव किये जा सकते हैं। पर असंख्यों सूक्ष्म घटनाएँ प्रकृति के अन्तराल में निरन्तर घटित हो रही हैं। जिनकी कोई जानकारी मनुष्य को नहीं मिल पाती। विप्लव, भूकम्प भूस्खलन, ज्वालामुखी विस्फोट जैसी प्रकृति विभीषिकाएँ भी अकस्मात प्रस्तुत होती जान पड़ती हैं, पर विशेषज्ञों का मत है कि बहुत समय पूर्व इनकी पृष्ठभूमि बन चुकी होती है। प्रकृति रूपी हाँडी में वे पकती रहतीं तथा अपने समय पर कहर बरसाती प्रकट होती हैं। उनके जन्म लेने व पकने तथा अन्ततः सामने आने की एक क्रमबद्ध प्रक्रिया है जिसकी यथार्थ जानकारी न होने से मनुष्य उनसे अपनी सुरक्षा नहीं कर पाता। इन्द्रियों की बनावट भी कुछ ऐसी है किस उनके अनुभव क्षेत्र में सीमित बातें ही आ पाती हैं। अधिकाँश की जानकारी नहीं मिल पाती।
जिस तत्वों में ब्रह्माण्ड की रचना हुई, उन्हीं से पिण्ड भी बना है। पिण्ड ब्रह्मांड के रूप में वर्णन किया है। दोनों अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। ब्रह्माण्ड में जो भी हलचल होती है, उसका सूक्ष्म प्रभाव पिण्ड सत्ता पर भी पड़ना सुनिश्चित है। पर किन्हीं वाह्य व्यतिरेकों के कारण ब्रह्माण्डीय स्पन्दनों की अनुभूति नहीं हो पाती। किन्हीं-किन्हीं को प्रकृति की हाँडी में पकने वाली घटनाओं का उन सूक्ष्म स्पन्दनों के सहारे पूर्वाभास भी हो जाता है। सामान्य व्यक्तियों की तुलना में उनकी चेतना अधिक सुविकसित तथा इन्द्रियाँ सूक्ष्म अनुभूतियों को ग्रहण करने में अधिक सक्षम होती हैं ऐसे ही व्यक्ति भविष्य वक्ता के रूप में प्रख्यात होते देखे गये हैं। चेतना को विकसित करके प्रकृति घटनाओं की पूर्व जानकारी प्राप्त करने की सामर्थ्य विकसित कर सकना सम्भव है, उसके बीज मानवी सत्ता में विद्यमान हैं, यह एक सत्त में विद्यमान है, यह एक सत्य है।
प्रकृति ने यह क्षमता मनुष्येत्तर जीवों को भी दी है कि वे प्रकृति घटनाओं की पूर्व जानकारी प्राप्त करके अपनी सुरक्षा कर सकें। एक विलक्षण बात यह है कि उनकी इन्द्रियों का ग्राह्य क्षमता मनुष्य की तुलना में कई गुनी अधिक बढ़ी- चढ़ी है। जिन बातों का ज्ञान मानव भौतिक यन्त्रों के माध्यम से अर्जित करता है उनका बोध बिना किसी बाह्य यन्त्र के जीव जन्तुओं को मात्र उनकी इन्द्रियों के सहारे हो जाता है। फलतः समय रहते वे अपने व्यवहार, क्रिया-कलाप में परिवर्तन करके आने वाले संकटों की पूर्व सूचना देते देखे गये हैं।
जीव-जन्तुओं पर विगत वर्षों में की गयी शोधों से यह ज्ञात हुआ है कि उन्हें भूचाल का पूर्वानुमान हो जाता है। यह जानकारी उन्हें भूगर्भ में चल रही भूकम्पीय गतिविधियों से उत्पन्न मन्द ध्वनि तरंगों, दुर्गन्ध, झटकों तथा ऐसे अनेकों सूक्ष्म संकेतों से मिल जाती है। जन्तुओं की इस विलक्षण क्षमता पर सर्वप्रथम शोधकार्य चीन से आरम्भ हुआ जो अब काफी गति पकड़ चुका है। लियाओनिंग प्रान्त के उत्तरपूर्वी क्षेत्र में सन् 70 और 74 में आये दो भूकम्पों के दौरान स्थानीय पशु पक्षियों के व्यवहार में असामान्य परिवर्तन देखा गया।
प्रायः सर्प गर्मी, बरसात के मौसम में अपने बिलों से निकलते-विचरते तथा आक्रमण करते देखे जाते हैं। पर दिसम्बर 74 की तेज ठंड में लियाओनिंग प्रान्त के उत्तरी पूर्वी क्षेत्र में अचानक सर्प भिन्न तरह का बाहर करने लगे। कड़कड़ाती ठंड में उन्हें अपने बिलों से निकलकर उन्मादी रूप में बिलबिलाते देखा गया। चूहे दिन के उजाले में गली, चौराहे पर निर्भीक भागदौड़ मचाने लगे। इसके कुछ ही देर बाद उस क्षेत्र में भूकम्पीय झटकों की शृंखला शुरू हुई। फरवरी 74 में भी जन्तुओं का ऐसा ही परिवर्तित व्यवहार देखा सुअर परस्पर लड़ने भिड़ने लगे तथा अपने बाडे को तोड़कर निकल भागे। गाय, बैल जैसे सीधे जानवर भी रस्सियाँ तोड़ कर मुक्ति का प्रयास करने लगे। कुत्ते जमीन को सूँघते तथा अकारण ही भौंकते देखे गये। इसके तुरन्त बाद ही भूकम्प झटकों की दूसरी शृंखला प्रारम्भ हुई 4 फरवरी 75 की सुबह जन्तु जगत की यह विचित्र गतिविधियाँ जब चरमोत्कर्ष पर पहुँच गयीं, तो चीनी अधिकारियों ने पूर्व अनुभवों के आधार पर आने वाले भूकम्प का अनुमान लगाकर हैंचेग शहर को तुरन्त खाली करने का आदेश दिया। खाली होने के कुछ ही घन्टे बाद एक विनाशकारी भूकम्प आया जिसने पूरे नगर को कुछ ही क्षणों में धराशायी कर दिया।
इतिहास में ऐसे अन्य उदाहरण भी मौजूद हैं जिसमें भूचाल आने के पूर्व जीव-जन्तुओं के व्यवहार में इसी प्रकार का अद्भुत आकस्मिक परिवर्तन देखा गया। प्राचीन ग्रीक के चूहों, बिल्लियों, साँप-बिच्छुओं तथा दूसरे जानवरों को शहर छोड़कर बाहर सड़कों पर भागते, रेंगते देखा गया। सन् 1835 में चित्नी के कन्शिप्सन क्षेत्र में जब भूकम्प की विनाश लीला मची, तो उनके कुछ दिन पूर्व समुद्री चिड़ियों का एक विशाल झुण्ड उस क्षेत्र में ऊपर कलरव मचाता-मँडराता देखा गया। सन् 1906 में सैन फ्राँस्सिको में आये प्रचण्ड भूकम्प के पूर्व कुत्ते जहाँ-तहाँ लगातार भौंकते पाये गये थे। जापानी नदियों में कैटफिश के बड़े-बड़े झुण्ड का अकारण ही जी में उछलते रहना आदि घटनाएँ देखी गयीं।
इन घटनाओं के आधार पर जीव वैज्ञानिकों के मन में यह विश्वास सुदृढ़ होता जा रहा है कि जन्तुओं में अवश्य ही कोई ऐसा एन्टेना या सम्वेदी तन्त्र है जो भूकम्पीय तरंगों को पकड़ने में सक्षम है। दूसरी और भू-भौतिकी शोधों में ऐसे सूत्र संकेत मिले हैं जो बताते हैं कि भूकम्प आने के पूर्व भूगर्भ में अनेकों प्रकार की सूक्ष्म हलचलें होती हैं। सम्भवतः उन्हीं को अपने सम्वेदी अंगों द्वारा ग्रहण करके जीव परिकर भूकम्प का पूर्वाभास कर लेता है और भावी विनाश लीला को देखते हुए चित्र-विचित्र हरकतें करता है। भूचाल आकस्मिक नहीं होता, अपनी विनाशलीला प्रकट करने के पूर्व अनेकों चरणों में होकर गुजरता है। भूचाल से पूर्व धरती काँपती है। यह कम्पन पृथ्वीगत चट्टानों के पारस्परिक टकराव के कारण होता है। इसके बाद भूगर्भीय हलचलें तीव्रतम होती चली जाती हैं। भूकम्पीय तरंगें भूगर्भीय चट्टानों से होती हुई पृथ्वी सतह तक पहुँचती और पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में भारी फेर बदल उत्पन्न करती हैं। ये सब घटनाएँ इतनी सूक्ष्म होती हैं कि यन्त्र उपकरणों की पकड़ में नहीं आतीं, जीव-जन्तुओं के अत्यन्त संवेदनशील अंग उन्हें पकड़ लेते हैं।
पृथ्वी का सूक्ष्म चुम्बकीय क्षेत्र परिवर्तन एक ऐसी ही घटना है जो सर्वोत्तम दिशा ज्ञान रखने वाले पक्षी पालतू कबूतरों के ही अनुभव में आते हैं। ध्रुवों पर पृथ्वी का भू-चुम्बकीय क्षेत्र औसतन 60 हजार गॉस (गॉस-चुम्बकत्व माप की इकाई) तक पाया जाता है, विषुवत रेखा पर यह लगभग 30 हजार गॉस होता है कॉर्नवेल युनिवर्सिटी के जीवन विज्ञानी एस. लारकिन्स तथा उनके दिवंगत सहयोगी विलियन कीटन के अनुसार अति सुग्राहक चुम्बकीय सुई की भाँति पालतू कबूतर 30 गॉस जैसे अति सूक्ष्म चुम्बकत्व परिवर्तन को भी आसानी से पकड़ लेता है। यह विशेषता मात्र कबूतरों में ही नहीं मधुमक्खियों, गुबरैलों, दीमकों तथा अन्य छोटे जीवों में भी पायी जाती है।
कहा जा चुका है कि जिस प्रकृति को मनुष्य शांत, स्थिर मानता है, वह ऐसी है नहीं, उसमें निरन्तर स्पन्दन हो रहा है। उन स्पन्दनों में भली-बुरी घटनाओं के बीज विद्यमान हैं। उसमें ऐसी ध्वनियों निकलती रहती हैं तो हमारी श्रवण क्षमता के परे हैं। अपनी अद्भुत श्रवण क्षमता के बल पर वे नगण्य जीव-जगत उन्हें सुन लेते प्रकृति के गर्भ में पल रही आपदाओं-विभीषिकाओं से जीवन रक्षा करने की पूर्व व्यवस्था बनाते तथा तद्नुरूप सन्देश सम्प्रेषित करते देखे जाते हैं। मनुष्य की श्रवण क्षमता सीमित है। कान 1000 से 4000 साइकिल्स प्रति सेकेंड की ध्वनियों को ही पकड़ सकते हैं। 10,000 साइकिल्स प्रति सेकेंड वाली ध्वनियों के लिए हम बहरों के समान हैं, जबकि कुत्ते, बिल्ली लोमड़ी 60, साइकिल प्रति सेकेंड की ध्वनि को भी आसानी से सुन सकते हैं। चूहे, चमगादड़ तथा ह्वेल, डाल्फिन जैसी मछलियाँ तो 1000,000 साइकिल प्रति सेकेंड तक की ध्वनियों को न केवल सुन सकते हैं । वरन् वैसी ध्वनि तरंगें उत्पन्न भी करने में भी सक्षम हैं।
इस स्तर की ध्वनियों को अल्ट्रा सोनिक तरंगें कहते हैं। इनके अतिरिक्त एक अन्य प्रकार की ध्वनि तरंग भी होती है जो भूगर्भीय चट्टानों के मन्दगति से फटन तथा भूगर्भीय गैसों से आकस्मिक प्रस्फुटन से पैदा होती है। ये ध्वनि तरंगें पूर्णतः मानवी श्रवण क्षमता से परे हैं। “सिस्मोग्राफ जैसे श्रवण यन्त्रों के माध्यम से भी इन्हें नहीं सुना जा सकता। पशु पक्षियों को इन्फ्रा ध्वनि तरंग ग्रहण सामर्थ्य सम्बन्धी एक पर्यवेक्षण में जीव विज्ञानी मेलविन क्रीथेन एवं उनके सहयोगियों ने पाया कि पालतू कबूतर 3 साइकिल प्रति मिनट जैसी अत्यन्त मन्द ध्वनि तरंग को भी आसानी से पकड़ लेते हैं। इसी प्रकार का तरंग ग्रहण तन्त्र काँड मछली में भी पाया जाता है, जो भूकम्प से पूर्व उन्मादियों जैसी इधर-उधर उछलती-कूदती दिखायी देती हैं।
सूक्ष्म ध्वनि तरंग श्रवण सम्बन्धी शोध अत्यन्त कठिन कार्य है क्योंकि परिष्कृत तथा संवेदनशील यन्त्रों के बावजूद सूक्ष्मतम को पकड़ने वाले नहीं बन सके हैं। वैज्ञानिकों का मत है कि इन्फ्रा ध्वनि तरंगों से भी सूक्ष्म स्तर की ध्वनियाँ प्रकृति भूगर्भ में स्पन्दित होती रहती हैं जिनकी कोई जानकारी नहीं मिल पाती जबकि कबूतर आदि उन्हें आसानी से सुन लेते हैं। माइक्रोफोन स्टेशन द्वारा पता लगायी जाने वाली कोलाहल जैसी कृत्रिम ध्वनियाँ भी कबूतर पकड़ लेते हैं जिसके लिए मीलों लम्बे हवा कोलाहल फिल्टर रूपी जटिल तकनीकी व्यवस्था बनानी पड़ती है, यह व्यवस्था कबूतरों में प्रकृति ने फिट की है ताकि वे श्रवणातीत ध्वनियों को सुन सकें।
अल्ट्रा तथा इन्फ्रा ध्वनि तरंगों के अतिरिक्त मन्द भूकंपीय कम्पनों को भी पकड़ने में पशु पक्षी सक्षम होते हैं। शोध निष्कर्षों से ज्ञात हुआ है कि कबूतर की टाँग में सम्वेदी तन्त्रों का एक ऐसा जाल बिछा होता है जो अत्यन्त मन्द कम्पनी के प्रति भी अति संवेदनशील होता है। एक प्रयोग में देखा गया कि भूकम्प के पूर्व पालतू कबूतरों का झुण्ड यकायक उड़ गया जबकि दूसरे पालतू कबूतरों, जिनके सम्वेदी अंगों से सम्बद्ध स्नायु काट दिये गये थे, बिना घबराये दाना चुगते रहे। वे भूगर्भीय भूकम्पों के कम्पनों को नहीं पकड़ सके। कबूतरों की तरह मछलियों को भी मन्द कम्पनों का ज्ञान होता जाता है। मछलियों तथा अन्य जलचरों में एक विशेष प्रकार का लेटरल लाइन सिस्टम होता है। यह तन्त्र न केवल अपने निकटवर्ती शत्रुओं का पता लगा लेता है वरन् समुद्र के माध्यम से लम्बी दूरी तय करके हल्की भूकम्पीय तरंगों को ग्रहण करने में सक्षम होता है।
प्रकृति के भीतर क्या सूक्ष्म प्रक्रिया चल रही है तथा उससे किस प्रकार के संकेत मिल रहे हैं, इसकी जानकारी मनुष्येत्तर जीवों को आसानी से मिल जाती है। सर्वसमर्थ होते हुए भी मनुष्य इस क्षेत्र में उन नगण्य जीवों में भी पिछड़ा हुआ है। असम्भव कुछ भी नहीं है। सूत्र एवं विद्या हाथ लग सके तो वह सामर्थ्य मनुष्य अपनी ही कायिक प्रयोगशाला में विकसित कर सकता है। वह विद्या क्या हो, यह विज्ञान के समक्ष शोध का विषय है। अपनी हठधर्मिता छोड़कर अध्यात्म की विभिन्न धाराओं का सहयोग लिये जा सकें तो इस दिशा में बढ़ने तथा कुछ महत्वपूर्ण करने का संकेत मार्गदर्शन अध्यात्म विज्ञान दे सकता है। ऐसा सम्भव हो सके तो सचमुच ही प्रकृति रहस्यों को समझने तथा उनसे समय पर लाभ उठाने के वे सूत्र हाथ लग सकते हैं जिनसे प्रकृति के अन्य जीव अनायास ही लाभान्वित होते रहते हैं। इससे समय से पूर्व विभीषिकाओं से बचने अनुकूलताओं से लाभ उठाने तथा श्रवणातीत ध्वनियों से अन्तः सामर्थ्य को विकसित करने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।